कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः।
तं तं नियममास्थाय प्रकृत्या नियताः स्वया।।7.20।।
।।7.20।।उनउन कामनाओंसे जिनका ज्ञान अपहृत हो गया है ऐसे वे मनुष्य अपनीअपनी प्रकृतिसे नियन्त्रित होकर (देवताओंके) उनउन नियमोंको धारण करते हुए उनउन देवताओंके शरण हो जाते हैं (टिप्पणी प0 429.1)।
।।7.20।। भोगविशेष की कामना से जिनका ज्ञान हर लिया गया है ऐसे पुरुष अपने स्वभाव से प्रेरित हुए अन्य देवताओं को विशिष्ट नियम का पालन करते हुए भजते हैं।।
।।7.20।। व्याख्या कामैस्तैस्तैर्हृतज्ञानाः उनउन अर्थात् इस लोकके और परलोकके भोगोंकी कामनाओंसे जिनका ज्ञान ढक गया है आच्छादित हो गया है। तात्पर्य है कि परमात्माकी प्राप्तिके लिये जो विवेकयुक्त मनुष्यशरीर मिला है उस शरीरमें आकर परमात्माकी प्राप्ति न करके वे अपनी कामनाओंकी पूर्ति करनेमें ही लगे रहते हैं।संयोगजन्य सुखकी इच्छाको कामना कहते हैं। कामना दो तरहकी होती है यहाँके भोग भोगनेके लिये धनसंग्रहकी कामना और स्वर्गादि परलोकके भोग भोगनेके लिये पुण्यसंग्रहकी कामना।धनसंग्रहकी कामना दो तरहकी होती है पहली यहाँ चाहे जैसे भोग भोगें चाहे जब चाहे जहाँ और चाहे जितना धन खर्च करें सुखआरामसे दिन बीतें आदिके लिये अर्थात् संयोगजन्य सुखके लिये धनसंग्रहकी कामना होती है और दूसरी मैं धनी हो जाऊँ धनसे मैं बड़ा बन जाऊँ आदिके लिये अर्थात् अभिमानजन्य सुखके लिये धनसंग्रहकी कामना होती है। ऐसे ही पुण्यसंग्रहकी कामना भी दो तरहकी होती है पहली यहाँ मैं पुण्यात्मा कहलाऊँ और दूसरी परलोकमें मेरेको भोग मिलें। इन सभी कामनाओंसे सत्असत् नित्यअनित्य सारअसार बन्धमोक्ष आदिका विवेक आच्छादित हो जाता है। विवेक आच्छादित होनेसे वे यह समझ नहीं पाते कि जिन पदार्थोंकी हम कामना कर रहे हैं वे पदार्थ हमारे साथ कबतक रहेंगे और हम उन पदार्थोंके साथ कबतक रहेंगेप्रकृत्या नियताः स्वया कामनाओंके कारण विवेक ढका जानेसे वे अपनी प्रकृतिसे नियन्त्रित रहते हैं अर्थात् अपने स्वभावके परवश रहते हैं। यहाँ प्रकृति शब्द व्यक्तिगत स्वभावका वाचक है समष्टि प्रकृतिका वाचक नहीं। यह व्यक्तिगत स्वभाव सबमें मुख्य होता है स्वभावो मूर्ध्नि वर्तते। अतः व्यक्तिगत स्वभावको कोई छोड़ नहीं सकता या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते। परन्तु इस स्वभावमें जो दोष हैं उनको तो मनुष्य छोड़ ही सकता है अगर उन दोषोंको मनुष्य छोड़ नहीं सकता तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही क्या हुई मनुष्य अपने स्वभावको निर्दोष शुद्ध बनानेमें सर्वथा स्वतन्त्र है। परन्तु जबतक मनुष्यके भीतर कामनापूर्तिका उद्देश्य रहता है तबतक वह अपने स्वभावको सुधार नहीं सकता और तभीतक स्वभावकी प्रबलता और अपनेमें निर्बलता दीखती है। परन्तु जिसका उद्देश्य कामना मिटानेका हो जाता है वह अपनी प्रकृति(स्वभाव) का सुधार कर सकता है अर्थात् उसमें प्रकृतिकी परवशता नहीं रहती।तं तं नियममास्थाय कामनाओंके कारण अपनी प्रकृतिके परवश होनेपर मनुष्य कामनापूर्तिके अनेक उपायोंको और विधियों (नियमों) को ढूँढ़ता रहता है। अमुक यज्ञ करनेसे कामना पूरी होगी कि अमुक तप करनेसे अमुक दान देनेसे कामना पूरी होगी कि अमुक मन्त्रका जप करनेसे आदिआदि उपाय खोजता रहता है। उन उपायोंकी विधियाँ अर्थात् नियम अलगअलग होते हैं। जैसे अमुक कामनापूर्तिके लिये अमुक विधिसे यज्ञ आदि करना चाहिये और अमुक स्थानपर करना चाहिये आदिआदि। इस तरह मनुष्य अपनी कामनापूर्तिके लिये अनेक उपायों और नियमोंको धारण करता है।