इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।7.27।।
।।7.27।।हे भरतवंशमें उत्पन्न परंतप इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्वमोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें मूढ़ताको अर्थात् जन्ममरणको प्राप्त हो रहे हैं।
।।7.27।। हे परन्तप भारत इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वमोह से भूतमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह (अविवेक) को प्राप्त होते हैं।।
।।7.27।। व्याख्या इच्छाद्वेषसमुत्थेन ৷৷. सर्गे यान्ति परंतप इच्छा और द्वेषसे द्वन्द्वमोह पैदा होता है जिससे मोहित होकर प्राणी भगवान्से बिलकुल विमुख हो जाते हैं और विमुख होनेसे बारबार संसारमें जन्म लेते हैं।मनुष्यको संसारसे विमुख होकर केवल भगवान्में लगनेकी आवश्यकता है। भगवान्में न लगनेमें बड़ी बाधा क्या है यह मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है अतः मनुष्यकी प्रवृत्ति और निवृत्ति पशुपक्षियोंकी तरह न होकर अपने विवेकके अनुसार होनी चाहिये। परन्तु मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व न देकर राग और द्वेषको लेकर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है जिससे उसका पतन होता है।मनुष्यकी दो मनोवृत्तियाँ हैं एक तरफ लगाना और एक तरफसे हटाना। मनुष्यको परमात्मामें तो अपनी वृत्ति लगानी है और संसारसे अपनी वृत्ति हटानी है अर्थात् परमात्मासे तो प्रेम करना है और संसारसे वैराग्य करना है। परन्तु इन दोनों वृत्तियोंको जब मनुष्य केवल संसारमें ही लगा देता है तब वही प्रेम और वैराग्य क्रमशः राग और द्वेषका रूप धारण कर लेते हैं जिससे मनुष्य संसारमें उलझ जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है। फिर भगवान्की तरफ चलनेका अवसर ही नहीं मिलता। कभीकभी वह सत्संगकी बातें भी सुनता है शास्त्र भी पढ़ता है अच्छी बातोंपर विचार भी करता है मनमें अच्छी बातें पैदा हो जाती हैं तो उनको ठीक भी समझता है। फिर भी उसके मनमें रागके कारण यह बात गहरी बैठी रहती है कि मुझे तो सांसारिक अनुकूलताको प्राप्त करना है और प्रतिकूलताको हटाना है यह मेरा खास काम है क्योंकि इसके बिना मेरा जीवननिर्वाह नहीं होगा। इस प्रकार वह हृदयमें दृढ़तासे रागद्वेषको पकड़े रखता है जिससे सुनने पढ़ने और विचार करनेपर भी उसकी वृत्ति रागद्वेषरूप द्वन्द्वको नहीं छोड़ती। इसीसे वह परमात्माकी तरफ चल नहीं सकता।द्वन्द्वोंमें भी अगर उसका राग मुख्यरूपसे एक ही विषयमें हो जाय तो भी ठीक है। जैसे भक्त बिल्वमंगलकी वृत्ति चिन्तामणि नामक वेश्यामें लग गयी तो उनकी वृत्ति संसारसे तो हट ही गयी। जब वेश्याने यह ताड़ना की ऐसे हाड़मांसके शरीरमें तू आकृष्ट हो गया अगर भगवान्में इतना आकृष्ट हो जाता तो तू निहाल हो जाता तब उनकी वृत्ति वेश्यासे हटकर भगवान्में लग गयी और उनका उद्धार हो गया। इसी तरहसे गोपियोंका भगवान्में राग हो गया तो वह राग भी कल्याण करनेवाला हो गया। शिशुपालका भगवान्के साथ वैर (द्वेष) रहा तो वैरपूर्वक भगवान्का चिन्तन करनेसे भी उसका कल्याण हो गया। कंसको भगवान्से भय हुआ तो भयवृत्तिसे भगवान्का चिन्तन करनेसे उसका भी कल्याण हो गया। हाँ यह बात जरूर है कि वैर और भयसे भगवान्का चिन्तन करनसे शिशुपाल और कंस भक्तिके आनन्दको नहीं ले सके। तात्पर्य यह है कि किसी भी तरहसे भगवान्की तरफ आकर्षण हो जाय तो मनुष्यका उद्धार हो जाता है। परन्तु संसारमें रागद्वेष कामक्रोध ठीकबेठीक अनुकूलप्रतिकूल आदि द्वन्द्व रहनेसे मूढ़ता दृढ़ होती है और मनुष्यका पतन हो जाता है।