अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.5।।
।।7.4 7.5।।(टिप्पणी प0 396) पृथ्वी जल तेज वायु आकाश ये पञ्चमहाभूत और मन बुद्धि तथा अहंकार यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी अपरा प्रकृति है। हे महाबाहो इस अपरा प्रकृतिसे भिन्न मेरी जीवरूपा परा प्रकृतिको जान जिसके द्वारा यह जगत् धारण किया जाता है।
।।7.5।। हे महाबाहो यह अपरा प्रकृति है। इससे भिन्न मेरी जीवरूपी पराप्रकृति को जानो जिससे यह जगत् धारण किया जाता है।।
।।7.5।। व्याख्या भूमिरापोऽनलो वायुः ৷৷. विद्धि मे पराम् परमात्मा सबके कारण हैं। वे प्रकृतिको लेकर सृष्टिकी रचना करते हैं (टिप्पणी प0 397.1)। जिस प्रकृतिको लेकर रचना करते हैं उसका नाम अपरा प्रकृति है और अपना अंश जो जीव है उसको भगवान् परा प्रकृति कहते हैं। अपरा प्रकृति निकृष्ट जड और परिवर्तनशील है तथा परा प्रकृति श्रेष्ठ चेतन और परिवर्तनशील है।प्रत्येक मनुष्यका भिन्नभिन्न स्वभाव होता है। जैसे स्वभावको मनुष्यसे अलग सिद्ध नहीं कर सकते ऐसे ही परमात्माकी प्रकृतिको परमात्मासे अलग (स्वतन्त्र) सिद्ध नहीं कर सकते। यह प्रकृति प्रभुका ही एक स्वभाव है इसलिये इसका नाम प्रकृति है। इसी प्रकार परमात्माका अंश होनेसे जीवको परमात्मासे भिन्न सिद्ध नहीं कर सकते क्योंकि यह परमात्माका स्वरूप है। परमात्माका स्वरूप होनेपर भी केवल अपरा प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेके कारण इस जीवात्माको प्रकृति कहा गया है। अपरा प्रकृतिके सम्बन्धसे अपनेमें कृति (करना) माननेके कारण ही यह जीवरूप है। अगर यह अपनेमें कृति न माने तो यह परमात्मस्वरूप ही है फिर इसकी जीव या प्रकृति संज्ञा नहीं रहती अर्थात् इसमें बन्धनकारक कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं रहता (गीता 18। 17)।यहाँ अपरा प्रकृतिमें पृथ्वी जल तेज वायु आकाश मन बुद्धि और अहंकार ये आठ शब्द लिये गये हैं। इनमेंसे अगर पाँच स्थूल भूतोंसे स्थूल सृष्टि मानी जाय तथा मन बुद्धि और अहंकार इन तीनोंसे सूक्ष्म सृष्टि मानी जाय तो इस वर्णनमें स्थूल और सूक्ष्म सृष्टि तो आ जाती है पर कारणरूप प्रकृति इसमें नहीं आती। कारणरूप प्रकृतिके बिना प्रकृतिका वर्णन अधूरा रह जाता है। अतः आदरणीय टीकाकारोंने पाँच स्थूल भूतोंसे सूक्ष्म पञ्चतन्मात्राओं (शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध) को लिया है जो कि पाँच स्थूल भूतोंकी कारण हैं। मन शब्दसे अहंकार लिया है जो कि मनका कारण है। बुद्धि शब्दसे महत्तत्त्व (समष्टि बुद्धि) और अहंकार शब्दसे प्रकृति ली गयी है। इस प्रकार इन आठ शब्दोंका ऐसा अर्थ लेनसे ही समष्टि अपरा प्रकृतिका पूरा वर्णन होता है क्योंकि इसमें स्थूल सूक्ष्म और कारण ये तीनों समष्टि शरीर आ जाते हैं। शास्त्रोंमें इसी समष्टि प्रकृतिका प्रकृतिविकृतिके नामसे वर्णन किया गया है (टिप्पणी प0 397.2)। परन्तु