प्रपद्यन्तेऽन्यदेवताः कामनापूर्तिके लिये अनेक उपायों और नियमोंको धारण करके मनुष्य अन्य देवताओंकी शरण लेते हैं भगवान्की शरण नहीं लेते। यहाँ अन्यदेवताः कहनेका तात्पर्य है कि वे देवताओंको भगवत्स्वरूप नहीं मानते हैं प्रत्युत उनकी अलग सत्ता मानते हैं इसीसे उनको अन्तवाला (नाशवान्) फल मिलता है अन्तवत्तु फलं तेषाम् (गीता 7। 23)। अगर वे देवताओंकी अलग सत्ता न मानकर उनको भगवत्स्वरूप ही मानें तो फिर उनको अन्तवाला फल नहीं मिलेगा प्रत्युत अविनाशी फल मिलेगा।यहाँ देवताओंकी शरण लेनेमें दो कारण मुख्य हुए एक कामना और एक अपने स्वभावकी परवशता।
।।7.20।। विवेक सार्मथ्य मानव जन्म की विशेषता है और यह सर्वथा असंभव है कि विवेक के प्रखर और सजग होने पर मनुष्य को आत्मज्ञान न हो सके। परन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियां और विषयभोग की कामनायें उसके विवेक को आच्छादित कर देती हैं।देवता शब्द के अनेक अर्थ हैं जैसे प्रकृति के नियमों के अधिष्ठाता देवता इन्द्र वरुण आदि इन्द्रियां किसी कार्य क्षेत्र में निहित उत्पादन क्षमता आदि। यहाँ इनमें से कोई भी अर्थ लेकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर यही ज्ञात होता है कि भोगी पुरुष इनकी आराधना केवल वैषयिक सुख को प्राप्त करने के लिए ही करता है। वह कामना से प्रेरित होकर तत्पूर्ति के लिए अनेक प्रकार के प्रयत्न करता रहता है।शान्त मन में आत्मा का प्रतिबिम्ब स्पष्ट और स्थिर दिखाई देता है परन्तु कामनाओं के स्रोतों से प्रवाहित होने वाली विचारों की धारायें उसमें विक्षेप उत्पन्न करके प्रतिबिम्ब को भी विचलित कर देती हैं। मन के क्षुब्ध होने पर बुद्धि की विवेक सार्मथ्य लुप्त हो जाती है और स्वभावत फिर मनुष्य सत्य असत्य का विवेक नहीं कर पाता है। जब मनुष्य की बुद्धि का आलोक कामना के मेघों से आवृत हो जाता है तब आसक्तियों और अवगुणों के उलूक मन के जंगल में शोर मचाने लगते हैं।मन में इच्छा के उदय मात्र से मनुष्य का पतन नहीं होता बल्कि पतन का कारण है उत्पन्न इच्छा के साथ उसका तादात्म्य। इस तादात्म्य के द्वारा मनुष्य अनजाने में अपनी इच्छाओं को बढ़ावा देकर असंख्य विक्षेपों को जन्म देता हुआ स्वयं उनका शिकार बन जाता है।अन्न के सूक्ष्म तत्त्व का ही रूप वृत्ति (विचार) है और इसलिए वह स्वयं जड़ है। वृत्तिरूप मन आत्मा से चेतनता प्राप्त करता है और कामी व्यक्ति से सार्मथ्य। विचारों के अनुसार कर्म होता है। एक बार मनुष्य के मन में कोई कामना दृढ़ हो जाये तो वह यह विवेक खो देता है कि उस कामनापूर्ति से उसे नित्य शाश्वत सुख मिलेगा या नहीं। क्षणिक सुख की आसक्ति के कारण वह अन्यान्य देवताओं को सन्तुष्ट करने में व्यस्त रहता है।अब यह भी सर्वविदित तथ्य है कि प्रत्येक देवता को सन्तुष्ट करने के विशेष नियम होते हैं। इन्द्रादि देवताओं को यज्ञयागादि के द्वारा इन्द्रियों के शब्दादि विषयों के द्वारा तथा कार्यक्षेत्र की उत्पादन क्षमता को व्यक्त करने के लिए उचित उपकरणों और उनके योग्य उपयोग के द्वारा सन्तुष्ट करके इष्ट फल प्राप्त किया जा सकता है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि वे अन्यान्य देवताओं को विशिष्ट नियमों का पालन करके भजते हैं।