साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः।।7.30।।
।।7.30।।जो मनुष्य अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञके सहित मुझे जानते हैं वे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मुझे ही जानते हैं अर्थात् प्राप्त होते हैं।
।।7.30।। जो पुरुष अधिभूत और अधिदैव तथा अधियज्ञ के सहित मुझे जानते हैं वे युक्तचित्त वाले पुरुष अन्तकाल में भी मुझे जानते हैं।।
।।7.30।। व्याख्या साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः [पूर्वश्लोकमें निर्गुणनिराकारको जाननेका वर्णन करके अब सगुणसाकारको जाननेकी बात कहते हैं।]यहाँ अधिभूत नाम भौतिक स्थूल सृष्टिका है जिसमें तमोगुणकी प्रधानता है। जितनी भी भौतिक सृष्टि है उसकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। उसका क्षणमात्र भी स्थायित्व नहीं है। फिर भी यह भौतिक सृष्टि सत्य दीखती है अर्थात् इसमें सत्यता स्थिरता सुखरूपता श्रेष्ठता और आकर्षण दीखता है। यह सत्यता आदि सबकेसब वास्तवमें भगवान्के ही हैं क्षणभङ्गुर संसारके नहीं। तात्पर्य है कि जैसे बर्फकी सत्ता जलके बिना नहीं हो सकती ऐसे ही भौतिक स्थूल सृष्टि अर्थात् अधिभूतकी सत्ता भगवान्के बिना नहीं हो सकती। इस प्रकार तत्त्वसे यह संसार भगवत्स्वरूप ही है ऐसा जानना ही अधिभूतके सहित भगवान्को जानना है।अधिदैव नाम सृष्टिकी रचना करनेवाले हिरण्यगर्भ ब्रह्माजीका है जिनमें रजोगुणकी प्रधानता है। भगवान् ही ब्रह्माजीके रूपमें प्रकट होते हैं अर्थात् तत्त्वसे ब्रह्माजी भगवत्स्वरूप ही हैं ऐसा जानना ही अधिदैवके सहित भगवान्को जानना है।अधियज्ञ नाम भगवान् विष्णुका है जो अन्तर्यामीरूपसे सबमें व्याप्त हैं और जिनमें सत्त्वगुणकी प्रधानता है। तत्त्वसे भगवान् ही अन्तर्यामीरूपसे सबमें परिपूर्ण हैं ऐसा जानना ही अधियज्ञके सहित भगवान्को जानना है।अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञके सहित भगवान्को जाननेका तात्पर्य है कि भगवान् श्रीकृष्णके शरीरके किसी एक अंशमें विराट्रूप है (गीता 10। 42 11। 7) और उस विराट्रूपमें अधिभूत (अनन्त ब्रह्माण्ड) अधिदैव (ब्रह्माजी) और अधियज्ञ (विष्णु) आदि सभी हैं जैसा कि अर्जुनने कहा है हे देव मैं आपके शरीरमें सम्पूर्ण प्राणियोंको जिनकी नाभिसे कमल निकला है उन विष्णुको कमलपर विराजमान ब्रह्मको और शंकर आदिको देख रहा हूँ (गीता 11। 15)। अतः तत्त्वसे अधिभूत अधिदैव और अधियज्ञ भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं। श्रीकृष्ण ही समग्र भगवान् हैं।प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः जो संसारके भोगों और संग्रहकी प्राप्तिअप्राप्तिमें समान रहनेवाले हैं तथा संसारसे सर्वथा उपरत होकर भगवान्में लगे हुए हैं वे पुरुष युक्तचेता हैं। ऐसे युक्तचेता मनुष्य अन्तकालमें भी मेरेको ही जानते हैं अर्थात् अन्तकालकी पीड़ा आदिमें भी वे मेरेमें ही अटलरूपसे स्थित रहते हैं। उनकी ऐसी दृढ़ स्थिति होती है कि वे स्थूल और सूक्ष्मशरीरमें कितनी ही हलचल होनेपर भी कभी किञ्चिन्मात्र भी विचलित नहीं होते।