यहाँ एक बात ध्यान देनेकी है कि भगवान्ने यहाँ अपरा और परा प्रकृतिका वर्णन प्रकृतिविकृति की दृष्टिसे नहीं किया है। यदि भगवान् प्रकृतिविकृति की दृष्टिसे वर्णन करते तो चेतनको प्रकृतिके नामसे कहते ही नहीं क्योंकि चेतन न तो प्रकृति है और न विकृति है। इससे सिद्ध होता है कि भगवान्ने यहाँ जड और चेतनका विभाग बतानेके लिये ही अपरा प्रकृतिके नामसे जडका और परा प्रकृतिके नामसे चेतनका वर्णन किया है।यहाँ यह आशय मालूम देता है कि पृथ्वी जल तेज वायु और आकाश इन पाँच तत्त्वोंके स्थूलरूपसे स्थूल सृष्टि ली गयी है और इनका सूक्ष्मरूप जो पञ्चतन्मात्राएँ कही जाती हैं उनसे सूक्ष्मसृष्टि ली गयी है। सूक्ष्मसृष्टिके अङ्ग मन बुद्धि और अहंकार हैं।अहंकार दो प्रकारका होता है (1) अहंअहं करके अन्तःकरणकी वृत्तिका नाम भी अहंकार है जो कि करणरूप है। यह हुई अपरा प्रकृति जिसका वर्णन यहाँ चौथे श्लोकमें हुआ है और (2) अहम्रूपसे व्यक्तित्व एकदेशीयताका नाम भी अहंकार है जो कि कर्तारूप है अर्थात् अपनेको क्रियाओंका करनेवाला मानता है। यह हुई परा प्रकृति जिसका वर्णन यहाँ पाँचवें श्लोकमें हुआ है। यह अहंकार कारणशरीरमें तादात्म्यरूपसे रहता है। इस तादात्म्यमें एक जडअंश है और एक चेतनअंश है। इसमें जो जडअंश है वह कारणशरीर है और उसमें जो अभिमान करता है वह चेतनअंश है। जबतक बोध नहीं होता तबतक यह जडचेतनके तादात्म्यवाला कारणशरीरका अहम् कर्तारूपसे निरन्तर बना रहता है। सुषुप्तिके समय यह सुप्तरूपसे रहता है अर्थात् प्रकट नहीं होता। नींदसे जगनेपर मैं सोया था अब जाग्रत् हुआ हूँ इस प्रकार अहम् की जागृति होती है। इसके बाद मन और बुद्धि जाग्रत् होते हैं जैसे मैं कहाँ हूँ कैसे हूँ यह मनकी जागृति हुई और मैं इस देशमें इस समयमें हूँ ऐसा निश्चय होना बुद्धिकी जागृति हुई। इस प्रकार नींदसे जगनेपर जिसका अनुभव होता है वह अहम् परा प्रकृति है और वृत्तिरूप जो अहंकार है वह अपरा प्रकृति है। इस अपरा प्रकृतिको प्रकाशित करनेवाला और आश्रय देनेवाला चेतन जब अपरा प्रकृतिको अपनी मान लेता है तब वह जीवरूप परा प्रकृति होती है ययेदं धार्यते जगत्।अगर यह परा प्रकृति अपरा प्रकतिसे विमुख होकर परमात्माके ही सम्मुख हो जाय परमात्माको ही अपना माने और अपरा प्रकृतिको कभी भी अपना न माने अर्थात् अपरा प्रकृतिसे सर्वथा सम्बन्धरहित होकर निर्लिप्तताका अनुभव कर ले तो इसको अपने स्वरूपका बोध हो जाता है। स्वरूपका बोध हो जानेपर परमात्माका प्रेम प्रकट हो जाता है (टिप्पणी प0 398) जो कि पहले अपरा प्रकृतिसे सम्बन्ध रखनेसे आसक्ति और कामनाके रूपमें था। वह प्रेम अनन्त अगाध असीम आनन्दरूप और प्रतिक्षण वर्धमान है। उसकी प्राप्ति होनेसे यह परा प्रकृति प्राप्तप्राप्तव्य हो जाती है अपने असङ्गरूपका अनुभव होनेसे ज्ञातज्ञातव्य हो जाती है और अपरा प्रकृतिको संसारमात्रकी सेवामें लगाकर संसारसे सर्वथा विमुख होनेसे कृतकृत्य हो जाती है। यही मानवजीवनकी पूर्णता है सफलता है।