यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।
।।7.21।।(टिप्पणी प0 430) जोजो भक्त जिसजिस देवताका श्रद्धापूर्वक पूजन करना चाहता है उसउस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ।
।।7.21।। जोजो (सकामी) भक्त जिसजिस (देवता के) रूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है उसउस (भक्त) की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।।
।।7.21।। व्याख्या यो यो यां यां तनुं भक्तः ৷৷. तामेव विदधाम्यहम् जोजो मनुष्य जिसजिस देवताका भक्त होकर श्रद्धापूर्वक यजनपूजन करना चाहता है उसउस मनुष्यकी श्रद्धा उसउस देवताके प्रति मैं अचल (दृढ़) कर देता हूँ। वे दूसरोंमें न लगकर मेरेमें ही लग जायँ ऐसा मैं नहीं करता। यद्यपि उनउन देवताओंमें लगनेसे कामनाके कारण उनका कल्याण नहीं होता फिर भी मैं उनको उनमें लगा देता हूँ तो जो मेरेमें श्रद्धाप्रेम रखते हैं अपना कल्याण करना चाहते हैं उनकी श्रद्धाको मैं अपने प्रति दृढ़ कैसे नहीं करूँगा अर्थात् अवश्य करूँगा। कारण कि मैं प्राणिमात्रका सुहृद् हूँ सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)।इसपर यह शङ्का होती है कि आप सबकी श्रद्धा अपनेमें ही दृढ़ क्यों नहीं करते इसपर भगवान् मानो यह कहते हैं कि अगर मैं सबकी श्रद्धाको अपने प्रति दृढ़ करूँ तो मनुष्यजन्मकी स्वतन्त्रता सार्थकता ही कहाँ रही तथा मेरी स्वार्थपरताका त्याग कहाँ हुआ अगर लोगोंको अपनेमें ही लगानेका मेरा आग्रह रहे तो यह कोई बड़ी बात नहीं है क्योंकि ऐसा बर्ताव तो दुनियाके सभी स्वार्थी जीवोंका स्वाभाविक होता है। अतः मैं इस स्वार्थपरताको मिटाकर ऐसा स्वभाव सिखाना चाहता हूँ कि कोई भी मनुष्य पक्षपात करके दूसरोंसे केवल अपनी पूजाप्रतिष्ठा करवानेमें ही न लगा रहे और किसीको पराधीन न बनाये।अब दूसरी शङ्का यह होती है कि आप उनकी श्रद्धाको उन देवताओंके प्रति दृढ़ कर देते हैं इससे आपकी साधुता तो सिद्ध हो गयी पर उन जीवोंका तो आपसे विमुख होनेसे अहित ही हुआ इसका समाधान यह है कि अगर मैं उनकी श्रद्धाको दूसरोंसे हटाकर अपनेमें लगानेका भाव रखूँगा तो उनकी मेरेमें अश्रद्धा हो जायगी। परन्तु अगर मैं अपनेमें लगानेका भाव नहीं रखूँगा और उनको स्वतन्त्रता दूँगा तो उस स्वतन्त्रताको पानेवालोंमें जो बुद्धिमान् होंगे वे मेरे इस बर्तावको देखकर मेरी तरफ ही आकृष्ट होंगे। अतः उनके उद्धारका यही तरीका बढ़िया है।अब तीसरी शङ्का यह होती है कि जब आप स्वयं उनकी श्रद्धाको दूसरोंमें दृढ़ कर देते हैं तो फिर उस श्रद्धाको कोई मिटा ही नहीं सकता। फिर तो उसका पतन ही होता चला जायगा इसका समाधान यह है कि मैं उनकी श्रद्धाको देवताओंके प्रति ही दृढ़ करता हूँ दूसरोंके प्रति नहीं ऐसी बात नहीं है। मैं तो उनकी इच्छाके अनुसार ही उनकी श्रद्धाको दृढ़ करता हूँ और अपनी इच्छाको बदलनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है योग्य है। इच्छाको बदलनेमें वे परवश निर्बल और अयोग्य नहीं हैं। अगर इच्छाको बदलनेमें वे परवश होते तो फिर मनुष्यजन्मकी महिमा ही कहाँ रही और इच्छा (कामना) का त्याग करनेकी आज्ञा भी मैं कैसे दे सकता था जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् (गीता 3। 43)
।।7.21।। इस अध्याय के प्रारम्भिक भाग में ही आत्मानात्म विवेक (जड़चेतन का विभाजन) करके भगवान् श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है कि किस प्रकार उनमें समस्त नामरूप पिरोये हुए हैं। उसके पश्चात् उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार त्रिगुणात्मिका मायाजनित विकारों से मोहित होकर मनुष्य अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता। आत्मचैतन्य के बिना शरीर मन और बुद्धि की जड़ उपाधियाँ स्वयं कार्य नहीं कर सकती हैं।