बलं बलवतामस्मि कामरागविवर्जितम्।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ।।7.11।।
।।7.11।।हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन बलवालोंमें काम और रागसे रहित बल मैं हूँ। मनुष्योंमें धर्मसे अविरुद्ध (धर्मयुक्त) काम मैं हूँ।
।।7.11।। हे भरत श्रेष्ठ मैं बलवानों का कामना तथा आसक्ति से रहित बल हूँ और सब भूतों में धर्म के अविरुद्ध अर्थात् अनुकूल काम हूँ।।
।।7.11।। व्याख्या बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम् कठिनसेकठिन काम करते हुए भी अपने भीतर एक कामनाआसक्तिरहित शुद्ध निर्मल उत्साह रहता है। काम पूरा होनेपर भी मेरा कार्य शास्त्र और धर्मके अनुकूल है तथा लोकमर्यादाके अनुसार सन्तजनानुमोदित है ऐसे विचारसे मनमें एक उत्साह रहता है। इसका नाम बल है। यह बल भगवान्का ही स्वरूप है। अतः यह बल ग्राह्य है।गीतामें भगवान्ने खुद ही बलकी व्याख्या कर दी है। सत्रहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कामरागबलान्विताः पदमें आया बल कामना और आसक्तिसे युक्त होनेसे दुराग्रह और हठका वाचक है। अतः यह बल भगवान्का स्वरूप नहीं है प्रत्युत आसुरी सम्पत्ति होनेसे त्याज्य है। ऐसे ही सिद्धोऽहं बलवान्सुखी (गीता 16। 14) और अहंकारं बलं दर्पम् (गीता 16। 18 18। 53) पदोंमें आया बल भी त्याज्य है। छठे अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें बलवद्दृढम् पदमें आया बल शब्द मनका विशेषण है। वह बल भी आसुरी सम्पत्तिका ही है क्योंकि उसमें कामना और आसक्ति है। परन्तु यहाँ (7। 11 में) जो बल आया है वह कामना और आसक्तिसे रहित है इसलिये यह सात्त्विक उत्साहका वाचक है और ग्राह्य है। सत्रहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें आयुःसत्त्वबलारोग्य ৷৷. पदमें आया बल शब्द भी इसी सात्त्विक बलका वाचक है।धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुन मनुष्योंमें (टिप्पणी प0 407.1) धर्मसे अविरुद्ध अर्थात् धर्मयुक्त काम (टिप्पणी प0 407.2) मेरा स्वरूप है। कारण कि शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुसार शुभभावसे केवल सन्तानउत्पत्तिके लिये जो काम होता है वह काम मनुष्यके अधीन होता है। परंतु आसक्ति कामना सुखभोग आदिके लिये जो काम होता है उस काममें मनुष्य पराधीन हो जाता है और उसके वशमें होकर वह न करनेलायक शास्त्रविरुद्ध काममें प्रवृत्त हो जाता है। शास्त्रविरुद्ध काम पतनका तथा सम्पूर्ण पापों और दुःखोंका हेतु होता है।कृत्रिम उपायोंसे सन्ततिनिरोध कराकर केवल भोगबुद्धिसे काममें प्रवृत्त होना महान् नरकोंका दरवाजा है। जो सन्तानकी उत्पत्ति कर सके वह पुरुष कहलाता है और जो गर्भ धारण कर सके वह स्त्री कहलाती है (टिप्पणी प0 407.3)। अगर पुरुष और स्त्री आपरेशनके द्वारा अपनी सन्तानोत्पत्ति करनेकी योग्यता(पुरुषत्व और स्त्रीत्व) को नष्ट कर देते हैं वे दोनों ही हिजड़े कहलानेयोग्य हैं। नपुंसक होनेके कारण देवकार्य (हवनपूजन आदि) और पितृकार्य (श्राद्धतर्पण) में उनका अधिकार नहीं रहता (टिप्पणी प0 407.4)। स्त्रीमें मातृशक्ति नष्ट हो जानेके कारण उसके लिये परम आदरणीय एवं प्रिय माँ सम्बोधनका प्रयोग भी नहीं किया जा सकता। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह या तो शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुसार केवल सन्तानोत्पत्तिके लिये कामका सेवन करे अथवा ब्रह्मचर्यका पालन करे।
