अव्यक्तं व्यक्ितमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः।
परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्।।7.24।।
।।7.24।।बुद्धिहीन मनुष्य मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी परमभावको न जानते हुए अव्यक्त (मनइन्द्रियोंसे पर) मुझ सच्चिदानन्दघन परमात्माको मनुष्यकी तरह ही शरीर धारण करनेवाला मानते हैं।
।।7.24।। बुद्धिहीन पुरुष मेरे अनुत्तम (सर्वोत्तम) अव्यय परम भाव को न जानते हुए मुझ अव्यक्त को व्यक्त मानते हैं।।
।।7.24।। व्याख्या अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं ৷৷. ममाव्ययमनुत्तमम् जो मनुष्य निर्बुद्धि हैं और जिनकी मेरेमें श्रद्धाभक्ति नहीं है वे अल्पमेधाके कारण अर्थात् समझकी कमीके कारण मेरेको साधारण मनुष्यकी तरह अव्यक्तसे व्यक्त होनेवाला अर्थात् जन्मनेमरनेवाला मानते हैं। मेरा जो अविनाशी अव्ययभाव है अर्थात् जिससे बढ़कर दूसरा कोई हो ही नहीं सकता और जो देश काल वस्तु व्यक्ति आदिमें परिपूर्ण रहता हुआ इन सबसे अतीत सदा एकरूप रहनेवाला निर्मल और असम्बद्ध है ऐसे मेरे अविनाशी भावको वे नहीं जानते और मेरा अवतार लेनेका जो तत्त्व है उसको नहीं जानते। इसलिये वे मेरेको साधरण मनुष्य मानकर मेरी उपासना नहीं करते प्रत्युत देवताओंकी उपासना करते हैं।अबुद्धयः पदका यह अर्थ नहीं है कि उनमें बुद्धिका अभाव है प्रत्युत बुद्धिमें विवेक रहते हुए भी अर्थात् संसारको उत्पत्तिविनाशशील जानते हुए भी इसे मानते नहीं यही उनमें बुद्धिरहितपना है मूढ़ता है।दूसरा भाव यह है कि कामनाको कोई रख नहीं सकता कामना रह नहीं सकती क्योंकि कामना पहले नहीं थी और कामनापूर्तिके बाद भी कामना नहीं रहेगी। वास्तवमें कामनाकी सत्ता ही नहीं है फिर भी उसका त्याग नहीं कर सकते यही अबुद्धिपना है।मेरे स्वरूपको न जाननेसे वे अन्य देवताओंकी उपासनामें लग गये और उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंकी कामनामें लग जानेसे वे बुद्धिहीन मनुष्य मेरेसे विमुख हो गये। यद्यपि वे मेरेसे अलग नहीं हो सकते तथा मैं भी उनसे अलग नहीं हो सकता तथापि कामनाके कारण ज्ञान ढक जानेसे वे देवताओंकी तरफ खिंच जाते हैं। अगर वे मेरेको जान जाते तो फिर केवल मेरा ही भजन करते।(1) बुद्धिमान् मनुष्य वे होते हैं जो भगवान्के शरण होते हैं। वे भगवान्को ही सर्वोपरि मानते हैं।(2) अल्पमेधावाले मनुष्य वे होते हैं जो देवताओंके शरण होते हैं। वे देवताओंको अपनेसे बड़ा मानते हैं जिससे उनमें थोड़ी नम्रता सरलता रहती है।(3) अबुद्धिवाले मनुष्य वे होते हैं जो भगवान्को देवताजैसा भी नहीं मानते किन्तु साधारण मनुष्यजैसा ही मानते हैं। वे अपनेको ही सर्वोपरि सबसे बड़ा मानते हैं (गीता 16। 14 15)। यही तीनोंमें अन्तर है।परं भावमजानन्तः का तात्पर्य है कि मैं अज रहता हुआ अविनाशी होता हुआ और लोकोंका ईश्वर होता हुआ ही अपनी प्रकृतिको वशमें करके योगमायासे प्रकट होता हूँ इस मेरे परमभावको बुद्धिहीन मनुष्य नहीं जानते।अनुत्तमम् कहनेका तात्पर्य है कि पन्द्रहवें अध्यायमें जिसको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम बताया है अर्थात् जिससे उत्तम दूसरा कोई है ही नहीं ऐसे मेरे अनुत्तम भावको वे नहीं जानते।