जगत् में देखा जाता है कि सभी भक्तजन एक ही रूप में ईश्वर की आराधना नहीं करते। प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता की पूजा के द्वारा सत्य तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि कोई भी भक्त किसी भी स्थान पर मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारा या गिरजाघर में एकान्त में या सार्वजनिक स्थान में किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा श्रद्धा के साथ करता है उसकी उस श्रद्धा को उसके इष्ट देवता में मैं स्थिर करता हूँ। गीता के मर्म को जानने वाला सच्चा विद्यार्थी कदापि कट्टरपंथी पृथकतावादी या असहिष्णु नहीं हो सकता। ईश्वर के सभी सगुण रूपों का अधिष्ठान एक परम सत्य ही है जहाँ से भक्त के हृदय में भक्तिरूपी पौधा पल्लवित पुष्पित और फलित होने के लिए श्रद्धारूपी जल प्राप्त करता है क्योंकि भगवान् स्वयं कहते हैं मैं उस श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।आध्यात्मदृष्टि से विचार करने पर इस श्लोक का और अधिक गम्भीर अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है।मनुष्य जिस विषय का निरन्तर चिन्तन करता रहता है उसमें वह दृढ़ता से आसक्त और स्थित हो जाता है। अखण्ड चिन्तन से मन में उस विषय के संस्कार दृढ़ हो जाते हैं और फिर उसके अनुसार ही उस मनुष्य की इच्छायें और कर्म होते हैं। इसी नियम के अनुसार सतत आत्मचिन्तन करने से भी मनुष्य अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है।सारांशत भगवान् का कथन हैं कि जैसा हम विचार करते हैं वैसा ही हम बनते हैं। अत यदि कोई व्यक्ति दुर्गुणों का शिकार हो गया हो अथवा अन्य व्यक्ति दैवी गुणों से संपन्न हो तो यह दोनों के भिन्नभिन्न विचारों का ही परिणाम समझना चाहिए। विचार प्रकृति का अंग है विचारों के अनुरूप जगत् होता है जिसका एक अधिष्ठान है सर्वव्यापी आत्मतत्त्व।सतत समृद्ध हो रही श्रद्धा के द्वारा मनुष्य किस प्रकार इष्ट फल को प्राप्त करता है
7.21 Whichever form (of a deity) any devotee wants to worship with faith, that very firm faith of his I strengthen.
7.21 Whatsoever form any devotee desires to worship with faith that (same) faith of his I make firm and unflinching.
7.21. Whatever may be the form [of the deity] a devotee-whosoever he may be-desires to worship with faith, I assume that form which is firm and is according to [his] faith.
7.21 यः who? यः who? याम् which? याम् which? तनुम् form? भक्तः devotee? श्रद्धया with faith? अर्चितुम् to worship? इच्छति desires? तस्य तस्य of him? अचलाम् unflinching? श्रद्धाम् faith? ताम् that? एव surely? विदधामि make? अहम् I.Commentary Tanu or body is used here in the sense of a Devata (god).The Lord? the indweller of all beings? makes the faith of that devotee who worships the lesser divinities? which is born of the Samskaras of his previous birth? steady and unswerving. (Cf.IV.11IX.22and23)
7.21 Yam yam, whichever; tanum, form of a deity; yah, any covetous person- among these people with desires; who, being endowed sraddhaya, with faith; and being a bhaktah, devotee; icchati, wants; arcitum, to worship; tam eva, that very; acalam, firm, steady; sraddham, faith; tasya, of his, of that particular covetous person-that very faith with which he desires to worship whatever form of a deity, in which (worship) he was earlier engaged under the impulsion of his own nature-; [Ast. takes the portion svabhavatah yo yam devata-tanum sraddhaya arcitum icchati with the next verse.-Tr.] vidadhami, I strengthen.