।।7.11।। सामान्य बुद्धिमत्ता के और मन्दबुद्धि के लोगों को अनेक उदाहरण देने के पश्चात् यहाँ इस श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण उस अत्यन्त मेधावी पुरुष के लिये तत्त्व का निर्देश करते हैं जिसमें यह क्षमता हो कि वह इस दिये हुये निर्देश पर सूक्ष्म विचार कर सके।बलवानों का बल मैं हूँ केवल इतने ही कथन में पूर्व कथित दृष्टान्तों की अपेक्षा कोई अधिक विशेषता नहीं दिखाई पड़ती। परन्तु बल शब्द को दिये गये विशेषण से इसको विशेष महत्त्व प्राप्त हो जाता है। सामान्यत मनुष्य में जब कामना व आसक्ति होती है तब वह अथक परिश्रम करते हुये दिखाई देता है और अपनी इच्छित वस्तु को पाने के लिये सम्पूर्ण शक्ति लगा देता है।कामना और आसक्ति इन दो प्रेरक वृत्तियों के बिना किसी बल की हम कल्पना भी नहीं कर पाते हैं। यद्यपि सतही दृष्टि से काम और राग में हमें भेद नहीं दिखाई देता है तथापि शंकराचार्य अपने भाष्य में उसे स्पष्ट करते हुये कहते हैं. अप्राप्त वस्तु की इच्छा काम है और प्राप्त वस्तु में आसक्ति राग कहलाती है। मन की इन्हीं दो वृत्तियों के कारण व्यक्ति या परिवार समाज या राष्ट्र अपनी सार्मथ्य को प्रकट करते हैं। हड़ताल और दंगे उपद्रव और युद्ध इन सबके पीछे प्रेरक वृत्तियां हैं काम और राग। श्रीकृष्ण कहते हैं मैं बलवानों का काम और राग से वर्जित बल हूँ। स्पष्ट है कि यहाँ सामान्य बल की बात नहीं कही गयी है।इस कथन से मानों उन्हें सन्तोष नहीं होता है और इसलिये वे आगे और कहते हैं प्राणियों में धर्म के अनुकूल काम मैं हूँ। जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व होता है वह उसका धर्म कहलाता है। मनुष्य का अस्तित्व चैतन्य आत्मा के बिना नहीं हो सकता अत वह उसका वास्तविक धर्म या स्वरूप है। व्यवहार में जो विचार भावना और कर्म उसके दिव्य स्वरूप के विरुद्ध नहीं है वे धर्म के अन्तर्गत आते हैं। जिन विचारों एवं कर्मों से अपने आत्मस्वरूप को पहचानने में सहायता मिलती है उन्हें धर्म कहा जाता है और इसके विपरीत कर्म अधर्म कहलाते हैं क्योंकि वे उसकी आत्मविस्मृति को दृढ़ करते हैं। उनके वशीभूत होकर मनुष्य पतित होकर पशुवत् व्यवहार करने लगता है।धर्म की परिभाषा को ध्यान में रखकर इस श्लोक के अध्ययन से उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है। धर्म के अविरुद्ध कामना से तात्पर्य साधक की उस इच्छा तथा क्षमता से है जिसके द्वारा वह अपनी दुर्बलताओं को समझकर उन्हें दूर करने का प्रयत्न करता है और आत्मोन्नति की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता जाता है। भगवान् के कथन को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मैं साधक नहीं वरन् उसमें स्थित आत्मज्ञान की प्रखर जिज्ञासा हूँ।अब तक के उपदेश तथा दृष्टान्तों का क्या यह अर्थ हुआ कि आत्मा वास्तव में अनात्म जड़ उपाधियों के बन्धन में आ गया है परिच्छिन्न उपाधि अपरिच्छिन्न आत्मा को कैसे सीमित कर सकती है इसके उत्तर में भगवान् कहते हैं
7.11 And of the strong I am the strength which is devoid of passion and attachment. Among creatures I am desire which is not contrary to righteousness, O scion of the Bharata dyansty.
7.11 Of the strong, I am the strength devoid of desire and attachment, and in (all) beings, I am the desire unopposed to Dharma, O Arjuna.
7.11. Of the strong, I am the strength that is free from desire and attachment. O best of the Bharatas, in [all] beings I am the desire which is not opposed to attributes.
7.11 बलम् strength? बलवताम् of the strong? अस्मि am (I)? कामरागविवर्जितम् devoid of desire and attachment? धर्माविरुद्धः unopposed to Dharma? भूतेषु in beings? कामः desire? अस्मि am (I)? भरतर्षभ O Lord of the Bharatas.Commentary Kama Desire for those objects that come in contact with the senses.Raga attachment for those objects that come in contact with the senses.I am that strength which is necessary for the bare sustenance of the body. I am not the strength which generates desire and attachment for sensual objects as in the case of worldlyminded persons. I am the desire which is in accordance with the teachings of the scriptures or the code prescribing the duties of life. I am the desire for moderate eating and drinking? etc.? which are,necessary for the sustenance of the body and which help one in the practice of Yoga.