भगवान्के समग्ररूपसम्बन्धी विशेष बात(1)प्रकृति और प्रकृतिके कार्य क्रिया पदार्थ आदिके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे ही सभी विकार पैदा होते हैं और उन क्रिया पदार्थ आदिकी प्रकटरूपसे सत्ता दीखने लग जाती है। परन्तु प्रकृति और प्रकृतिके कार्यसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करके भगवत्स्वरूपमें स्थित होनेसे उनकी स्वतन्त्र सत्ता उस भगवत्तत्त्वमें ही लीन हो जाती है। फिर उनकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं दीखती।जैसे किसी व्यक्तिके विषयमें हमारी जो अच्छे और बुरेकी मान्यता है वह मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो वह व्यक्ति भगवान्का स्वरूप है अर्थात् उस व्यक्तिमें तत्त्वके सिवाय दूसरा कोई स्वतन्त्र व्यक्तित्व ही नहीं है। ऐसे ही संसारमें यह ठीक है यह बेठीक है इस प्रकार ठीकबेठीककी मान्यता हमारी ही की हुई है। तत्त्वसे तो संसार भगवान्का स्वरूप ही है। हाँ संसारमें जो वर्णआश्रमकी मर्यादा है ऐसा काम करना चाहिये और ऐसा नहीं करना चाहिये यह जो विधिनिषेधकी मर्यादा है इसको महापुरुषोंने जीवोंके कल्याणार्थ व्यवहारके लिये मान्यता दी है।जब यह भौतिक सृष्टि नहीं थी तब भी भगवान् थे और इसके लीन होनेपर भी भगवान् रहेंगे इस तरहसे जब वास्तविक भगवत्तत्त्वका बोध हो जाता है तब भौतिक सृष्टिकी सत्ता भगवान्में ही लीन हो जाती है अर्थात् इस सृष्टिकी स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहती। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न रहनेपर संसार मिट जाता है उसका अभाव हो जाता है प्रत्युत अन्तःकरणमें सत्यत्वेन जो संसारकी सत्ता और महत्ता बैठी हुई थी जो कि जीवके कल्याणमें बाधक थी वह नहीं रहती। जैसे सोनेके गहनोंकी अनेक तरहकी आकृति और अलगअलग उपयोग होनेपर भी उन सबमें एक ही सोना है ऐसे ही भगवद्भक्तके द्वारा अनेक तरहका यथायोग्य सांसारिक व्यवहार होनेपर भी उन सबमें एक ही भगवत्तत्त्व है ऐसी अटलबुद्धि रहती है। इस तत्त्वको समझनेके लिये ही उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें समग्ररूपका वर्णन हुआ है।(2)उपासनाकी दृष्टिसे भगवान्के प्रायः दो रूपोंका विशेष वर्णन आता है एक सगुण और एक निर्गुण। इनमें सगुणके दो भेद होते हैं एक सगुणसाकार और एक सगुणनिराकार। परन्तु निर्गुणके दो भेद नहीं होते निर्गुण निराकार ही होता है। हाँ निराकारके दो भेद होते हैं एक सगुणनिराकार और एक निर्गुणनिराकार।