विशेष बातइस (चौबीसवें) श्लोकका अर्थ कोई ऐसा करते हैं कि (ये) अव्यक्तं मां व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः अर्थात् जो सदा निराकार रहनेवाले मेरेको केवल साकार मानते हैं वे निर्बुद्धि हैं क्योंकि वे मेरे अव्यक्त निर्विकार और निराकार स्वरूपको नहीं जानते। दूसरे कोई ऐसा अर्थ करते हैं कि (ये) व्यक्तिमापन्नं माम् अव्यक्तं मन्यन्ते (ते) अबुद्धयः अर्थात् मैं अवतार लेकर तेरा सारथि बना हुआ हूँ ऐसे मेरेको केवल निराकार मानते हैं वे निर्बुद्धि हैं क्योंकि वे मेरे सर्वश्रेष्ठ अविनाशी भावको नहीं जानते।उपर्युक्त दोनों अर्थोंमेंसे कोई भी अर्थ ठीक नहीं है। कारण कि ऐसा अर्थ माननेपर केवल निराकारको माननेवाले साकाररूपकी और साकाररूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे और केवल साकार माननेवाले निराकाररूपकी और निराकाररूपके उपासकोंकी निन्दा करेंगे। यह सब एकदेशीयपना ही है। पृथ्वी जल तेज आदि जो महाभूत हैं जो कि विनाशी और विकारी हैं वे भी दोदो तरहके होते हैं स्थूल और सूक्ष्म। जैसे स्थूलरूपसे पृथ्वी साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है जल बर्फ बूँदें बादल और भापरूपसे साकार है और परमाणुरूपसे निराकार है तेज (अग्नितत्त्व) काठ और दियासलाईमें रहता हुआ निराकार है और प्रज्वलित होनेसे साकार है इत्यादि। इस तरहसे भौतिक सृष्टिके भी दोनों रूप होते हैं और दोनों होते हुए भी वास्तवमें वह दो नहीं होती। साकार होनेपर निराकारमें कोई बाधा नहीं लगती और निराकार होनेपर साकारमें कोई बाधा नहीं लगती। फिर परमात्माके साकार और निराकार दोनों होनेमें क्या बाधा है अर्थात् कोई बाधा नहीं। वे साकार भी हैं और निराकार भी हैं सगुण भी हैं और निर्गुण भी हैं।गीता साकारनिराकार सगुणनिर्गुण दोनोंको मानती है। नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान्ने अपनेको अव्यक्तमूर्ति कहा है। चौथे अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं अज होता हुआ भी प्रकट होता हूँ अविनाशी होता हुआ भी अन्तर्धान हो जाता हूँ और सबका ईश्वर होता हुआ भी आज्ञापालक (पुत्र और शिष्य) बन जाता हूँ। अतः निराकार होते हुए साकार होनेमें और साकार होते हुए निराकार होनेमें भगवान्में किञ्चिन्मात्र भी अन्तर नहीं आता। ऐसे भगवान्के स्वरूपको न जाननेके कारण लोग उनके विषयमें तरहतरहकी कल्पनाएँ किया करते हैं। सम्बन्ध भगवान्को साधारण मनुष्य माननेमें क्या कारण है इसपर आगेका श्लोक कहते हैं।
।।7.24।। समस्त नामरूपों की वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि में प्रकाशित हो रहे परम सत्य को ग्रहण करने की विवेकसार्मथ्य जिनमें नहीं है वे लोग अव्यय अविनाशी आत्मतत्त्व का सााक्षात् नहीं कर पाते। अनित्य दृश्यमान जगत् में अत्यन्त आसक्ति के कारण वे यह नहीं जान पाते कि यह सम्पूर्ण नामरूपमय जगत् सूत्र में मणियों के समान परमात्मा में पिरोया हुआ है।