7.11 I am the balam, strength, ability, virility; balavatam, of the strong. That strength, again, is kama-raga-vivarjitam, devoid of passion and attachment. Kamah is passion, hankering for things not at hand. Ragah is attachment, fondness for things acired. I am the strength that is devoid of them and is necessary merely for the maintenance of the body etc., but not that strength of the worldly which causes hankering and attachment. Further, bhutesu, among creatures; I am that kamah, desire-such desires as for eating, drinking, etc. which are for the mere maintenance of the body and so on; which is dharma-aviruddhah, not contrary to righteousness, not opposed to scriptural injunctions; bharatarsabha, O scion of the Bharata dynasty. Moreover,
7.10-11 Bijam etc. Balam etc. The seed : the subtle prime cause. The strength, free from desire and attachment : It is of the nature of vigour and is capable of supporting all that exist. Deire : the Will, which is nothing but Pure Consciousness and which is not opposed to any of the attributes (its objects) like pot, cloth etc. For, the Will, because it is the [conscious] energy of the Bhagavat, is immanent in all and nowhere is it opposed, eventhough it is being differentiated (i.e. the wills or desires are classified) on account of its attributes like pot, cloth etc., which are [only] accidental. Thus the wise, because they are devoted to this Will, are of the nature of Pure Consciousness. That has been said also in the Sivopanisad as - [A man of wisdom] would concentrate his mind on the Will or [Self] Consciousness that arises. (VB, 98) [Here in this otation] that arises means that has just risen but has not yet spread outside. Ignoring this way of interpretation [of the Gita passage] some interpret it so as to bring out the idea He would enjoy the group of the three, not hindering mutually. These (commentators) are ignorant of the customs (karma) sanctioned by the traditions; yet they interpret the secret about the Absolute ! No doubt they deserve [our] salutation.
7.8 - 7.11 All these entities with their peculiar characteristic are born from Me alone. They depend on Me; inasmuch as they constitute My body, they exist in Me alone. Thus I alone exist while all of them are only My modes.
I am the strength of the strong, not displayed out of anger or used with the desire to maintain to ones own lifestyle. 1 am lust not contrary to dharma, directed towards one’s wife only for the production of children.
Rajas or passion is an active desire for things unattained. Attachment though is a passive emotion of the mind which incites the thirst for more of a desired object after already experiencing it. So when Lord Krishna states: kama-raga-vivarjitam meaning devoid of passion and attachment He is explaining the nature of His strength. He is the serene, sublime strength which empowers one to regularly perform their spiritual duties without deviation or cessation. He is also the passion which is never contrary to sanatan dharma or eternal righteousness and which is beneficial in marriage and having a son by ones wife.
Being completely devoid of desires and attachments Lord Krishna is eternally full and powerful in strength. This is His natural propensity and contains no rajas or passion. Since He bestows strength similar to His like He did with the five Pandavas, He is balam balavatam or the strength of the strong. Since ba symbolises strength and la symbolises bliss, He is the bliss of strength Himself. It is primarily the unchecked desires for sensual enjoyments that causes the diminution of piety and morality; but these desires are not detrimental if they are attuned to sanatan dharma or eternal righteousness. The Supreme Lord resides in all desires that are not contrary to sanatan dharma; but he never resides in any action that is contrary to righteousness. Therefore the Supreme Lord Krishna even while abiding in everything still has the capacity to remain distinct from them although as the Supreme Lord He encompasses all.
Lord Krishna declares that all these things of distinguishing qualities manifest from Himself only and not from any other. All things are His parts and parcels and constitute His body. Hence all things are always in Him and He is always in all things. He is the sole existing reality and all things are completely dependent upon Him. Next we will see things viewed in another way.
Lord Krishna declares that all these things of distinguishing qualities manifest from Himself only and not from any other. All things are His parts and parcels and constitute His body. Hence all things are always in Him and He is always in all things. He is the sole existing reality and all things are completely dependent upon Him. Next we will see things viewed in another way.
Balam balavataam asmi kaamaraagavivarjitam; Dharmaaviruddho bhooteshu kaamo’smi bharatarshabha.
balam—strength; bala-vatām—of the strong; cha—and; aham—I; kāma—desire; rāga—passion; vivarjitam—devoid of; dharma-aviruddhaḥ—not conflicting with dharma; bhūteṣhu—in all beings; kāmaḥ—sexual activity; asmi—(I) am; bharata-ṛiṣhabha—Arjun, the best of the Bharats