चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।
।।7.16।। हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन) आर्त जिज्ञासु अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं।।
।।7.16।। समस्त पदार्थ एवं ऊर्जा का स्रोत आत्मा ही होने के कारण जड़ पदार्थों में यदि क्रिया होते दिखाई दे तो उसका प्रेरक स्रोत भी आत्मा ही होना चाहिए। वाष्प इंजन का प्रत्येक भाग लोहे का बना होता है और फिर भी यदि उसमें रेल के डिब्बों को खींचने की सार्मथ्य होती है तो निश्चय ही उस सार्मथ्य का स्रोत लोहे से भिन्न होना चाहिए। ठीक इसी प्रकार समस्त मनुष्य शरीर मन और बुद्धि के माध्यम से जो सार्मथ्य प्रकट करते हैं वह आत्मचैतन्य के कारण ही संभव होता है। योगी हो या भोगी दोनों को कार्य करने के लिए आत्मचैतन्य का ही आह्वान करना पड़ता है। चाहे वे पीड़ा और कष्ट के समय सान्त्वना की कामना करें या विषय उपभोगों की इच्छा करें इन सबके लिए आत्मा की चेतनता आवश्यक होती है।एक विशेष दशा मे कार्य करने के लिए आत्मा का आह्वान करना ही भजन या प्रार्थना है। प्रार्थना विधि में भक्त स्वयं को ईश्वर के चरणों में समर्पित करके ईश्वर के अनुग्रह की कामना करता है। इसको समझने के लिए हम विद्युत् का दृष्टान्त ले सकते हैं। विद्युत् पंखा हीटर रेडियो आदि स्वयं कुछ कार्य नहीं कर सकते। विद्युत् शक्ति के इनमें प्रवाहित होने पर ये अपनेअपने कार्य के द्वारा समाज की सेवा कर पाते हैं। यही विद्युत् शक्ति का आह्वान है।स्पष्ट है कि सभी यन्त्रों के लिए विद्युत् आवश्यक है लेकिन उसका उपयोग किस यन्त्र के लिए करना है वह हमारी इच्छा पर निर्भर करता है। शीत ऋतु के दिनों में पंखा चलाकर हमें और अधिक कष्ट उठाना पड़े तो उसका दोष विद्युत् को नहीं दिया जा सकता और न ही उसे क्रूर कहा जा सकता है। विखण्डित मन में जब चैतन्य व्यक्त होता है तो मन के अवगुणों के लिए आत्मा को दोष नहीं दिया जा सकता।इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि एक मात्र आत्मा ही चैतन्य स्वरूप है। भगवान् यहाँ कहते हैं कि पापी हो या पुण्यात्मा मूढ़ हो या बुद्धिमान आलसी हो या क्रियाशील भीरु हो या साहसी सब मुझे ही भजते हैं और मैं उन सबके हृदय में व्यक्त होता हूँ। शरीर मन या बुद्धि से कार्य करने के लिए सभी मनुष्यों को जाने या अनजाने मेरा आह्वान करना पड़ता है।इस श्लोक में पुण्यकर्मी भक्तों का चार प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। वे हैं (क) आर्त आर्त का सामान्य अर्थ है दुख से पीड़ित व्यक्ति। दुखार्त भक्त अपने कष्ट के निवारण के लिए भक्ति करता है। यह सामान्य दुख के विषय में हुआ किन्तु ऐसे भी व्यक्ति होते हैं जिन्हें जीवन में सब प्रकार की सुखसुविधाएं उपलब्ध होने पर भी वे एक प्रकार की आन्तरिक अशान्ति का अनुभव करते हैं। इस अशान्ति की निवृत्ति भगवत्स्वरूप की प्राप्ति से ही होती है। ऐसे आर्त भक्त भी मेरा भजन करते हैं।(ख) जिज्ञासु जो साधक शास्त्राध्ययन के द्वारा मुझे जानना चाहते हैं वे जिज्ञासु भक्त हैं।(ग) अर्थार्थी किसीनकिसी कार्यक्षेत्र में इष्ट फल को प्राप्त करने के लिए जो लोग कर्म करते हुए मेरे अनुग्रह की कामना करते हैं उन्हें अर्थार्थी कहते हैं। कामना की पूर्ति इनका लक्ष्य होता है।(घ) ज्ञानी उपर्युक्त तीनों से भिन्न ज्ञानी भक्त विरला ही होता है जो न किसी फल की इच्छा रखता है और न मुझसे कोई अपेक्षा। वह स्वयं को ही मुझे अर्पित कर देता है। वह मेरे स्वरूप को पहचान कर मेरे साथ एकत्व को प्राप्त हो जाता है।इन चर्तुविध भक्तों में सर्वश्रेष्ठ कौन है