दूसरी रीतिसे यों समझें कि संसारका सम्बन्ध द्वन्द्वसे दृढ़ होता है। जब कामनाको लेकर मनोवृत्तिका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है तब सांसारिक अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर रागद्वेष हो जाते हैं अर्थात् एक ही पदार्थ कभी ठीक लगता है कभी बेठीक लगता है कभी उसमें राग होता है कभी द्वेष होता है जिनसे संसारका सम्बन्ध दृढ़ हो जाता है। इसलिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें निर्द्वन्द्वः (2। 45) पदसे द्वन्द्वरहित होनेकी आज्ञा दी है। निर्द्वन्द्व पुरुष सुखपूर्वक मुक्त होता है निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते (5। 3)। सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित होकर भक्तजन अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् (15। 5)। भगवान्ने द्वन्द्वको मनुष्यका खास शत्रु बताया है (3। 34)। जो द्वन्द्वमोहसे रहित होते हैं वे दृढ़व्रती होकर भगवान्का भजन करते हैं (7। 28) इत्यादि रूपसे गीतामें द्वन्द्वरहित होनेकी बात बहुत बार आयी है।जन्ममरणमें जानेका कारण क्या है शास्त्रोंकी दृष्टिसे तो जन्ममरणका कारण अज्ञान है परन्तु सन्तवाणीको देखा जाय तो जन्ममरणका खास कारण रागके कारण प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग है। फलेच्छापूर्वक शास्त्रविहित कर्म करनेसे और प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग करनेसे अर्थात् भगवदाज्ञाविरुद्ध कर्म करनेसे सत्असत् योनियोंकी प्राप्ति होती है अर्थात् देवताओँकी योनि चौरासी लाख योनि और नरक प्राप्त होते हैं।प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करनेसे सम्मोह अर्थात् जन्ममरण मिट जाता है। उसका सदुपयोग कैसे करें हमारेको जो अवस्था परिस्थिति मिली है उसका दुरुपयोग न करनेका निर्णय किया जाय कि हम दुरुपयोग नहीं करेंगे अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम नहीं करेंगे। इस प्रकार रागरहित होकर दुरुपयोग न करनेका निर्णय होनेपर सदुपयोग अपनेआप होने लगेगा अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुकूल काम होने लगेगा। जब सदुपयोग होने लगेगा तो उसका हमें अभिमान नहीं होगा। कारण कि हमने तो दुरुपयोग न करनेका विचार किया है सदुपयोग करनेका विचार तो हमने किया ही नहीं फिर करनेका अभिमान कैसे इससे तो कर्तृत्वअभिमानका त्याग हो जायगा। जब हमने सदुपयोग किया ही नहीं तो उसका फल भी हम कैसे चाहेंगे क्योंकि सदुपयोग तो हुआ है किया नहीं। अतः इससे फलेच्छाका त्याग हो जायगा। कर्तृत्वअभिमान और फलेच्छाका होनेसे अर्थात् बन्धनका अभाव होनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध है।प्रायः साधकोंमें यह बात गहराईसे बैठी हुई है कि साधनभजन जपध्यान आदि करनेका विभाग अलग है और सांसारिक कामधंधा करनेका विभाग अलग है। इन दो विभागोंके कारण साधक भजनध्यान आदिको तो बढ़ावा देते हैं पर सांसारिक कामधंधा करते हुए रागद्वेष कामक्रोध आदिकी तरफ ध्यान नहीं देते प्रत्युत ऐसी दृढ़ भावना बना लेते हैं कि कामधंधा करते हुए तो रागद्वेष होते ही हैं ये मिटनेवाले थोड़े ही हैं। इस भावनासे बड़ा भारी अनर्थ यह होता है कि साधकके रागद्वेष बने रहते हैं जिससे उसके साधनमें जल्दी उन्नति नहीं होती। वास्तवमें साधक चाहे पारमार्थिक कार्य करे चाहे सांसारिक कार्य करे उसके अन्तःकरणमें रागद्वेष नहीं रहने चाहिये।