उपासना करनेवाले दो रुचिके होते हैं एक सगुणविषयक रुचिवाला होता है और एक निर्गुणविषयक रुचिवाला होता है। परन्तु इन दोनोंकी उपासना भगवान्के सगुणनिराकार रूपसे ही शुरू होती है जैसे परमात्मप्राप्तिके लिये कोई भी साधक चलता है तो वह पहले परमात्मा है इस प्रकार परमात्माकी सत्ताको मानता है और वे परमात्मा सबसे श्रेष्ठ हैं सबसे दयालु हैं उनसे बढ़कर कोई है नहीं ऐसे भाव उसके भीतर रहते हैं तो उपासना सगुणनिराकारसे ही शुरू हुई। इसका कारण यह है कि बुद्धि प्रकृतिका कार्य (सगुण) होनेसे निर्गुणको पकड़ नहीं सकती। इसलिये निर्गुणके उपासकका लक्ष्य तो निर्गुणनिराकार होता है पर बुद्धिसे वह सगुणनिराकारका ही चिन्तन करता है (टिप्पणी प0 445)।सगुणकी ही उपासना करनेवाले पहले सगुणसाकार मानकर उपासना करते हैं। परन्तु मनमें जबतक साकाररूप दृढ़ नहीं होता तबतक प्रभु हैं और वे मेरे सामने हैं ऐसी मान्यता मुख्य होती है। इस मान्यतामें सगुण भगवान्की अभिव्यक्ति जितनी अधिक होती है उतनी ही उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें जब वह सगुणसाकाररूपसे भगवान्के दर्शन भाषण स्पर्श और प्रसाद प्राप्त कर लेता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।निर्गुणकी उपासना करनेवाले परमात्माको सम्पूर्ण संसारमें व्यापक समझते हुए चिन्तन करते हैं। उनकी वृत्ति जितनी ही सूक्ष्म होती चली जाती है उतनी ही उनकी उपासना ऊँची मानी जाती है। अन्तमें सांसारिक आसक्ति और गुणोंका सर्वथा त्याग होनेपर जब मैं तू आदि कुछ भी नहीं रहता केवल चिन्मयतत्त्व शेष रह जाता है तब उसकी उपासनाकी पूर्णता हो जाती है।इस प्रकार दोनोंकी अपनीअपनी उपासनाकी पूर्णता होनेपर दोनोंकी एकता हो जाती है अर्थत् दोनों एक हीतत्त्वको प्राप्त हो जाते हैं (टिप्पणी प0 446.1)। सगुणसाकारके उपासकोंको तो भगवत्कृपासे निर्गुणनिराकारका भी बोध हो जाता है मम दरसन फल परम अनूपा। जीव पाव निज सहज सरूपा।।(मानस 3। 36। 5) निर्गुणनिराकारके उपासकमें यदि भक्तिके संस्कार हैं और भगवान्के दर्शनकी अभिलाषा है तो उसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं अथवा भगवान्को उससे कुछ काम लेना होता है तो भगवान् अपनी तरफसे भी दर्शन दे सकते हैं। जैसे निर्गुणनिराकारके उपासक मधुसूदनाचार्यजीको भगवान्ने अपनी तरफसे दर्शन दिये थे (टिप्पणी प0 446.2)।(3)वास्तवमें परमात्मा सगुणनिर्गुण साकारनिराकार सब कुछ हैं। सगुणनिर्गुण तो उनके विशेषण हैं नाम हैं। साधक परमात्माको गुणोंके सहित मानता है तो उसके लिये वे सगुण हैं और साधक उनको गुणोंसे रहित मानता है तो उसके लिये वे निर्गुण हैं। वास्तवमें परमात्मा सगुण तथा निर्गुण दोनों हैं और दोनोंसे परे भी हैं। परन्तु इस वास्तविकताका पता तभी लगता है जब बोध होता है।भगवान्के सौन्दर्य माधुर्य ऐश्वर्य औदार्य आदि जो दिव्य गुण हैं उन गुणोंके सहित सर्वत्र व्यापक परमात्माको सगुण कहते हैं। इस सगुणके दो भेद होते हैं (1) सगुणनिराकार जैसे आकाशका गुण शब्द है पर आकाशका कोई आकार (आकृति) नहीं है इसलिये आकाश सगुणनिराकार हुआ। ऐसे ही प्रकृति और प्रकृतिके कार्य संसारमें परिपूर्णरूपसे व्यापक परमात्माका नाम सगुणनिराकार है।