जिस चैतन्य के प्रकाश में सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित हो रहा है उस परम सत्य को ही यहाँ अव्यक्त शब्द से इंगित किया गया है। इस शब्द का लक्ष्यार्थ समझना आवश्यक है। जो वस्तु इन्द्रियगोचर है या मन और बुद्धि के द्वारा जानी जा सकती है जैसे भावना या विचार वह व्यक्त कहलाती है। अत इन तीनों उपाधियों के द्वारा जिसे जाना नहीं जा सकता वह वस्तु अव्यक्त है।आत्मतत्त्व ही अव्यक्त हो सकता है क्योंकि वही एकमात्र चेतन तत्त्व है जिसके कारण इन्द्रियां मन और बुद्धि स्वविषयों को ग्रहण करने में समर्थ होती हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आत्मा इन सबका द्रष्टा है और इसलिए कभी दृश्यरूप में नहीं जाना जा सकता। वह अव्यक्त है।बहिर्मुखी प्रवृत्ति के लोग केवल स्थूल भौतिक रूप को ही देख पाते हैं। अविवेक के कारण वे गुरु अथवा अवतार के शरीर को और सार्मथ्य को देखकर उतने मात्र को ही सनातन सत्य समझ लेते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि चित्त की एकाग्रता के लिए अथवा उपासना के लिए किसी उपास्य की प्रतीक या प्रतिमा के रूप में आवश्यकता होती है किन्तु वह प्रतिमा स्वयं परमार्थ सत्य नहीं हो सकती। यदि वही सत्य वस्तु होती तो पाषाण से मूर्ति बनाने के पश्चात् या गुरु के पास पहुँचने मात्र से साधक को सत्य की प्राप्ति हो जाने से उसे और कुछ करने की आवश्यकता नहीं रह जाती मूर्ति पूजा का प्रयोजन चित्त की शुद्धि एवं एकाग्रता प्राप्त करना है जिसके द्वारा ध्यान का अभ्यास करके आत्मा का साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।यह श्लोक स्पष्ट रूप से हमें बताता है कि बोतल को औषधि सममझना शरीर को ही गुरु और मूर्ति को ही भगवान् समझ लेना व्यर्थ है सभी श्वेत काष्ठ चन्दन नहीं और आकाश में प्रत्येक चमकीली वस्तु तारा नहीं होती। हो सकता है कि किसी ऊँचे स्तम्भ से आ रहे प्रकाश को देखकर अतिमूढ़ पुरुष उसे सूर्य समझ ले परन्तु कोई भी बुद्धिमान व्यक्ति उसकी धारणा को गम्भीरता से नहीं लेगा। अवतार का सिद्धांत हिन्दू धर्म में स्वीकार किया जाता है। किसीनकिसी मात्रा में प्रत्येक व्यक्ति ही अवतार कहा जा सकता है। एक ही सत्य सर्वत्र सबमें व्याप्त है। मन और बुद्धि की उपाधियों में वह व्यक्त होता है। जितना ही अधिक शुद्ध और स्थिर अन्तकरण होगा उतना ही अधिक चैतन्य का प्रकाश उसमें व्यक्त होगा।जिस पुरुष का अन्तकरण अत्यन्त शुद्ध एवं स्थिर होता है और जिसने अपरा प्रकृति पर पूर्ण विजय पा ली होती है वह ऋषि मुनि या पैगम्बर कहलाता है। ये पुरुष आत्मस्वरूप को पहचानकर कि वही भूतमात्र की आत्मा है उसमें स्थित होकर दिव्य जीवन जीते हैं। उनके शरीर मन और बुद्धि को ही परम सत्य समझना ऐसी ही त्रुटि है जैसे कि तरंगों को ही समुद्र समझ लेना है यही कारण है कि भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ ऐसे अविवेकी लोगों के लिए अबुद्धय जैसे कठोर शब्द का प्रयोग करते हैं।यह अज्ञान किस निमित्त से है इस पर कहते हैं
7.24 The unintelligent, unaware of My supreme state which is immutable and unsurpassable, think of Me as the unmanifest that has become manifest.