प्रकृतिरष्टधा अपरेयम् पदोंसे ऐसा मालूम देता है कि यहाँ जो आठ प्रकारकी अपरा प्रकृति कही गयी है वह व्यष्टि अपरा प्रकृति है। इसका कारण यह है कि मनुष्यको व्यष्टि प्रकृति शरीरसे ही बन्धन होता है समष्टि प्रकृतिसे नहीं। कारण कि मनुष्य व्यष्टि शरीरके साथ अपनापन कर लेता है जिससे बन्धन होता है।व्यष्टि कोई अलग तत्त्व नहीं है प्रत्युत समष्टिका ही एक क्षुद्र अंश है। समष्टिसे माना हुआ सम्बन्ध ही व्यष्टि कहलाता है अर्थात् समष्टिके अंश शरीरके साथ जीव अपना सम्बन्ध मान लेता है तो वह समष्टिका अंश शरीर ही व्यष्टि कहलाता है। व्यष्टिसे सम्बन्ध जोड़ना ही बन्धन है। इस बन्धनसे छुड़ानेके लिये भगवान्ने आठ प्रकारकी अपरा प्रकृतिका वर्णन करके कहा है कि जीवरूप परा प्रकृतिने ही इस अपरा प्रकृतिको धारण कर रखा है। यदि धारण न करे तो बन्धनका प्रश्न ही नहीं है।पंद्रहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान्ने जीवात्माको अपना अंश कहा है ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। परन्तु वह प्रकृतिमें स्थित रहनेवाले मन और पाँचों इन्द्रियोंको खींचता है अर्थात् उनको अपनी मानता है मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति। इसी तरह तेरहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें भगवान्ने क्षेत्ररूपसे समष्टिका वर्णन करके छठे श्लोकमें व्यष्टिके विकारोंका वर्णन किया क्योंकि ये विकार व्यष्टिके ही होते हैं समष्टिके नहीं। इन सबसे यही सिद्ध हुआ कि व्यष्टिसे सम्बन्ध जोड़ना ही बाधक है। इस व्यष्टिसे सम्बन्ध तोड़नेके लिये ही यहाँ व्यष्टि अपरा प्रकृतिका वर्णन किया गया है जो कि समष्टिका ही अङ्ग है। व्यष्टि प्रकृति अर्थात् शरीर समष्टि सृष्टिमात्रके साथ सर्वथा अभिन्न है भिन्न कभी हो ही नहीं सकता।वास्तवमें मूल प्रकृति कभी किसीकी बाधक या साधक (सहायक) नहीं होती। जब साधक उससे अपना सम्बन्ध नहीं मानता तब तो वह सहायक हो जाती है पर जब वह उससे अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वह बाधक हो जाती है क्योंकि प्रकृतिके साथ सम्बन्ध माननेसे व्यष्टि अहंता (मैंपन) पैदा होती है। यह अहंता ही बन्धनका कारण होती है।यहाँ इतीयं मे पदोंसे भगवान् यह चेता रहे हैं कि यह अपरा प्रकृति मेरी है। इसके साथ भूलसे अपनापन कर लेना ही बारबार जन्ममरणका कारण है और जो भूल करता है उसीपर भूलको मिटानेकी जिम्मेवारी होती है। अतः जीव इस अपराके साथ अपनापन न करे।अहंतामें भोगेच्छा और जिज्ञासा ये दोनों रहती हैं। इनमेंसे भोगेच्छाको कर्मयोगके द्वारा मिटाया जाता है और जिज्ञासाको ज्ञानयोगके द्वारा पूरा किया जाता है। कर्मयोग और ज्ञानयोग इन दोनोंमेंसे एकके भी सम्यक्तया पूर्ण होनेपर एकदूसरेमें दोनों आ जाते हैं (गीता 5। 