एक वासुदेव को त्यागकर लोग अन्य देवताओं को क्यों भजते हैं इसका कारण श्लोक की दूसरी पंक्ति में बताया गया है कि प्रकृत्या नियत स्वया। प्रत्येक मनुष्य अपनी पूर्व संचित वासनाओं के अनुसार भिन्नभिन्न विषयों की ओर आकर्षित होकर तदनुसार कर्म करता है। यह धारणा कि स्वर्ग में बैठा कोई ईश्वर हमारे मन में इच्छाओं को उत्पन्न कराकर हमें पाप और पुण्य के कर्मों में प्रवृत्त करता है केवल निराशावादी निर्बल और आलसी लोगों की ही हो सकती है। बुद्धिमान साहसी और उत्साही पुरुष जानते हैं कि मनुष्य स्वयं ही अपने विचारों के अनुसार अपने वातावरण कार्यक्षेत्र आदि का निर्माण करता है।संक्षेप में एक मूढ़ पुरुष शाश्वत सुख की आशा में वैषयिक क्षणिक सुखों की मृगमरीचिका के पीछे दौड़ता रहता है जबकि विवेकी पुरुष उसकी व्यर्थता पहचान कर पारमार्थिक सत्य के मार्ग पर अग्रसर होता है।भगवान् आगे कहते हैं
7.20 People, deprived of their wisdom by desires for various objects and guided by their own nature, resort to other deities following the relevant methods.
7.20 Those whose wisdom has been rent away by this or that desire, go to other gods, following this or that rite, led by their own nature.
7.20. Being robbed of their wisdom by innumerable desires [and] being controlled by their own nature, persons take refuge in other deities by following one or the other religious regulations.
7.20 कामैः by desires? तैः तैः by this or that? हृतज्ञानाः those whose wisdom has been rent away? प्रपद्यन्ते approach? अन्यदेवताः other gods? तम् तम् this or that? नियमम् rite? आस्थाय having followed? प्रकृत्या by nature? नियताः led? स्वया by ones own.Commentary Those who desire wealth? children? the (small) Siddhis? etc.? are deprived of discrimination. They devote themselves to other minor gods such as Indra? Mitra? Varuna? etc.? impelled or driven by their own nature or Samskaras acired in their previous births. They perform some kinds of rites to propitiate these lower deities. (Cf.IX.23)
7.20 People, hrta-jnanah, deprived of their wisdom, deprived of their discriminating knowledge; taih taih kamaih, by desires for various objects, such as progeny, cattle, heaven, etc.; and niyatah, guided, compelled; svaya prakrtya, by their own nature, by particular tendencies gathered in the past lives; prapadyante, resort; anya-devatah, to other deities, who are different from Vasudeva, the Self; asthaya, following taking the help of; tam tam niyamam,the relevant methods-those processes that are well known for the adoration of the concerned deities.
7.20 See Comment under 7.23
7.20 All men of this world are controlled, i.e., constantly accompanied by their own nature consisting in the Vasanas (subtle impressions) resulting from relation with the objects formed of the Gunas. Their knowledge about My essential nature is robbed by various Karmas, i.e., by objects of desire corresponding to their Vasanas (subtle impressions) born of their Karmas and constituted of Gunas. In order to fulfil these various kinds of desires they take refuge in, i.e., seek and worship, other divinities who are regarded as different from Me, such as Indra and others, observing various disciplines, i.e., practising rituals which are specially meant to propitiate only these divinities.
