ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये।
मत्त एवेति तान्विद्धि नत्वहं तेषु ते मयि।।7.12।।
।।7.12।।(और तो क्या कहें) जितने भी सात्त्विक राजस और तामस भाव हैं वे सब मेरेसे ही होते हैं ऐसा समझो। पर मैं उनमें और वे मेरेमें नहीं हैं।
।।7.12।। जो भी सात्त्विक (शुद्ध) राजसिक (क्रियाशील) और तामसिक (जड़) भाव हैं उन सबको तुम मेरे से उत्पन्न हुए जानो तथापि मैं उनमें नहीं हूँ वे मुझमें हैं।।