4 5) अर्थात् भोगेच्छाकी निवृत्ति होनेपर जिज्ञासाकी भी पूर्ति हो जाती है और जिज्ञासाकी पूर्ति होनेपर भोगेच्छाकी भी निवृत्ति हो जाती है। कर्मयोगमें भोगेच्छा मिटनेपर तथा ज्ञानयोगमें जिज्ञासाकी पूर्ति होनेपर असङ्गता स्वतः आ जाती है। उस असङ्गताका भी उपभोग न करनेपर वास्तविक बोध हो जाता है और मनुष्यका जन्म सर्वथा सार्थक होजाता है।जीवभूताम् वास्तवमें यह जीवरूप नहीं है प्रत्युत जीव बना हुआ है। यह तो स्वतः साक्षात् परमात्माका अंश है। केवल स्थूल सूक्ष्म और कारणशरीररूप प्रकृतिके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही यह जीव बना है। यह सम्बन्ध जोड़ता है अपने सुखके लिये। यही सुख इसके जन्ममरणरूप महान् दुःखका खास कारण है।महाबाहो हे अर्जुन तुम बड़े शक्तिशाली हो इसलिये तुम अपरा और परा प्रकृतिके भेदको समझनेमें समर्थ हो। अतः तुम इसको समझो विद्धि।ययेदं धार्यते जगत् (टिप्पणी प0 399) वास्तवमें यह जगत् जगद्रूप नहीं है प्रत्युत भगवान्का ही स्वरूप है वासुदेवः सर्वम् (7। 19) सदसच्चाहम् (9। 19)। केवल इस परा प्रकृति जीवने इसको जगत्रूपसे धारण कर रखा है अर्थात् जीव इस संसारकी स्वतन्त्र सत्ता मानकर अपने सुखके लिये इसका उपोयग करने लग गया। इसीसे जीवका बन्धन हुआ है। अगर जीव संसारकी स्वतन्त्र सत्ता न मानकर इसको केवल भगवत्स्वरूप ही माने तो उसका जन्ममरणरूप बन्धन मिट जायगा।भगवान्की परा प्रकृति होकर भी जीवात्माने इस दृश्यमान जगत्को जो कि अपरा प्रकृति है धारण कर रखा है अर्थात् इस परिवर्तनशील विकारी जगत्को स्थायी सुन्दर और सुखप्रद मानकर मैं और मेरेरूपसे धारण कर रखा है। जिसकी भोगों और पदार्थोंमें जितनी आसक्ति है आकर्षण है उसको उतना ही संसार और शरीर स्थायी सुन्दर और सुखप्रद मालूम देता है। पदार्थोंका संग्रह तथा उनका उपभोग करनेकी लालसा ही खास बाधक है। संग्रहसे अभिमानजन्य सुख होता है और भोगोंसे संयोगजन्य सुख होता है। इस सुखासक्तिसे ही जीवने जगत्को जगत्रूपसे धारण कर रखा है। सुखासक्तिके कारण ही वह इस जगत्को भगवत्स्वरूपसे नहीं देख सकता। जैसे स्त्री वास्तवमें जननशक्ति है परन्तु स्त्रीमें आसक्त पुरुष स्त्रीको मातृरूपसे नहीं देख सकता ऐसे ही संसार वास्तवमें भगवत्स्वरूप है परंतु संसारको अपना भोग्य माननेवाला भोगासक्त पुरुष संसारको भगवत्स्वरूप नहीं देख सकता। यह भोगासक्ति ही जगत्को धारण कराती है अर्थात् जगत्को धारण करानेमें हेतु है।दूसरी बात मात्र मनुष्योंके शरीरोंकी उत्पत्ति रजवीर्यसे ही होती है जो कि स्वरूपसे स्वतः ही मलिन है। परंतु भोगोंमें आसक्त पुरुषोंकी उन शरीरोंमें मलिन बुद्धि नहीं होती प्रत्युत रमणीय बुद्धि होती है। यह रमणीय बुद्धि ही जगत्को धारण कराती है।