7.24 The foolish think of Me, the Unmanifest, as having manifestation, knowing not My higher, immutable and most excellent nature.
7.24. The men of poor intellect, are not conscious of the higher, changeless and supreme nature of Mine; and hence, they regard Me, the Unmanifest, to be a manifest one.
7.24 अव्यक्तम् the unmanifested? व्यक्तिम् to manifestation? आपन्नम् come to? मन्यन्ते think? माम् Me? अबुद्धयः the foolish? परम् the highest? भावम् nature? अजानन्तः not knowing? मम My? अव्ययम् immutable? अनुत्तमम् most excellent.Commentary The ignorant take Lord Krishna as a common mortal. They think that He has taken a body like ordinary human beings from the unmanifested state on account of the force of Karma of the previous birth. They have no knowledge of His higher? imperishable and selfluminous nature as the Highest Self. They think that He has just now come into manifestation? though He is selfexistent? eternal? beginningless? endless? birthless? deathless? changeless? infinite and unmanifest.
7.24 Abuddhayah, the unintelligent, the non-discriminating ones; ajanantah, unaware; mama, of My; param, supreme; bhavam, state, My reality as the supreme Self; which is avyayam, immutable, undecaying; and anuttanam, unsurpassable; manyante, think; mam, of Me; as avyaktam, the unmanifest, the invisible; apannam, that has become; vyaktim, manifest, visible, at present [At present, after being embodied as an Incarnation.]-though I am the ever well-known God. They think so because they are unaware of My reality. This is the idea. What is the reason for their ignorance? This is being stated:
7.24 Avyaktam etc. Becuase of their poor intellect, these [worshippers of other deities] do not at all recognise the unmanifest and ultimately true nature of Mine. On the contrary, they conceive Me merely as one, possessing only a manifest form with a particular knowledge and a particular innage nature, all suitable to their own desires. [They think] not otherwise. That is why, no name or form [of a deity] is insisted upon [by the Lord]. However, this is the established view [of the teachers of the school] in this regard : If a person holds fast to a specific form of a deity in order to get rid of desires, that [itself] results in his becoming pure and emancipated. If the case is reversed, [the result] would be a contrary one.
7.24 Ignorant people do not know My higher nature, immutable and unsurpassed. They do not know that it is I, who is worshipped through all rites, who is the Lord of all, and whose nature is beyond speech and mind, that has incarnated as the son of Vasudeva, without abandoning My divine nature, out of My supreme compassion and parental love for those who resort to Me and in order that I may be the refuge of all. They consider Me as only a worldly prince who was not manifest before and who has now become manifest by Karma and has secured a special form. Therefore, they do not resort to Me, nor do they worship Me. Why is He not manifest (to them)? Sri Krsna says:
What to speak of the worshippers of the devata being foolish and not recognizing me, even those who study all the scriptures such as the Vedas do not know the truth about me. Lord Brahma has said to me: athapi te deva padambuja-dvaya prasada-lesanugrhita eva hi janati tattvaih bhagavan mahimno na canya eko ‘pi ciram vicinvan My Lord, if one is favored by even a slight trace of the mercy of Your lotus feet, he can understand the greatness of Your personality. But those who speculate to understand the Supreme Personality of Godhead are unable to know You, even though they continue to study the Vedas for many year SB 10.14.29 Thus, apart from my devotees, everyone else is foolish regarding knowledge of me. With this intention he speaks this verse. The unintelligent think that the formless brahman beyond the material world (avyaktim) has taken birth as myself in the house of Vasudeva (vyaktim) with an illusory form. What is visible is just an illusory form. This is because they do not know my transcendental state. They do not know that my form, birth, activities, and pastimes are beyond maya (mama param bhavam). What type of state is this? It is eternal (avyayam) and most excellent (anuttamam). According to Medini, bhava means existence, nature, intention, endeavor, self, birth, action, pastime and meaning of a word. Sri Rupa Gosvami in his Bhagavatamrta has described this eternal nature of the Lord: the Lord’s form, qualities, birth, actions, and pastimes have no beginning and end. Sridhara Svami has said, “Bhavam means form, and avyayam means eternal. It is an eternal form of pure sattva.”
