अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्।
देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि।।7.23।।
।।7.23।।परन्तु उन अल्पबुद्धिवाले मनुष्योंको उन देवताओंकी आराधनाका फल अन्तवाला (नाशवान्) ही मिलता है। देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मेरेको ही प्राप्त होते हैं।
।।7.23।। परन्तु उन अल्प बुद्धि पुरुषों का वह फल नाशवान् होता है। देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं और मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।
।।7.23।। व्याख्या अन्तवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम् देवताओंकी उपासना करनेवाले अल्पबुद्धियुक्त मनुष्योंको अन्तवाला अर्थात् सीमित और नाशवान् फल मिलता है। यहाँ शङ्का होती है कि भगवान्के द्वारा विधान किया हुआ फल तो नित्य ही होना चाहिये फिर उनको अनित्य फल क्यों मिलता है इसका समाधान यह है कि एक तो उनमें नाशवान् पदार्थोंकी कामना है और दूसरी बात वे देवताओंको भगवान्से अलग मानते हैं। इसलिये उनको नाशवान् फल मिलता है। परन्तु उनको दो उपायोंसे अविनाशी फल मिल सकता है एक तो वे कामना न रखकर (निष्कामभावसे) देवताओंकी उपासना करें तो उनको अविनाशी फल मिल जायगा और दूसरा वे देवताओंको भगवान्से भिन्न न समझकर अर्थात् भगवत्स्वरूप ही समझकर उनकी उपासना करें तो यदि कामना रह भी जायगी तो भी समय पाकर उनको अविनाशी फल मिल सकता है अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो सकती है।यहाँ तत् कहनेका तात्पर्य है कि फल तो मेरा विधान किया हुआ ही मिलता है पर कामना होनेसे वह नाशवान् हो जाता है।यहाँ अल्पमेधसाम् कहनेका तात्पर्य है कि उनको नियम तो अधिक धारण करने पड़ते हैं तथा विधियाँ भी अधिक करनी पड़ती हैं पर फल मिलता है सीमित और अन्तवाला। परन्तु मेरी आराधना करनेमें इतने नियमोंकी जरूरत नहीं है तथा उतनी विधियोंकी भी आवश्यकता नहीं है पर फल मिलता है असीम और अनन्त। इस तरह देवताओंकी उपासनामें नियम हों अधिक फल हो थोड़ा और हो जाय जन्ममरणरूप बन्धन और मेरी आराधनामें नियम हों कम फल हो अधिक और हो जाय कल्याण ऐसा होनेपर भी वे उन देवताओंकी उपासनामें लगते हैं और मेरी उपासनामें नहीं लगते। इसलिये उनकी बुद्धि अल्प है तुच्छ है।देवान्देवयजो यान्ति मद्भक्ता यान्ति मामपि देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं और मेरा पूजन करनेवाले मेरेको ही प्राप्त होते हैं। यहाँ अपि पदसे यह सिद्ध होता है कि मेरी उपासना करनेवालोंकी कामनापूर्ति भी हो सकती है और मेरी प्राप्ति तो हो ही जाती है अर्थात् मेरे भक्त सकाम हों या निष्काम वे सबकेसब मेरेको ही प्राप्त होते हैं। परन्तु भगवान्की उपासना करनेवालोंकी सभी कामनाएँ पूरी हो जायँ यह नियम नहीं है। भगवान् उचित समझें तो पूरी कर भी दें और न भी करें अर्थात् उनका हित होता हो तो पूरी कर देते हैं और अहित होता हो तो कितना ही पुकारनेपर तथा रोनेपर भी पूरी नहीं करते।यह नियम है कि भगवान्का भजन करनेसे भगवान्के नित्यसम्बन्धकी स्मृति हो जाती है क्योंकि भगवान्का सम्बन्ध सदा रहनेवाला है। अतः भगवान्की प्राप्ति होनेपर फिर संसारमें लौटकर नहीं आना पड़ता यद्गत्वा न निवर्तन्ते (15। 6)। परन्तु देवताओंका सम्बन्ध सदा रहनेवाला नहीं है क्योंकि वह कर्मजनित है। अतः देवतालोककी प्राप्ति होनेपर संसारमें लौटकर आना ही पड़ता है क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति (9। 