नदीके किनारे खड़े एक सन्तसे किसीने कहा कि देखिये महाराज यह नदीका जल बह रहा है और उस पुलपर मनुष्य बह रहे हैं। सन्तने उससे कहा कि देखो भाई नदीका जल ही नहीं खुद नदी भी बह रही है और पुलपर मनुष्य ही नहीं खुद पुल भी बह रहा है। तात्पर्य यह हुआ कि ये नदी पुल तथा मनुष्य बड़ी तेजीसे नाशकी तरफ जा रहे हैं। एक दिन न यह नदी रहेगी न यह पुल रहेगा और न ये मनुष्य रहेंगे। ऐसे ही यह पृथ्वी भी बह रही है अर्थात् प्रलयकी तरफ जा रही है। इस प्रकार भावरूपसे दीखनेवाला यह सारा जगत् प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है परन्तु जीवने इसको भावरूपसे अर्थात् है रूपसे धारण (स्वीकार) कर रखा है। परा प्रकृतिकी (स्वरूपसे) उत्पत्ति नहीं होती पर अपरा प्रकृतिके साथ तादात्म्य करनेके कारण यह शरीरकी उत्पत्तिको अपनी उत्पत्ति मान लेता है और शरीरके नाशको अपना नाश मान लेता है जिससे यह जन्मतामरता रहता है। अगर यह अपराके साथ सम्बन्ध न जोड़े इससे विमुख हो जाय अर्थात् भावरूपसे इसको सत्ता न दे तो जगत् सत्रूपसे दीख ही नहीं सकता।इदम् पदसे शरीर और संसार दोनों लेने चाहिये क्योंकि शरीर और संसार अलगअलग नहीं हैं। तत्त्वतः (धातु चीज) एक ही है। शरीर और संसारका भेद केवल माना हुआ है वास्तवमें अभेद ही है। इसलिये तेरहवें अध्यायमें भगवान्ने इदं शरीरम् पदोंसे शरीरको क्षेत्र बताया (13। 1) परन्तु जहाँ क्षेत्रका वर्णन किया है वहाँ समष्टिका ही वर्णन हुआ है (13। 5) और इच्छाद्वेषादि विकार व्यष्टिके माने गये हैं (13। 6) क्योंकि इच्छा आदि विकार व्यष्टि प्राणीके ही होते हैं। तात्पर्य है कि समष्टि और व्यष्टि तत्त्वतः एक ही हैं। एक होते हुए भी अपनेको शरीर माननेसे अहंता और शरीरको अपना माननेसे ममता पैदा होती है जिससे बन्धन होता है। अगर शरीर और संसारकी अभिन्नताका अथवा अपनी और भगवान्की अभिन्नताका साक्षात् अनुभव हो जाय तो अहंता और ममता स्वतः मिट जाती है। ये अहंता और ममता कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग तीनोंसे ही मिटती हैं। कर्मयोगसे निर्ममो निरहंकारः (गीता 2। 71) ज्ञानयोगसे अहंकारं ৷৷. विमुच्य निर्ममः (गीता 18। 53) और भक्तियोगसे निर्ममो निरहंकारः (गीता 12। 13)। तात्पर्य है कि जडताके साथ सम्बन्धविच्छेद होना चाहिये जो कि केवल माना हुआ है। अतः विवेकपूर्वक न माननेसे अर्थात् वास्तविकताका अनुभव करनेसे वह माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है।विशेष बातजैसे गुरुशिष्यका सम्बन्ध होता है तो इसमें गुरु शिष्यको अपना शिष्य मानता है। शिष्य गुरुको अपना गुरु मानता है। इस प्रकार गुरु अलग है और शिष्य अलग है अर्थात् उन दोनोंकी अलगअलग सत्ता दीखती है। परन्तु उन दोनोंके सम्बन्धसे एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है जिसको सम्बन्धकी सत्ता कहते हैं (टिप्पणी प0 400)। ऐसे ही साक्षात् परमात्माके अंश जीवने शरीरसंसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लिया है। इस सम्बन्धके कारण एक तीसरी सत्ता प्रतीत होने लग जाती है जिसको मैंपन कहते हैं। सम्बन्धकी यह सत्ता (मैंपन) केवल मानी हुई है वास्तवमें है नहीं। जीव भूलसे इस माने हुए सम्बन्धको सत्य मान लेता है अर्थात् इसमें सद्भाव कर लेता है और बँध जाता है। इस प्रकार जीव संसारसे नहीं प्रत्युत संसारसे माने हुए सम्बन्धसे ही बँधता है।