(2) सगुणसाकार वे ही सगुणनिराकार परमात्मा जब अपनी दिव्य प्रकृतिको अधिष्ठित करके अपनी योगमायासे लोगोंके सामने प्रकट हो जाते हैं उनकी इन्द्रियोंके विषय हो जाते हैं तब उन परमात्माको सगुणसाकार कहते हैं। सगुण तो वे थे ही आकृतियुक्त प्रकट हो जानेसे वे साकार कहलाते हैं।जब साधक परमात्माको दिव्य अलौकिक गुणोंसे भी रहित मानता है अर्थात् साधककी दृष्टि केवल निर्गुण परमात्माकी तरफ रहती है तब परमात्माका वह स्वरूप निर्गुणनिराकार कहा जाता है।गुणोंके भी दो भेद होते हैं (1) परमात्माके स्वरूपभूत सौन्दर्य माधुर्य ऐश्वर्य आदि दिव्य अलौकिक अप्राकृत गुण और (2) प्रकृतिके सत्त्व रज और तम गुण। परमात्मा चाहे सगुणनिराकार हों चाहे सगुणसाकार हों वे प्रकृतिके सत्त्व रज और तम तीनों गुणोंसे सर्वथा रहित हैं अतीत हैं। वे यद्यपि प्रकृतिके गुणोंको स्वीकार करके सृष्टिकी उत्पत्ति स्थिति और प्रलयकी लीला करते हैं फिर भी वे प्रकृतिके गुणोंसे सर्वथा रहित ही रहते हैं (गीता 7। 13)।जो परमात्मा गुणोंसे कभी नहीं बँधते जिनका गुणोंपर पूरा आधिपत्य होता है वे ही परमात्मा निर्गुण होते हैं। अगर परमात्मा गुणोंसे बँधे हुए और गुणोंके अधीन होंगे तो वे कभी निर्गुण नहीं हो सकते। निर्गुण तो वे ही हो सकते हैं जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं और जो गुणोंसे सर्वथा अतीत हैं ऐसे परमात्मामें ही सम्पूर्ण गुण रह सकते हैं। इसलिये परमात्माको सगुणनिर्गुण साकारनिराकार आदि सब कुछ कह सकते हैं। ऐसे परमात्माका ही उन्तीसवेंतीसवें श्लोकोंमें समग्ररूपसे वर्णन किया गया है।अध्यायसम्बन्धी विशेष बातभगवान्ने इस अध्यायमें पहले परिवर्तनशीलको अपरा और अपरिवर्तनशीलको परा नामसे कहा (7। 4 5)। फिर इन दोनोंके संयोगसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति बतायी और अपनेको सम्पूर्ण संसारका प्रभव और प्रलय बताया अर्थात् संसारके आदिमें और अन्तमें केवल मैं ही रहता हूँ यह बताया (7। 6 7)। उसी प्रसङ्गमें भगवान्ने सत्रह विभूतियोंके रूपमें कारणरूपसे अपनी व्यापकता बतायी (7। 8 12)। फिर भगवान्ने कहा कि जो तीनों गुणोंसे मोहित है अर्थात् जिसने निरन्तर परिवर्तनशील प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है वह गुणोंसे पर मेरेको नहीं जान सकता (7। 13)। यह गुणमयी माया तरनेमें बड़ी दुष्कर है। जो मेरे शरण हो जाते हैं वे इस मायाको तर जाते हैं (7। 14) परन्तु जो मेरेसे विमुख होकर निषिद्ध आचरणोंमें लग जाते हैं वे दुष्कृती मनुष्य मेरे शरण नहीं होते (7। 