पारमार्थिक और सांसारिक क्रियाओंमें भेद होनेपर भी साधकके भावमें भेद नहीं होना चाहिये अर्थात् पारमार्थिक और सांसारिक दोनों क्रियाएँ करते समय साधकका भाव एक ही रहना चाहिये कि मैं साधक हूँ और मुझे भगवत्प्राप्ति करनी है। इस प्रकार क्रियाभेद तो रहेगा ही और रहना भी चाहिये पर भावभेद नहीं रहेगा। भावभेद न रहनेसे अर्थात् एक भगवत्प्राप्तिका ही भाव (उद्देश्य) रहनेसे पारमार्थिक और सांसारिक दोनों ही क्रियाएँ साधन बन जायँगी। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने द्वन्द्वमोहसे मोहित होनेवालोंकी बात बतायी अब आगेके श्लोकमें द्वन्द्वमोहसे रहित होनेवालोंकी बात कहते हैं।
।।7.27।। एक अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म दार्शनिक सत्य को इस श्लोक में सूचित किया गया है। इस तथ्य का वर्णन करने में कि क्यों और कैसे यह जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जान पाता है भगवान् श्रीकृष्ण मूलभूत उन सिद्धांतों को बताते हैं जो आधुनिक जीवशास्त्रियों ने जीव के विकास के सम्बन्ध में शोध करके प्रस्तुत किये हैं।आत्मसुरक्षा की सर्वाधिक प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति के वशीभूत मनुष्य जगत् में जीने का प्रयत्न करता है। सुरक्षा की यह प्रवृत्ति बुद्धि में उन वस्तुओं की इचछाओं के रूप में व्यक्त होती है जिनके द्वारा मनुष्य अपने सांसारिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने की अपेक्षा रखता है।प्रिय वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा को इच्छा कहते हैं। यदि कोई वस्तु या व्यक्ति इस इच्छापूर्ति में बाधक बनता है तो उसकी ओर मन की प्रतिक्रिया द्वेष या क्रोध के रूप में व्यक्त होती है। इच्छा और द्वेष की दो शक्तियों के बीच होने वाले शक्ति परीक्षण में दुर्भाग्यशाली जीव छिन्नभिन्न होकर मरणासन्न व्यक्ति की असह्य पीड़ा को भोगता है। स्वाभाविक ही ऐसा व्यक्ति सदा प्रिय की ओर प्रवृत्ति और द्वेष की ओर से निवृत्ति में व्यस्त रहता है। शीघ्र ही वह व्यक्ति अत्याधिक व्यस्त और पूर्णतया भ्रमित होकर थक जाता है। मन में उत्पन्न होने वाले विक्षेप दिनप्रतिदिन बढ़ते हुए अशान्ति की वृद्धि करते हैं। इन्हीं विक्षेपों के आवरण के फलस्वरूप मनुष्य को अपने सत्यस्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता।अत आत्मा की अपरोक्षानुभूति का एकमात्र उपाय है मन को संयमित करके उसके विक्षेपों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना। विश्व के सभी धर्मों में जो क्रिया प्रधान भावना प्रधान या विचार प्रधान आध्यात्मिक साधनाएं बतायी जाती हैं उन सबका प्रयोजन केवल मन को पूर्णतया शान्त करने का ही है। परम शान्ति का क्षण ही आत्मानुभूति आत्मप्रकाश और आत्ममिलन का क्षण होता है।परन्तु दुर्भाग्य है कि प्राणीमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह को प्राप्त होते हैं दैवी करुणा से भरे स्वर में भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन है। दुखपूर्ण प्रारब्ध को मनुष्य का यह कोई नैराश्यपूर्ण समर्पण नहीं है कि जिससे मुक्ति पाने में वह जन्म से ही अशक्त बना दिया गया हो। ईसाई धर्म के समान कृष्ण धर्म किसी व्यक्ति को पाप का पुत्र नहीं मानता। यमुना कुञ्ज विहारी दुर्दम्य आशावादी आशा के संदेशवाहक जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ मात्र दार्शनिक सत्य को ही व्यक्त कर रहे हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी देह विशेष और उपलब्ध वातावरण में जन्म लेने की त्रासदी अपनी अतृप्त वासनाओं और प्रच्छन्न कामनाओं की परितृप्ति के लिए स्वयं ही निर्माण करता है।