यो यो यां यां तनुं भक्तः श्रद्धयार्चितुमिच्छति।
तस्य तस्याचलां श्रद्धां तामेव विदधाम्यहम्।।7.21।।
।।7.21।। जोजो (सकामी) भक्त जिसजिस (देवता के) रूप को श्रद्धा से पूजना चाहता है उसउस (भक्त) की मैं उस ही देवता के प्रति श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।।
।।7.21।। इस अध्याय के प्रारम्भिक भाग में ही आत्मानात्म विवेक (जड़चेतन का विभाजन) करके भगवान् श्रीकृष्ण ने वर्णन किया है कि किस प्रकार उनमें समस्त नामरूप पिरोये हुए हैं। उसके पश्चात् उन्होंने यह भी बताया कि किस प्रकार त्रिगुणात्मिका मायाजनित विकारों से मोहित होकर मनुष्य अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को नहीं पहचान पाता। आत्मचैतन्य के बिना शरीर मन और बुद्धि की जड़ उपाधियाँ स्वयं कार्य नहीं कर सकती हैं।जगत् में देखा जाता है कि सभी भक्तजन एक ही रूप में ईश्वर की आराधना नहीं करते। प्रत्येक भक्त अपने इष्ट देवता की पूजा के द्वारा सत्य तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। भगवान् श्रीकृष्ण स्पष्ट घोषणा करते हैं कि कोई भी भक्त किसी भी स्थान पर मन्दिर मस्जिद गुरुद्वारा या गिरजाघर में एकान्त में या सार्वजनिक स्थान में किसी भी रूप में ईश्वर की पूजा श्रद्धा के साथ करता है उसकी उस श्रद्धा को उसके इष्ट देवता में मैं स्थिर करता हूँ। गीता के मर्म को जानने वाला सच्चा विद्यार्थी कदापि कट्टरपंथी पृथकतावादी या असहिष्णु नहीं हो सकता। ईश्वर के सभी सगुण रूपों का अधिष्ठान एक परम सत्य ही है जहाँ से भक्त के हृदय में भक्तिरूपी पौधा पल्लवित पुष्पित और फलित होने के लिए श्रद्धारूपी जल प्राप्त करता है क्योंकि भगवान् स्वयं कहते हैं मैं उस श्रद्धा को स्थिर करता हूँ।आध्यात्मदृष्टि से विचार करने पर इस श्लोक का और अधिक गम्भीर अर्थ भी स्पष्ट हो जाता है।मनुष्य जिस विषय का निरन्तर चिन्तन करता रहता है उसमें वह दृढ़ता से आसक्त और स्थित हो जाता है। अखण्ड चिन्तन से मन में उस विषय के संस्कार दृढ़ हो जाते हैं और फिर उसके अनुसार ही उस मनुष्य की इच्छायें और कर्म होते हैं। इसी नियम के अनुसार सतत आत्मचिन्तन करने से भी मनुष्य अपने शुद्ध स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर सकता है।सारांशत भगवान् का कथन हैं कि जैसा हम विचार करते हैं वैसा ही हम बनते हैं। अत यदि कोई व्यक्ति दुर्गुणों का शिकार हो गया हो अथवा अन्य व्यक्ति दैवी गुणों से संपन्न हो तो यह दोनों के भिन्नभिन्न विचारों का ही परिणाम समझना चाहिए। विचार प्रकृति का अंग है विचारों के अनुरूप जगत् होता है जिसका एक अधिष्ठान है सर्वव्यापी आत्मतत्त्व।सतत समृद्ध हो रही श्रद्धा के द्वारा मनुष्य किस प्रकार इष्ट फल को प्राप्त करता है