15)। अब यहाँ चौदहवें श्लोकके बाद ही सोलहवाँ श्लोक कह देते तो बहुत ठीक बैठता अर्थात् चौदहवें श्लोकमें शरण होनेकी बात कही तो अब शरण होनेवाले चार तरहके होते हैं ऐसा बतानेसे श्रृङ्खला बहुत ठीक बैठती। परन्तु पंद्रहवाँ श्लोक बीचमें आ जानेसे प्रकरण ठीक नहीं बैठता। अतः यह श्लोक प्रकरणके विरुद्ध अर्थात् बाधा डालनेवाला मालूम देता है। परन्तु वास्तवमें यह श्लोक प्रकरणके विरुद्ध नहीं है क्योंकि यह श्लोक न आनेसे पापी मेरे शरण नहीं होते यह कहना बाकी रह जाता। इसलिये पंद्रहवें श्लोकमें दुष्कृति (पापी) मेरे शरण होते ही नहीं यह बात बता दी और सोलहवें श्लोकमें शरण होनेवालोंके चार प्रकार बता दिये।अब जो शरण होते हैं उनके भी दो प्रकार हैं एक तो भगवान्को भगवान् समझकर अर्थात् भगवान्की महत्ता समझकर भगवान्के शरण होते हैं ( 7। 16 19) और दूसरे भगवान्को साधारण मनुष्य मानकर देवताओंको सबसे बड़ा मानते हैं इसलिये भगवान्का आश्रय न लेकर कामनापूर्तिके लिये देवताओंके शरण हो जाते हैं (7। 20 23)।देवताओँके शरणमें होनेमें भी दो हेतु होते हैं कामनाओँका बढ़ जाना और भगवान्की महत्ताको न जानना। इनमेंसे पहले हेतुका वर्णन तो बीसवेंसे तेईसवें श्लोकतक कर दिया और दूसरे हेतुका वर्णन चौबीसवें श्लोकमें कर दिया। जो भगवान्को साधारण मनुष्य मानते हैं उनके सामने भगवान् प्रकट नहीं होते यह बात पचीसवें श्लोकमें बता दी।अब ऐसा असर पड़ता है कि भगवान् भी मायासे ढके होंगे। अतः भगवान् कहते हैं कि मेरा ज्ञान ढका हुआ नहीं है (7। 26)। मेरेको न जाननेमें रागद्वेष ही मुख्य कारण हैं (7। 27)। जो इस द्वन्द्वरूप मोहसे रहित होते हैं वे दृढ़व्रती होकर मेरा भजन करते हैं (7। 28)। जो मेरा आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे मेरे समग्ररूपको जान जाते हैं और अन्तमें मेरेको ही प्राप्त होते हैं (7। 29 30)।इस अध्यायपर आदिसे अन्ततक विचार करके देखें तो भगवान्के विमुख और सम्मुख होनेका ही इसमें वर्णन है। तात्पर्य है कि जडताकी तरफ वृत्ति रखनेसे मनुष्य बारबार जन्मतेमरते रहते हैं। अगर वे जडतासे विमुख होकर भगवान्के सम्मुख हो जाते हैं तो वे सगुणनिराकार निर्गुणनिराकार और सगुणसाकार ऐसे भगवान्के समग्ररूपको जानकर अन्तमें भगवान्को ही प्राप्त हो जाते हैं।इस प्रकारँ़ तत् सत् इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें ज्ञानविज्ञानयोग नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।7।।
।।7.30।। आत्मानुभवी पुरुष न केवल मन के स्वभाव (अध्यात्म) और कर्म ऋ़े स्वरूप को ही जानते हैं वरन् वे अधिभूत (पंच विषय रूप जगत्) अधिदैव (इन्द्रिय मन और बुद्धि की कार्य प्रणाली) और अधियज्ञ अर्थात् उन परिस्थितियों को भी जानते हैं जिनमें विषय ग्रहण रूप यज्ञ सम्पन्न होता है।ईश्वर के किसी रूप विशेष के भक्त के विषय में सम्भवत यह धारणा उचित हो सकती है कि भक्तजन अव्यावहारिक होते हैं और उनमें सांसारिक जीवन को सफलतापूर्वक जीने की कुशलता नहीं होती। एक सगुण उपासक अपने इष्ट देवता का ध्यान करने में ही इतना भावुक और व्यस्त हो जाता है कि उसमें संसार को समझने की न रुचि होती है और न क्षमता। परन्तु वेदान्त शास्त्र में आत्मज्ञानी पुरुष का जो चित्रण मिलता है उसके अनुसार वह पुरुष न केवल आत्मानुभव में दृढ़निष्ठ होता है वरन् वह सर्वत्र सदा एवं समस्त परिस्थितियों में अपने मन का स्वामी बना रहता है और ऐसी सार्मथ्य से सम्पन्न होता है जिसे सम्पूर्ण जगत् को स्वीकार करना पड़ता है।