7.21 See Comment under 7.23
7.21 These divinities too constitute My body as taught in the Sruti text like: He who, dwelling in the sun, whom the sun does not know, whose body is the sun (Br. U., 3.7.9). Whichever devotee seeks to worship with faith whatever form of Mine, such as the Indra, although not knowing these divinities to be My forms, I consider his faith as being directed to My bodies or manifestations, and make his faith steadfast, i.e., make it free from obstacles.
You should not say that the devata, pleased with being worshiped, will produce faith in worshipping the Supreme Lord, in order to give benefit of their worshippers. As those devatas cannot even produce faith in those people to worship the devatas, how then can they produce faith to worship me? When those people desire to worship forms (tanum) such as Surya, which are actually my forms since they are my vibhutis, I, as paramatma, give the faith in those forms of devatas. The devatas do not give the faith.
Amongst those who worship a particular demigod which represents a potency of Lord Krishna then He as paramatma the Supreme Soul within all sentient beings monitoring every thought and action, makes such devotees faith steady and stable. Of others who worship illusory gods, His external potency known as Maya the deluding illusory energy keeps them steadily following the illusion of their erroneous philosophies and speculative theosophies that have no validity not being verified as bonafide in the Vedic scriptures.
The words yam yam tanum means according to whichever demigod such as Brahma the architect of creation, Indra the celestial chief, or Laxsmi the goddess of wealth. The Narada Purana states: There will be cessation to the votaries of Brahma and others due to their temporary nature; but for the devotees of the Supreme Lord Krishna there is no cessation due to His eternal nature. What is the goal of moksa or liberation from the cycle of birth and death? Where does the atma or soul go after attaining moksa? All these considerations are deliberated upon in the chapters of the Bhagavad- Gita dealing with liberation. Even though the avatars or incarnations of the Supreme Lord are numerous and His expansions are unlimited, moksa is guaranteed and assured to the devotee who devoutly worships any one of them. This has been revealed in the Brahma Vaivartaka Purana.
The demigods such as Indra the celestial chief, Surya the sungod and all others constitute the body of the Supreme Lord as stated in the Taittiriya Upanisad V.I. Although those who worship the demigods are ignorant of this truth as declared in Vedic scriptures. In the Brihad-aranyaka Upanisad V.VII.IX beginning ya aditye tish than yam adityo na veda it states: Who is seated in the sun, but whom the sun knoweth not, whom the sun is comprised of etc. Whomsoever wishes to worship the demigods, the Supreme Lord sanctions that they have unwavering and stable faith in that endeavour because that very faith is given to that which is a part of my universal form and constitutes the Supreme Lord Krishnas body.
The demigods such as Indra the celestial chief, Surya the sungod and all others constitute the body of the Supreme Lord as stated in the Taittiriya Upanisad V.I. Although those who worship the demigods are ignorant of this truth as declared in Vedic scriptures. In the Brihad-aranyaka Upanisad V.VII.IX beginning ya aditye tish than yam adityo na veda it states: Who is seated in the sun, but whom the sun knoweth not, whom the sun is comprised of etc. Whomsoever wishes to worship the demigods, the Supreme Lord sanctions that they have unwavering and stable faith in that endeavour because that very faith is given to that which is a part of my universal form and constitutes the Supreme Lord Krishnas body.
Yo yo yaam yaam tanum bhaktah shraddhayaarchitum icchati; Tasya tasyaachalaam shraddhaam taameva vidadhaamyaham.
yaḥ yaḥ—whoever; yām yām—whichever; tanum—form; bhaktaḥ—devotee; śhraddhayā—with faith; architum—to worship; ichchhati—desires; tasya tasya—to him; achalām—steady; śhraddhām—faith; tām—in that; eva—certainly; vidadhāmi—bestow; aham—I