इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत।
सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यान्ति परन्तप।।7.27।।
।।7.27।।हे भरतवंशमें उत्पन्न परंतप इच्छा (राग) और द्वेषसे उत्पन्न होनेवाले द्वन्द्वमोहसे मोहित सम्पूर्ण प्राणी संसारमें मूढ़ताको अर्थात् जन्ममरणको प्राप्त हो रहे हैं।
।।7.27।। हे परन्तप भारत इच्छा और द्वेष से उत्पन्न द्वन्द्वमोह से भूतमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह (अविवेक) को प्राप्त होते हैं।।
।।7.27।। व्याख्या इच्छाद्वेषसमुत्थेन ৷৷. सर्गे यान्ति परंतप इच्छा और द्वेषसे द्वन्द्वमोह पैदा होता है जिससे मोहित होकर प्राणी भगवान्से बिलकुल विमुख हो जाते हैं और विमुख होनेसे बारबार संसारमें जन्म लेते हैं।मनुष्यको संसारसे विमुख होकर केवल भगवान्में लगनेकी आवश्यकता है। भगवान्में न लगनेमें बड़ी बाधा क्या है यह मनुष्यशरीर विवेकप्रधान है अतः मनुष्यकी प्रवृत्ति और निवृत्ति पशुपक्षियोंकी तरह न होकर अपने विवेकके अनुसार होनी चाहिये। परन्तु मनुष्य अपने विवेकको महत्त्व न देकर राग और द्वेषको लेकर ही प्रवृत्ति और निवृत्ति करता है जिससे उसका पतन होता है।मनुष्यकी दो मनोवृत्तियाँ हैं एक तरफ लगाना और एक तरफसे हटाना। मनुष्यको परमात्मामें तो अपनी वृत्ति लगानी है और संसारसे अपनी वृत्ति हटानी है अर्थात् परमात्मासे तो प्रेम करना है और संसारसे वैराग्य करना है। परन्तु इन दोनों वृत्तियोंको जब मनुष्य केवल संसारमें ही लगा देता है तब वही प्रेम और वैराग्य क्रमशः राग और द्वेषका रूप धारण कर लेते हैं जिससे मनुष्य संसारमें उलझ जाता है और भगवान्से सर्वथा विमुख हो जाता है। फिर भगवान्की तरफ चलनेका अवसर ही नहीं मिलता। कभीकभी वह सत्संगकी बातें भी सुनता है शास्त्र भी पढ़ता है अच्छी बातोंपर विचार भी करता है मनमें अच्छी बातें पैदा हो जाती हैं तो उनको ठीक भी समझता है। फिर भी उसके मनमें रागके कारण यह बात गहरी बैठी रहती है कि मुझे तो सांसारिक अनुकूलताको प्राप्त करना है और प्रतिकूलताको हटाना है यह मेरा खास काम है क्योंकि इसके बिना मेरा जीवननिर्वाह नहीं होगा। इस प्रकार वह हृदयमें दृढ़तासे रागद्वेषको पकड़े रखता है जिससे सुनने पढ़ने और विचार करनेपर भी उसकी वृत्ति रागद्वेषरूप द्वन्द्वको नहीं छोड़ती। इसीसे वह परमात्माकी तरफ चल नहीं सकता।द्वन्द्वोंमें भी अगर उसका राग मुख्यरूपसे एक ही विषयमें हो जाय तो भी ठीक है। जैसे भक्त बिल्वमंगलकी वृत्ति चिन्तामणि नामक वेश्यामें लग गयी तो उनकी वृत्ति संसारसे तो हट ही गयी। जब वेश्याने यह ताड़ना की ऐसे हाड़मांसके शरीरमें तू आकृष्ट हो गया अगर भगवान्में इतना आकृष्ट हो जाता तो तू निहाल हो जाता तब उनकी वृत्ति वेश्यासे हटकर भगवान्में लग गयी और उनका उद्धार हो गया। इसी तरहसे गोपियोंका भगवान्में राग हो गया तो वह राग भी कल्याण करनेवाला हो गया। शिशुपालका भगवान्के साथ वैर (द्वेष) रहा तो वैरपूर्वक भगवान्का चिन्तन करनेसे भी उसका कल्याण हो गया। कंसको भगवान्से भय हुआ तो भयवृत्तिसे भगवान्का चिन्तन करनेसे उसका भी कल्याण हो गया। हाँ यह बात जरूर है कि वैर और भयसे भगवान्का चिन्तन करनसे शिशुपाल और कंस भक्तिके आनन्दको नहीं ले सके। तात्पर्य यह है कि किसी भी तरहसे भगवान्की तरफ आकर्षण हो जाय तो मनुष्यका उद्धार हो जाता है। परन्तु संसारमें रागद्वेष कामक्रोध ठीकबेठीक अनुकूलप्रतिकूल आदि द्वन्द्व रहनेसे मूढ़ता दृढ़ होती है और मनुष्यका पतन हो जाता है।