न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।7.15।।
।।7.15।। दुष्कृत्य करने वाले मूढ नराधम पुरुष मुझे नहीं भजते हैं माया के द्वारा जिनका ज्ञान हर लिया गया है वे आसुरी भाव को धारण किये रहते हैं।।
।।7.15।। पूर्व श्लोक में कहा गया है कि मेरे भक्त माया को तर जाते हैं तो इस श्लोक में बता रहे हैं कि कौन से लोग हैं जो मेरी भक्ति नहीं करते हैं। इन दो प्रकार के लोगों का भेद स्पष्ट किये बिना जिज्ञासु साधक सम्यक् प्रकार से यह नहीं जान सकता कि मन की कौन सी प्रवृत्तियां मोह के लक्षण हैं।दुष्कृत्य करने वाले मूढ नराधम लोग ईश्वर की भक्ति नहीं करते हैं जिसका कारण यह है कि उनके विवेक का माया द्वारा हरण कर लिया जाता है। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि मनुष्य के उच्च विकास का लक्षण उसकी विवेकवती बुद्धि है। इस बुद्धि के द्वारा वह अच्छाबुरा उच्चनीच नैतिकअनैतिक का विवेक कर पाता है। बुद्धि ही वह माध्यम है जिसके द्वारा मनुष्य अज्ञानजनित जीवभाव के स्वप्न से जागकर अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है।विषयों के द्वारा जो व्यक्ति क्षुब्ध नहीं होता उसमें ही यह विवेकशक्ति प्रभावशाली ढंग से कार्य कर पाती है। मनुष्य में देहात्मभाव जितना अधिक दृढ़ होगा उतनी ही अधिक विषयाभिमुखी उसकी प्रवृत्ति होगी। अत विषयभोग की कामना को पूर्ण करने हेतु वह निंद्य कर्म में भी प्रवृत्त होगा। इस दृष्टि से पाप कर्म का अर्थ है मनुष्यत्व की उच्च स्थिति को पाकर भी स्वस्वरूप के प्रतिकूल किये गये कर्म। स्थूल देह को अपना स्वरूप समझकर मोहित हुए पुरुष ही पापकर्म करते हैं। ऐसे लोगों को यहाँ मूढ़ और आसुरी भाव का मनुष्य कहा गया है। गीता के सोलहवें अध्याय में दैवी और आसुरीभाव का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।परन्तु जो पुण्यकर्मी लोग हैं वे चार प्रकार से मेरी भक्ति करते हैं। भगवान् कहते हैं