दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।7.14।।
।।7.14।।क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं वे इस मायाको तर जाते हैं।
।।7.14।। यह दैवी त्रिगुणमयी मेरी माया बड़ी दुस्तर है। परन्तु जो मेरी शरण में आते हैं वे इस माया को पार कर जाते हैं।।
।।7.14।। व्याख्या दैवी ह्येषा गुणमयी (टिप्पणी प0 411) मम माया दुरत्यया सत्त्व रज और तम इन तीन गुणोंवाली दैवी (देव अर्थात् परमात्माकी) माया बड़ी ही दुरत्यय है। भोग और संग्रहकी इच्छा रखनेवाले मनुष्य इस मायासे सम्बन्धविच्छेद नहीं कर सकते।दुरत्यय कहनेका तात्पर्य है कि ये मनुष्य अपनेको कभी सुखी और कभी दुःखी कभी समझदार और कभी बेसमझ कभी निर्बल और कभी बलवान् आदि मानकर इन भावोंमें तल्लीन रहते हैं। इस तरह आनेजानेवाले प्राकृत भावों और पदार्थोंमें ही तादात्म्य ममता कामना करके उनसे बँधे रहते हैं और अपनेको इनसे रहित अनुभव नहीं कर सकते। यही इस मायामें दुरत्ययपना है।यह गुणमयी माया तभी दुरत्यय होती है जब भगवान्के सिवाय गुणोंकी स्वतन्त्र सत्ता और महत्ता मानी जाय। अगर मनुष्य भगवान्के सिवाय गुणोंकी अलग सत्ता और महत्ता नहीं मानेगा तो वह इस गुणमयी मायासे तर जायगा।मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते मनुष्योंमेंसे जो केवल मेरी ही शरण होते हैं वे इस मायाको तर जाते हैं क्योंकि उनकी दृष्टि केवल मेरी ही तरफ रहती है तीनों गुणोंकी तरफ नहीं। जैसा कि पहले वर्णन किया है सत्त्व रज और तम ये तीनों गुण न मेरेमें हैं और न मैं उनमें हूँ। मैं तो निर्लिप्त रहकर सभी कार्य करता हूँ। इस प्रकार जो मेरे स्वरूपको जानते हैं वे गुणोंमें नहीं फँसते इस मायासे तर जाते हैं। वे गुणोंका कार्य मनबुद्धिका किञ्चिन्मात्र भी सहारा नहीं लेते। क्यों नहीं लेते क्योंकि वे इस बातको जानते हैं कि प्रकृतिका कार्य होनेसे मनबुद्धि भी तो प्रकृति हैं। प्रकृतिकी क्रियाशीलता प्रकृतिमें ही है। जैसे प्रकृति हरदम प्रलयकी तरफ जा रही है ऐसे ही ये मनबुद्धि भी तो प्रलयकी तरफ जा रहे हैं। अतः उनका सहारा लेना परतन्त्रा ही है। ऐसी परतन्त्रता बिलकुल न रहे और परा प्रकृति (जो कि परमात्माका अंश है) केवल परमात्माकी तरफ आकृष्ट हो जाय तथा अपरासे सर्वथा विमुख हो जाय यही भगवान्के सर्वथा शरण होनेका तात्पर्य है।यहाँ मामेव कहनेका तात्पर्य है कि वे अनन्यभावसे केवल मेरे ही शरण होते हैं क्योंकि मेरे सिवाय दूसरीकोई सत्ता है ही नहीं।कई साधक मेरे शरण तो हो जाते हैं परन्तु केवल मेरे ही शरण नहीं होते। इसलिये कहा कि जो मामेव केवल मेरी ही शरण लेते हैं वे तर जाते हैं। मायाकी शरण न ले अर्थात् हमारे पास रुपयेपैसे चीजवस्तु आदि सब रहें पर हम इनको अपना आधार न मानें इनका आश्रय न लें इनका भरोसा न करें इनको महत्त्व न दें। इनका उपयोग करनेका हमें अधिकार है। इनपर कब्जा करनेका हमें अधिकार नहीं है। इनपर कब्जा कर लेना ही इनके आश्रित होना है। आश्रित होनेपर इनसे अलग होना कठिन मालूम देता है यह वास्तवमें दुरत्ययपना है। इस दुरत्ययपनासे छूटनेके लिये ही उपाय बताते हैं मामेव च प्रपद्यन्ते।शरीर इन्द्रियाँ आदि सामग्रीको अपनी और अपने लिये न मानकर भगवान्की और भगवान्के लिये ही मानकर भगवान्के भजनमें उनके आज्ञापालनमें लगा देना है। अपनेको इनसे कुछ नहीं लेना है। इनको भगवान्में लगा देनेका फल भी अपनेको नहीं लेना है क्योंकि जब भगवान्की वस्तु सर्वथा भगवान्के अर्पण कर दी अर्थात् उसमें भूलसे जो अपनापन कर लिया था वह हटा लिया तब उस समर्पणका फल हमारा कैसे हो सकता है यह सब सामग्री तो भगवान्की सेवाके लिये ही भगवान्से मिली है। अतः इसको उनकी सेवामें लगा देना हमारा कर्तव्य है हमारी ईमानदारी है। इस ईमानदारीसे भगवान् बड़े प्रसन्न हो जाते हैं और उनकी कृपासे मनुष्य मायाको तर जाते हैं।