ऐसा स्वामित्व प्राप्त पुरुष ही जगत् को नेतृत्व प्रदान कर सकता है। सब प्रकार के असंयम एवं विपर्ययों से मुक्त वह ज्ञानी पुरुष अध्यात्म और अधिभूत को जानते हुए जगत् में ईश्वर के समान रहता है। सारांशत इस अध्याय की समाप्ति भगवान् की इस घोषणा के साथ होती है कि जो पुरुष मुझे जानता है वह सब कुछ जानता है। भगवान् श्रीकृष्ण के समान वह अपनी वर्तमान तथा भावी पीढ़ियों के भाग्य निर्माण में मार्गदर्शक बनता है।इस अध्याय के अन्तिम दो श्लोक उनमें प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दों का पूर्णरूप से वर्णन नहीं करते हैं। ये सूत्ररूप श्लोक हैं जिनका विस्तृत विवेचन अगले अध्याय में किया गया है। दो अध्यायों को संबद्ध करने की पारम्परिक शास्त्रीय पद्धतियों में से यह एक पद्धति है।conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रेश्रीकृष्णार्जुनसंवादे ज्ञानविज्ञानयोगो नाम सप्तमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ज्ञानविज्ञानयोग नामक सप्तम अध्याय समाप्त होता है।उपनिषदों में उपदिष्ट सिद्धांत महर्षि व्यास के समय केवल काव्यत्मक पूर्णत्व के काल्पनिक वर्णन के रूप में रह गये थे जिनका जीवन की वास्तविकता से कोई सम्बन्ध नहीं था। इस प्रकार अपनी संस्कृति के मूल वैभव एवं सार्मथ्य से विलग हुए हिन्दुओं की सांस्कृतिक चेतना में पुनर्जीवित करना आवश्यक था। यह कार्य उन्हें उनके दार्शनिक सिद्धांतों में सौन्दर्य एवं तेजस्विता को दर्शा कर सम्पन्न किया जा सकता था। इस अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण ने निश्चयात्मक रूप से यह सिद्ध किया है तथा इस पर बल दिया है कि वेदान्त प्रतिपादित पूर्णत्व कोई कल्पना नहीं वरन् वह साधक की वास्तविक उपलब्धि बन सकती है जिसे जीवन में सफलतापूर्वक जी कर वह अप्ानी पीढ़ी का कल्याण कर सकता है। अत इस अध्याय का ज्ञानविज्ञानयोग शीर्षक अत्यन्त उपयुक्त है। केवल ज्ञान विशेष उपयोगी नहीं होता। ज्ञान का पूर्णत्व उसके यथार्थ अनुभव में है। ज्ञान का उपदेश तो दिया जा सकता है परन्तु अनुभव (विज्ञान) नहीं। धर्म तत्त्व ज्ञान का उपदेश देता है और उसके साथ ही उन उपायों का भी निर्देशन करता है जिनके द्वारा वह ज्ञान साधक का अपना विज्ञान बन सके और जीवन के साथ एकरूप हो जाय। इस प्रकार धर्म का प्रयोजन ऐसे अनुभवी पुरुषों का निर्माण करना है जो जीवन के परम पुरुषार्थ को प्राप्त करके धर्म को सत्योचित प्रमाणित कर सकें और अपनी पीढ़ियों को आनन्दाभिभूत करके कृतार्थ करने में सक्षम हों।