“It is understood from what you have said that the sakama bhaktas, worshipping you, the Lord, who responds to them become somewhat successful. But what happens to those who have desires and worship other devatas with the desire to remove their suffering or gain material pleasure?” Four verses answer this question. These people, having no intelligence (hrta jnana), think that the devatas like Surya immediately will give relief from afflictions like sickness, whereas Visnu will not. They therefore surrender to the devatas. They are under the control of their natures (prakrtya niyata svaya), which are evil, adverse to surrender to me.
It has been previously confirmed that the virtuous who still possess desires and worship the Supreme Lord for the fulfilment of these desires get them and eventually they gradually attain moksa or liberation from material existence. But those who are not devoted to Lord Krishna are overtly in raja guna or the mode of passion as well as those who are situated in tama guna or modes of ignorance being overwhelmed by their expectations to gratify their desires, they give homage to the minor demigods such as Surya or Kali and worship them to obtain the fulfilment of their material desires. What do they do to accomplish this? They worship the demigods by fasts, hymns of praise, celebrating the demigods special days etc. Thus they remain in bondage continuously revolving in samsara or the endless cycle of birth and death. This is what is being stated in this verse and the next three. Dismally lacking in discrimination due to overpowering desires regarding wealth, power, fame, victory and the like; such persons eagerly worship inferior non-eternal beings for their desired material goals and these types have even been known to give their allegiance to ghosts, spirits and horrendous demons to receive coveted material goals. What do these types do to acquire this? They engage in abominable activities like sacrifices of animals and even humans. They allow themselves to be possessed by demoniac spirits and they perform evil magic etc. All these inclinations are the result of internal impressions from the subtle body due to latent tendencies derived from innumerable habits in past life activities.
The compound word hrta-jnanah means one whose spiritual intelligence has been diverted by distortion. This is due to their inherent natures, innate attributes and over attraction to sense gratification. Being enslaved by cravings they choose a path away from Lord Krishna which looks most likely to grants them their material desires and they ingratiate themselves unto the demigod of their choice. The Supreme Lord is not averse to those who worship the demigods but He makes a distinction between worship to Him and worship to others. The results of worshipping all other gods is temporary and fleeting because the inherent power invested in them has limitations being only applicable to the material worlds; but the results of worshipping the Supreme Lord are permanent and eternal because unlimited power is possessed by Him
Worldly minded people are impelled by material motivations. That they are governed by the inclinations of such motivations is what Lord Krishna is indicating here. These inclinations are the external tendencies which impels one to desire interaction with physical objects and arise from subconscious influences resulting from reactions of sinful activities in past life experiences. These subconscious influences give birth to new cravings for sense gratification. These cravings and desires divert people from true knowledge concerning the Supreme Lord Krishna although this knowledge has always been available. In order to satisfy their material cravings and desires most people resort to inferior formless and impersonal conceptions of god, which never reveal any knowledge of the eternal atma or soul within all sentient beings nor its inherent relationship with the Supreme Lord. Others pray to the demigods for specific material gains such as wealth and power and following the ritualistic rules and regulations place their faith in them. Still others of perverted natures appease dark, demoniac forces; worshipping them for abominable things.
Worldly minded people are impelled by material motivations. That they are governed by the inclinations of such motivations is what Lord Krishna is indicating here. These inclinations are the external tendencies which impels one to desire interaction with physical objects and arise from subconscious influences resulting from reactions of sinful activities in past life experiences. These subconscious influences give birth to new cravings for sense gratification. These cravings and desires divert people from true knowledge concerning the Supreme Lord Krishna although this knowledge has always been available. In order to satisfy their material cravings and desires most people resort to inferior formless and impersonal conceptions of god, which never reveal any knowledge of the eternal atma or soul within all sentient beings nor its inherent relationship with the Supreme Lord. Others pray to the demigods for specific material gains such as wealth and power and following the ritualistic rules and regulations place their faith in them. Still others of perverted natures appease dark, demoniac forces; worshipping them for abominable things.
Kaamaistaistairhritajnaanaah prapadyante’nyadevataah; Tam tam niyamamaasthaaya prakrityaa niyataah swayaa.
kāmaiḥ—by material desires; taiḥ taiḥ—by various; hṛita-jñānāḥ—whose knowledge has been carried away; prapadyante—surrender; anya—to other; devatāḥ—celestial gods; tam tam—the various; niyamam—rules and regulations; āsthāya—following; prakṛityā—by nature; niyatāḥ—controlled; svayā—by their own