अपने पास अपनी करके कोई वस्तु है नहीं। भगवान्की दी हुई वस्तुओंको अपनी मानकर अपनेमें अभिमान किया था यह गलती थी। भगवान्का तो बड़ा ही उदार एवं प्रेमभरा स्वभाव है कि वे जिस किसीको कुछ देते हैं उसको इस बातका पता ही नहीं लगने देते कि यह भगवान्की दी हुई है प्रत्युत जिसको जो कुछ मिला है उसको वह अपनी और अपने लिये ही मान लेता है। यह भगवान्का देनेका एक विलक्षण ढंग है। उनकी इस कृपाको केवल भक्तलोग ही जान सकते हैं। परन्तु जो लोग भगवान्से विमुख होते हैं वे सोच ही नहीं सकते कि इन वस्तुओंको हम सदा पासमें रख सकते हैं क्या अथवा वस्तुओंके पास हम सदा रह सकते हैं क्या इन वस्तुओंपर हमारा आधिपत्य चल सकता है क्या इसलिये वे अनन्यभावसे भगवान्के शरण नहीं हो सकते।इस श्लोकका भाव यह हुआ कि जो केवल भगवान्के ही शरण होते हैं अर्थात् जो केवल दैवी सम्पत्तिवाले होते हैं वे भगवान्की गुणमयी मायाको तर जाते हैं। परन्तु जो भगवान्के शरण न होकर देवता आदिके शरण होते हैं अर्थात् जो केवल आसुरी सम्पत्तिवाले (प्राणपिण्डपोषणपरायण सुखभोगपरायण) होते हैं वे भगवान्की गुणमयी मायाको नहीं तर सकते। ऐसे आसुर स्वभाववाले मनुष्य भले ही ब्रह्मलोकतक चले जायँ तो भी उनको (ब्रह्मलोकतक गुणमयी माया होनेसे) वहाँसे लौटना ही पड़ता है जन्मनामरना ही पड़ता है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने यह बताया कि मेरे शरण होनेवाले सभी मायासे तर जाते हैं। अतः सबकेसब प्राणी मेरे शरण क्यों नहीं होते इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।7.14।। भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि अहंकार से युक्त आत्मकेन्द्रित पुरुष के लिए मेरी माया से उत्पन्न मोह को पार कर पाना दुस्तर है। यदि कोई चिकित्सक रोगी के रोग को पहचान कर कहे कि इस रोग के निवारण के लिए कोई औषधि नहीं है तो कोई भी रोगी सावधानी उत्साह तथा श्रद्धा के साथ चिकित्सक की सलाह के अनुसार उपचार नहीं करेगा। इसी प्रकार यदि भवरोगियों के चिकित्सक भगवान् श्रीकृष्ण रोग का कारण माया को बताकर उसे दुस्तर घोषित करें तो कौन व्यक्ति श्रद्धा के साथ उनके निराशावादी उपदेश का अनुकरण करेगा भगवान् श्रीकृष्ण इस कठिनाई अथवा दोष को जानते हैं और इसलिए तत्काल ही साधक के मन की शंका को दूर करते हैं। यदा कदा रोगी को उसके रोग की गम्भीरता का भान कराने के लिए चिकित्सक को कठोर भाषा का प्रयोग करना पड़ता है ठीक उसी प्रकार यहाँ श्रीकृष्ण अनेक विशेषणों के द्वारा हमें इस रोग की वह भयंकरता बताने का प्रयत्न करते हैं जिसके कारण हम अपने परमात्म स्वरूप को भूलकर संसारी जीवभाव को प्राप्त हो गये हैं रोग तथा उपचार को बताकर भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण स्वास्थ्य का आश्वासन भी देते हैं।जो साधक मेरी शरण में आते हैं वे माया को तर जाते हैं। शरण से तात्पर्य भगवान् के स्वरूप को पहचान कर तत्स्वरूप बन जाना है। इसका सम्पादन कैसे किया जा सकता है इसका विवेचन पूर्व के ध्यानयोग नामक अध्याय में किया जा चुका है। एकाग्र चित्त होकर आत्मस्वरूप का ध्यान करना यह साक्षात् साधन है और ध्यान के लिए आवश्यक योग्यता प्राप्त करने के उपाय भी पहले बताये गये हैं।यदि आपकी शरण में आने से माया को पार किया जा सकता है तो फिर सब लोग आपकी शरण में क्यों नहीं आते हैं इस पर कहते हैं