दूसरी रीतिसे यों समझें कि संसारका सम्बन्ध द्वन्द्वसे दृढ़ होता है। जब कामनाको लेकर मनोवृत्तिका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है तब सांसारिक अनुकूलता और प्रतिकूलताको लेकर रागद्वेष हो जाते हैं अर्थात् एक ही पदार्थ कभी ठीक लगता है कभी बेठीक लगता है कभी उसमें राग होता है कभी द्वेष होता है जिनसे संसारका सम्बन्ध दृढ़ हो जाता है। इसलिये भगवान्ने दूसरे अध्यायमें निर्द्वन्द्वः (2। 45) पदसे द्वन्द्वरहित होनेकी आज्ञा दी है। निर्द्वन्द्व पुरुष सुखपूर्वक मुक्त होता है निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते (5। 3)। सुखदुःख आदि द्वन्द्वोंसे रहित होकर भक्तजन अविनाशी पदको प्राप्त होते हैं द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसंज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत् (15। 5)। भगवान्ने द्वन्द्वको मनुष्यका खास शत्रु बताया है (3। 34)। जो द्वन्द्वमोहसे रहित होते हैं वे दृढ़व्रती होकर भगवान्का भजन करते हैं (7। 28) इत्यादि रूपसे गीतामें द्वन्द्वरहित होनेकी बात बहुत बार आयी है।जन्ममरणमें जानेका कारण क्या है शास्त्रोंकी दृष्टिसे तो जन्ममरणका कारण अज्ञान है परन्तु सन्तवाणीको देखा जाय तो जन्ममरणका खास कारण रागके कारण प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग है। फलेच्छापूर्वक शास्त्रविहित कर्म करनेसे और प्राप्त परिस्थितिका दुरुपयोग करनेसे अर्थात् भगवदाज्ञाविरुद्ध कर्म करनेसे सत्असत् योनियोंकी प्राप्ति होती है अर्थात् देवताओँकी योनि चौरासी लाख योनि और नरक प्राप्त होते हैं।प्राप्त परिस्थितिका सदुपयोग करनेसे सम्मोह अर्थात् जन्ममरण मिट जाता है। उसका सदुपयोग कैसे करें हमारेको जो अवस्था परिस्थिति मिली है उसका दुरुपयोग न करनेका निर्णय किया जाय कि हम दुरुपयोग नहीं करेंगे अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके विरुद्ध काम नहीं करेंगे। इस प्रकार रागरहित होकर दुरुपयोग न करनेका निर्णय होनेपर सदुपयोग अपनेआप होने लगेगा अर्थात् शास्त्र और लोकमर्यादाके अनुकूल काम होने लगेगा। जब सदुपयोग होने लगेगा तो उसका हमें अभिमान नहीं होगा। कारण कि हमने तो दुरुपयोग न करनेका विचार किया है सदुपयोग करनेका विचार तो हमने किया ही नहीं फिर करनेका अभिमान कैसे इससे तो कर्तृत्वअभिमानका त्याग हो जायगा। जब हमने सदुपयोग किया ही नहीं तो उसका फल भी हम कैसे चाहेंगे क्योंकि सदुपयोग तो हुआ है किया नहीं। अतः इससे फलेच्छाका त्याग हो जायगा। कर्तृत्वअभिमान और फलेच्छाका होनेसे अर्थात् बन्धनका अभाव होनेसे मुक्ति स्वतःसिद्ध है।प्रायः साधकोंमें यह बात गहराईसे बैठी हुई है कि साधनभजन जपध्यान आदि करनेका विभाग अलग है और सांसारिक कामधंधा करनेका विभाग अलग है। इन दो विभागोंके कारण साधक भजनध्यान आदिको तो बढ़ावा देते हैं पर सांसारिक कामधंधा करते हुए रागद्वेष कामक्रोध आदिकी तरफ ध्यान नहीं देते प्रत्युत ऐसी दृढ़ भावना बना लेते हैं कि कामधंधा करते हुए तो रागद्वेष होते ही हैं ये मिटनेवाले थोड़े ही हैं। इस भावनासे बड़ा भारी अनर्थ यह होता है कि साधकके रागद्वेष बने रहते हैं जिससे उसके साधनमें जल्दी उन्नति नहीं होती। वास्तवमें साधक चाहे पारमार्थिक कार्य करे चाहे सांसारिक कार्य करे उसके अन्तःकरणमें रागद्वेष नहीं रहने चाहिये।पारमार्थिक और सांसारिक क्रियाओंमें भेद होनेपर भी साधकके भावमें भेद नहीं होना चाहिये अर्थात् पारमार्थिक और सांसारिक दोनों क्रियाएँ करते समय साधकका भाव एक ही रहना चाहिये कि मैं साधक हूँ और मुझे भगवत्प्राप्ति करनी है। इस प्रकार क्रियाभेद तो रहेगा ही और रहना भी चाहिये पर भावभेद नहीं रहेगा। भावभेद न रहनेसे अर्थात् एक भगवत्प्राप्तिका ही भाव (उद्देश्य) रहनेसे पारमार्थिक और सांसारिक दोनों ही क्रियाएँ साधन बन जायँगी। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने द्वन्द्वमोहसे मोहित होनेवालोंकी बात बतायी अब आगेके श्लोकमें द्वन्द्वमोहसे रहित होनेवालोंकी बात कहते हैं।