One may wonder if the concerted effort to ingratiate oneself to a lesser god or demigod of ones choice is the same concerted effort as offering ones devotion to the Supreme Lord; yet the result is so obviously a vast difference in rewards; then why doesnt everyone worship Lord Krishna exclusively and abandon the worship of all other inferior gods. This question is answered by the word ajanantah meaning oblivious. They are unaware of Lord Krishna being totally transcendental to the material existence and beyond the phenomena of this phenomenal creation and regard His different avatars or incarnations as manifestations of prakriti or the material substratum comprising all existence. His Supreme Nature is eternal, immutable and unsurpassed. Therefore those who view the Supreme Lord whose form is made of pure spiritual energy and who by His will assumes various forms according to schedule for the protection of all the worlds and the devotees to be the same and equal to the material bodies of demigods which are acquired and fashioned as a result of reactions from previous activities is completely in ignorance and such dull-witted beings are incapable of worshipping the Supreme Lord Krishna or any of His authorised incarnations. Instead they worship lesser gods for quick results which are temporary and perishable and thus they stay bound in samsara the endless cycle of birth and death perpetually.
What is so special that differentiates Lord Krishna from all other gods? He clarifies this by the word avyaktam meaning transcendent explaining by the words vyaktim apannam accepting a human like form for His lila or phenomenal pastimes. Superior and transcendental to prakriti or the material substratum pervading physical existence, He has never any actions to perform. The Supreme Lord who is eternally blissful is considered as having a spiritual body with personality, qualities and attributes. Therefore the Vedic scriptures have stated that without knowing the ultimate truth of the Supreme Lords existence everyone remains deluded. Now begins the summation. The Supreme Lord is transcendental to prakriti whereas the jiva or embodied living entity is not. Those who believe that there is equality between them or that there is a dependency shared between them surely in the next life go to the dark worlds of ignorance in obscurity.
Lord Krishnas supreme, infinite and exalted nature is that He is the adorable by all acts of worship He is to be adored. Lord Krishna is the God of the gods, the Supreme Lord of all, whose essence and attributes are inexpressible by speech and unfathomable by thought. Although Lord Krishna appears as the son of King Vasudeva and is actuated by activities of affection to family members and compassion for all beings in order to be accessible to all, He never relinquishes His transcendental divine nature always maintaining His eternal spiritual presence. Foolish people oblivious to this reality look upon Him as any other son born in royalty to a king, awarded such position by the destiny of karma or reaction to past actions brought into patency from an antecedent state of latency. Such living entities do not seek the Supreme Lord as their shelter neither do they worship Him by their actions. The reason why this is so for them is explained in the next verse.
Lord Krishnas supreme, infinite and exalted nature is that He is the adorable by all acts of worship He is to be adored. Lord Krishna is the God of the gods, the Supreme Lord of all, whose essence and attributes are inexpressible by speech and unfathomable by thought. Although Lord Krishna appears as the son of King Vasudeva and is actuated by activities of affection to family members and compassion for all beings in order to be accessible to all, He never relinquishes His transcendental divine nature always maintaining His eternal spiritual presence. Foolish people oblivious to this reality look upon Him as any other son born in royalty to a king, awarded such position by the destiny of karma or reaction to past actions brought into patency from an antecedent state of latency. Such living entities do not seek the Supreme Lord as their shelter neither do they worship Him by their actions. The reason why this is so for them is explained in the next verse.
Avyaktam vyaktimaapannam manyante maamabuddhayah; Param bhaavamajaananto mamaavyayamanuttamam.
avyaktam—formless; vyaktim—possessing a personality; āpannam—to have assumed; manyante—think; mām—me; abuddhayaḥ—less intelligent; param—Supreme; bhāvam—nature; ajānantaḥ—not understanding; mama—my; avyayam—imperishable; anuttamam—excellent