इस मोह जाल से मुक्ति पाना और सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करना जीवन का पावन लक्ष्य है। गीता भगवान् द्वारा विरचित काव्य है जो विपरीत ज्ञान में फंसे लोगों को भ्रमजाल से निकालकर पूर्णानन्द में विहार कराता है।सत्य के साधकों के गुण दर्शाने के लिए भगवान् आगे कहते हैं
7.27 O scion of the Bharata dynasty, O destroyer of foes, due to the delusion of duality arising from likes and dislikes, all creatures become bewildered at the time of their birth.
7.27 By the delusion of the pairs of opposites arising from desire and aversion, O Bharata, all beings are subject to delusion at birth, O Parantapa.
7.27. O descendant of Bharata, O scorcher of foes ! At the time of creation, all beings get delusion because of the illusion of pairs [of opposites] arising from desire and hatred.
7.27 इच्छाद्वेषसमुत्थेन arisen from desire and aversion? द्वन्द्वमोहेन by the delusion of the pairs of opposites? भारत O Bharata? सर्वभूतानि all beings? संमोहम् to delusion? सर्गे at birth? यान्ति are subject? परन्तप O Parantapa (scorcher of the foes).Commentary Where there is pleasure there is Raga or attachment where there is pain there is Dvesha or aversion. There is the instinct in man to preserve his body. Man wishes to attain those objects which help the preservation of the body. He wishes to get rid of those objects which give pain to the body and the mind. On account of delusion caused by the pairs of opposites? desire and aversion spring up and man cannot get the knowledge of the things as they are? even of this external universe of senseexperience and it needs no saying that in a man whose intellect is overwhelmed by desire and aversion there cannot arise the transcendental knowledge of the innermost Self.Raga (attraction) and Dvesha (repulsion)? pleasure and pain? heat and cold? happiness and misery? joy and sorrow? success and failure? censure and priase? honour and dishonour are the Dvandvas or the pairs of opposites. Desire and aversion (or attraction and repulsion) induce delusion in all beings and serve as obstacles to the dawn of the knowledge of the Self.He whose intellect is obscured by the delusion caused by the pairs of opposites is not able to realise I am the Self. Therefore he does not adore Me as the Self.He who is a victim of RagaDvesha loses the power of discrimination. He wishes that pleasant objects should last for ever and that disagreeable or unpleasant objects should disappear immediately. How could this be Objects that are conditioned in time? space and causation will perish. That which is agreeable and pleasant now will become disagreeable and unpleasant after some time. The mind is ever fluctuating. It demands variety and gets disgusted with monotony.