।।7.27।। एक अत्यन्त वैज्ञानिक एवं सूक्ष्म दार्शनिक सत्य को इस श्लोक में सूचित किया गया है। इस तथ्य का वर्णन करने में कि क्यों और कैसे यह जीव आत्मा के शुद्ध स्वरूप को नहीं जान पाता है भगवान् श्रीकृष्ण मूलभूत उन सिद्धांतों को बताते हैं जो आधुनिक जीवशास्त्रियों ने जीव के विकास के सम्बन्ध में शोध करके प्रस्तुत किये हैं।आत्मसुरक्षा की सर्वाधिक प्रबल स्वाभाविक प्रवृत्ति के वशीभूत मनुष्य जगत् में जीने का प्रयत्न करता है। सुरक्षा की यह प्रवृत्ति बुद्धि में उन वस्तुओं की इचछाओं के रूप में व्यक्त होती है जिनके द्वारा मनुष्य अपने सांसारिक जीवन को सुखी और समृद्ध बनाने की अपेक्षा रखता है।प्रिय वस्तु को प्राप्त करने की अभिलाषा को इच्छा कहते हैं। यदि कोई वस्तु या व्यक्ति इस इच्छापूर्ति में बाधक बनता है तो उसकी ओर मन की प्रतिक्रिया द्वेष या क्रोध के रूप में व्यक्त होती है। इच्छा और द्वेष की दो शक्तियों के बीच होने वाले शक्ति परीक्षण में दुर्भाग्यशाली जीव छिन्नभिन्न होकर मरणासन्न व्यक्ति की असह्य पीड़ा को भोगता है। स्वाभाविक ही ऐसा व्यक्ति सदा प्रिय की ओर प्रवृत्ति और द्वेष की ओर से निवृत्ति में व्यस्त रहता है। शीघ्र ही वह व्यक्ति अत्याधिक व्यस्त और पूर्णतया भ्रमित होकर थक जाता है। मन में उत्पन्न होने वाले विक्षेप दिनप्रतिदिन बढ़ते हुए अशान्ति की वृद्धि करते हैं। इन्हीं विक्षेपों के आवरण के फलस्वरूप मनुष्य को अपने सत्यस्वरूप का दर्शन नहीं हो पाता।अत आत्मा की अपरोक्षानुभूति का एकमात्र उपाय है मन को संयमित करके उसके विक्षेपों पर पूर्ण विजय प्राप्त करना। विश्व के सभी धर्मों में जो क्रिया प्रधान भावना प्रधान या विचार प्रधान आध्यात्मिक साधनाएं बतायी जाती हैं उन सबका प्रयोजन केवल मन को पूर्णतया शान्त करने का ही है। परम शान्ति का क्षण ही आत्मानुभूति आत्मप्रकाश और आत्ममिलन का क्षण होता है।परन्तु दुर्भाग्य है कि प्राणीमात्र उत्पत्ति काल में ही संमोह को प्राप्त होते हैं दैवी करुणा से भरे स्वर में भगवान् श्रीकृष्ण का यह कथन है। दुखपूर्ण प्रारब्ध को मनुष्य का यह कोई नैराश्यपूर्ण समर्पण नहीं है कि जिससे मुक्ति पाने में वह जन्म से ही अशक्त बना दिया गया हो। ईसाई धर्म के समान कृष्ण धर्म किसी व्यक्ति को पाप का पुत्र नहीं मानता। यमुना कुञ्ज विहारी दुर्दम्य आशावादी आशा के संदेशवाहक जगद्गुरु भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ मात्र दार्शनिक सत्य को ही व्यक्त कर रहे हैं कि कोई भी व्यक्ति किसी देह विशेष और उपलब्ध वातावरण में जन्म लेने की त्रासदी अपनी अतृप्त वासनाओं और प्रच्छन्न कामनाओं की परितृप्ति के लिए स्वयं ही निर्माण करता है।इस मोह जाल से मुक्ति पाना और सम्यक् ज्ञान को प्राप्त करना जीवन का पावन लक्ष्य है। गीता भगवान् द्वारा विरचित काव्य है जो विपरीत ज्ञान में फंसे लोगों को भ्रमजाल से निकालकर पूर्णानन्द में विहार कराता है।सत्य के साधकों के गुण दर्शाने के लिए भगवान् आगे कहते हैं