21)।मेरा भजन करनेवाले मेरेको ही प्राप्त होते हैं इसी भावको लेकर भगवान्ने अर्थार्थी आर्त जिज्ञासु और ज्ञानी इन चारों प्रकारके भक्तोंको सुकृती और उदार कहा है (7। 16 18)।यहाँ मद्भक्ता यान्ति मामपि का तात्पर्य है कि जीव कैसे ही आचरणोंवाला क्यों न हो अर्थात् वह दुराचारीसेदुराचारी क्यों न हो आखिर है तो मेरा ही अंश। उसने केवल आसक्ति और आग्रहपूर्वक संसारके साथ सम्बन्ध जोड़ लिया है। अगर संसारकी आसक्ति और आग्रह न हो तो उसे मेरी प्राप्ति हो ही जायगी।विशेष बातसब कुछ भगवत्स्वरूप ही है और भगवान्का विधान भी भगवत्स्वरूप है ऐसा होते हुए भी भगवान्से भिन्न संसारकी सत्ता मानना और अपनी कामना रखना ये दोनों ही पतनके कारण हैं। इनमेंसे यदि कामनाका सर्वथा नाश हो जाय तो संसार भगवत्स्वरूप दीखने लग जायगा और यदि संसार भगवत्स्वरूप दीखने लग जाय तो कामना मिट जायगी। फिर मात्र क्रियाओँके द्वारा भगवान्की सेवा होने लग जायगी। अगर संसारका भगवत्स्वरूप दीखना और कामनाका नाश होना दोनों एक साथ हो जायँ तो फिर कहना ही क्या है सम्बन्ध यद्यपि देवताओंकी उपासनाका फल सीमित और अन्तवाला होता है फिर भी मनुष्य उसमें क्यों उलझ जाते हैं भगवान्में क्यों नहीं लगते इसका उत्तर आगेके श्लोकमें देते हैं।
।।7.23।। नाशवान् भोगों की इच्छा को पूर्ण करने के लिए मनुष्य जो कर्म करता है वह अनित्य होने से उसका फल भी क्षणभंगुर ही होता है। स्वर्ण से बने आभूषण स्वर्ण ही होंगे। कार्य का गुणधर्म पूर्णतया कारण पर निर्भर करता है।देशकाल से परिच्छिन्न कर्मों से प्राप्त फल अनित्य ही होगा चाहे वह सुख हो या दुख। सुख का अन्त दुख का प्रारम्भ है। अत जब कोई इच्छा पूर्ण हो जाती है तब यद्यपि क्षणमात्र के लिए सुख का आभास भी होता है परन्तु शीघ्र ही उसके समाप्त होने पर दुख का कटु अनुभव मनुष्य को होता है।भगवान् श्रीकृष्ण सामान्य नियम बताते हैं कि देवपूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं। जिस नियम का जो अधिष्ठाता देवता है या जिस क्षेत्र में जो उत्पादन क्षमता है उसका आह्वान करने पर मनुष्य केवल उसी फल को प्राप्त कर सकता है।इसी प्रकार मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। परिच्छिन्न भोगों के लिए मनुष्य इतना अधिक प्रयत्न करके अन्त में क्षणिक फल को ही प्राप्त करता है। यदि वही प्रयत्न वह दैवी जीवन जीने में करे तो उसे नित्य आनन्दस्वरूप की उपलब्धि हो सकती है। किन्तु मन की बहिर्मुखी प्रवृत्तियों के कारण वह अनात्म उपाधियों से तादात्म्य करके बाह्य वैषयिक जगत् में ही रमता है।विवेकी पुरुष विषयोपभोग की तुच्छता और व्यर्थता को पहचान कर उनसे विरक्त हो जाते हैं। विवेक और वैराग्य से सम्पन्न होकर जब वे आत्मस्वरूप का ध्यान करते हैं तब उन्हें परम आनन्दस्वरूप की वह अनुभूति होती है जो शरीर मन और बुद्धि तीनों के परे है नित्य है।गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने जो मैं शब्द का प्रयोग किया है वह उस अनन्त तत्त्व को सूचित करता है जो व्यष्टि और समष्टि का अधिष्ठान है। अत वे कहते हैं कि मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं तब उनका तात्पर्य ऐतिहासिक पुरुष देवकी पुत्र कृष्ण से नहीं वरन् चैतन्यस्वरूप पुरुष से होता है। इस दृष्टि से आत्मवित् आत्मस्वरूप ही बन जाता है। यही भगवान् श्रीकृष्ण के कथन का वास्तविक अभिप्राय है।तब क्या कारण है कि सामान्य जन आपको प्राप्त करने का प्रयत्न नहीं करता उत्तर है