7.27 Iccha-dvesa-samutthena, by what arises from likes and dislikes: iccha, likes, and dvesa, dislikes, are iccha-dvesau; anything arising from them is icchadvesa-samutthah. (Creatures are duluded) by that. By what? When that is thus sought to be known in particular, the Lord answers: dvandva-mohena, by the delusion of duality. Delusion (moha) that originates from duality (advandva) is dvandva-moha. Those very likes and dislikes, which are mutually opposed like heat and cold, which relate to happiness and sorrow and their causes, and which come into association with all beings in due course, are termed as duality (and this deludes all creatures). As regards them, when likes and dislikes arise from the experience of happiness, sorrow and their causes, then, by bringing the wisdom of all beings under their control, they create bewilderment which is the cause of the impediment to the rise of knowledg about the reality of Self, the suprem Truth. Indeed, exact knowledg about objects even in the external world does not arise in one whose mind is overpowered by the defects, viz likes and dislikes. It goes without saying that knowledge of the indwelling Self, beset with many obstacles as it is, does not arise in a completely bewildered person whose intelligence has been overcome by them. Therefore, bharata, O scion of the Bharata dynasty; owing to that delusion of duality arising from likes and dislikes, sarvabhutani, all creatures become deluded. Parantapa, O destroyer of foes; they yanti sammoham, become bewildered, come under delusion; sarge, at the time of their birth, i.e. at the time of their origination. The idea is that all creatures that come into being do so prepossessed by delusion. Since this is so, therefore all creatures, being deluded and having their wisdom obstructed by that delusion of duality, do not know Me who am their Self. Hence, they do not adore Me as their Self. Who, again, are those that, becoming free from the delusion of duality, come to know You, and adore You as the Self in accordance with the scriptures? In order to elaborate the subject enired about, it is being said:
7.27 Iccha-etc. [At the time of destruction] he (the personal Soul) is led to expand exceedingly, while he still remains unconcious on account of his desire, aversion, agner, dellusion etc. On account of this, the entire world takes recourse to the sleeping stage while it continues to exist in its entirity within the stomach of the Prakrti (the Prime Casue); and to exist just being (temporarily) not capable of performing its activities. For, as long as there is delusion, the mental impressions are to be experienced, as in the case of the sleeping stage in the night time every day. But on that account no emancipation is gained. For, when the experience of loss of unconsciousness is over (i.e., when consciousness is regained), again the mundane life with its varieties of activites is found.
7.27 As soon as beings are born they are deluded. This delusion springs from sense experiences described as pairs of opposites like heat and cold. Such reactions spring from desire and hate. The purport is this: Desire and hatred for the pairs of opposites like pleasure and pain, which are constituted of Gunas, have their origin in the Jivas from the past experiences they had in their previous births. The subtle impressions or Vasanas of these previous experiences manifest again as instinctive desire and hatred towards similar objects in every succeeding birth of the Jivas. The delusive force of these impressions make them deluded from the very beginning. It becomes their nature to have love or hatred for such objects, in place of having happiness and misery at union with or separation from Me. The Jnanin, however, feels happiness when he is in union with Me and misery when separated from Me. No other being is born with such a nature as found in the Jnanin.
When do the jivas become bewildered by your maya? At the beginning of the creation of this universe (sarge), all the jivas (sarva bhutani) become bewildered. How? Desire for objects favorable to the senses, and hatred for things which obstruct the pleasure of the senses, arising from previous actions, give rise to illusion of duality—of respect and disrespect, hot and cold, happiness and distress, and woman and man. One thinks “I am happy, being respected.” “I am sad, being disrespected.” “This is my wife.” “This is my husband.” This duality gives rise to ignorance (moha). That in turn gives rise to complete bewilderment (sammoham), extreme attachment to wife and sons. Those who are extremely attached are not qualified for devotion to me. I will explain this to Uddhava: yadrcchaya mat-kathadau jata-sraddhas tu yah puman na nirvinno nati-sakto bhakti-yogo ‘sya siddhi-dah If somehow or other by good fortune one develops faith in hearing and chanting My glories, such a person, being neither very disgusted with nor attached to material life, should achieve perfection through the path of loving devotion to Me. SB 11.20.8
Thus the ignorance of embodied beings and their lack of cognisance in regard to the Supreme Lord due to the influence of maya or illusory impressions superimposed upon the mind has been stated. The reason for the severity of such ignorance is spoken by Lord Krishna with the words sarva bhutani sammoham meaning all forms of life are completely deluded. At ones very birth when the physical body comes into existence the delusion begins due to the influence of dualities. The external perceptions of happiness and misery, heat and cold, success and failure which arise out of the desire for what is pleasing and the aversion for that which is displeasing, deeply binds an embodied being to primarily identify with their physical body and thus the delusion increases. Always occupied with how to acquire happiness and constantly worrying about how to avoid misery people take no time to acquire knowledge about the Supreme Lord and having no knowledge they remain deluded never knowing who He is and worshipping Him.
Embracing the delusion of the dualities such as pleasure and pain, praise and ridicule, joy and grief along with desire and attachment to sense objects it impossible to acquire the awareness of atma tattva or soul realisation which is the essential and exclusive prerequisite to God consciousness. All these obstacles and hindrances were mandated as Lord Krishna reveals by the word sarge meaning at the very beginning of creation as soon which means for us as soon as our atma or eternal soul became an embodied being. With the acceptance of a physical body dualities, desires and attachments arise and before the acceptance of a the physical body there was no awareness of them. Now begins the summation. The delusions of duality are illusionary and opposed to knowledge. As in darkness everything appears similar so in the case of delusion everything is in illusion. The Mahabharata has discussed this point in detail as follows. There is duality between the Supreme Lord and the embodied being and this is real knowledge. All other dualities are illusory and are known as dvanda-moha or a delusion of dualities. Avidya or non-knowledge is its effect and because its effect leads to even greater delusions there is a resultant mixture of anger. The Agni Purana states that: The embodied being who assumes that they are the same as the Supreme Lord or that the Supreme Lord is the same as the embodied being or that there is no difference between the Supreme Lord and the embodied being is one who is beguiled and bewildered by maya or illusory impressions superimposed upon the mind.
By word sarge meaning at the onset of universal creation Lord Krishna is indicating that at the very start of incarnate existence all creatures are inveigled into the net of various dualities such as joy and grief, heat and cold, honour and dishonour which are generated by the desire for what is agreeable and the aversion to what is disagreeable. The purport is that whatever one has experienced in their myriad of past existences which includes all the loving exchanges and all the hateful exchanges are all transmitted into succeeding lives as tendencies and predilections at the time of the next birth. These same loving and hating influences arise and develop in the same manner as they were enacted in a previous life and ensnares an embodied being to follow the pattern. The embodied beings that are caught under the sway of this enchantment appear to be constituted of these very natures and feel foreign to the spiritual feeling and tendencies associated with the Supreme Lord such as the happiness experienced in closeness with Him and the misery experienced in separation from Him. But the nature of the enlightened ones possessing spiritual wisdom is that they experience bliss only when in association with the Supreme Lord and feel grief only when bereft in separation from Him. Such an exalted being possessing this nature is rarely ever born into material existence.
By word sarge meaning at the onset of universal creation Lord Krishna is indicating that at the very start of incarnate existence all creatures are inveigled into the net of various dualities such as joy and grief, heat and cold, honour and dishonour which are generated by the desire for what is agreeable and the aversion to what is disagreeable. The purport is that whatever one has experienced in their myriad of past existences which includes all the loving exchanges and all the hateful exchanges are all transmitted into succeeding lives as tendencies and predilections at the time of the next birth. These same loving and hating influences arise and develop in the same manner as they were enacted in a previous life and ensnares an embodied being to follow the pattern. The embodied beings that are caught under the sway of this enchantment appear to be constituted of these very natures and feel foreign to the spiritual feeling and tendencies associated with the Supreme Lord such as the happiness experienced in closeness with Him and the misery experienced in separation from Him. But the nature of the enlightened ones possessing spiritual wisdom is that they experience bliss only when in association with the Supreme Lord and feel grief only when bereft in separation from Him. Such an exalted being possessing this nature is rarely ever born into material existence.
Icchaadweshasamutthena dwandwamohena bhaarata; Sarvabhootaani sammoham sarge yaanti parantapa.
ichchhā—desire; dveṣha—aversion; samutthena—arise from; dvandva—of duality; mohena—from the illusion; bhārata—Arjun, descendant of Bharat; sarva—all; bhūtāni—living beings; sammoham—into delusion; sarge—since birth; yānti—enter; parantapa—Arjun, conqueror of enemies