गुरु और शिष्यमें तो दोनोंकी अलगअलग सत्ता है और दोनों एकदूसरेसे सम्बन्ध मानते हैं परन्तु जीव (चेतन) और संसार (जड) इन दोनोंमें केवल एक जीवकी ही वास्तविक सत्ता है और यही भूलसे संसारके साथ अपना सम्बन्ध मानता है। संसार प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है अतः उससे माना हुआ सम्बन्ध भी प्रतिक्षण स्वतः नष्ट हो रहा है। ऐसा होते हुए भी जबतक संसारमें सुख प्रतीत होता है तबतक उससे माना हुआ सम्बन्ध स्थायी प्रतीत होता है। तात्पर्य यह है कि संसारसे माना हुआ सम्बन्ध सुखासक्तिपर ही टिका हुआ है। संसारसे सुखासक्तिपूर्वक माने हुए सम्बन्धके कारण ही संसार अप्राप्त होनेपर भी प्राप्त और परमात्मा प्राप्त होनेपर भी अप्रप्त प्रतीत हो रहे हैं। संसारसे माना हुआ सम्बन्ध टूटते ही परमात्माके वास्तविक सम्बन्धका अथवा संसारकी अप्राप्ति और परमात्माकी प्राप्तिका अनुभव हो जाता है।मैंपनको मिटानेके लिये साधक प्रकृति और प्रकृतिके कार्यको न तो अपना स्वरूप समझे न उससे कुछ मिलनेकी इच्छा रखे और न हि अपने लिये कुछ करे। जो कुछ करे वह सब केवल संसारकी सेवाके लिये ही करता रहे। तात्पर्य है कि जो कुछ प्रकृतिजन्य पदार्थ हैं उन सबकी संसारके साथ एकता है अतः उनको केवल संसारका मानकर संसारकी ही सेवामें लगाता रहे। इससे क्रिया और पदार्थोंका प्रवाह संसारकी तरफ हो जाता है और अपना स्वरूप अवशिष्ट रह जाता है अर्थात् अपने स्वरूपका बोध हो जाता है। यह कर्मयोग हुआ। ज्ञानयोगमें विवेकविचारपूर्वक प्रकृतिके कार्य पदार्थों और क्रियाओंसे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करनेपर स्वरूपका बोध हो जाता है। इस प्रकार जडके सम्बन्धसे जो अहंता (मैंपन) पैदा हुई थी उसकी निवृत्ति हो जाती है।भक्तियोगमें मैं केवल भगवान्का हूँ और केवल भगवान् ही मेरे हैं तथा मैं शरीरसंसारका नहीं हूँ और शरीरसंसार मेरे नहीं हैं ऐसी दृढ़ मान्यता करके भक्त संसारसे विमुख होकर केवल भगवत्परायण हो जाता है जिससे संसारका सम्बन्ध स्वतः टूट जाता है और अहंताकी निवृत्ति हो जाती है।इस प्रकार कर्मयोग ज्ञानयोग और भक्तियोग इन तीनोंमेंसे किसी एकका भी ठीक अनुष्ठान करनेपर जडतासे सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होकर परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है। सम्बन्ध पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि परा प्रकृतिने अपरा प्रकृतिको धारण कर रखा है। उसीका स्पष्टीकरण करनेके लिये अब आगेका श्लोक कहते हैं।
।।7.5।। अष्टधा प्रकृति अपरा जड़ है। उसे बताने के पश्चात् उससे भिन्न अपनी परा प्रकृति को भगवान् बताते हैं। वह परा प्रकृति जीवरूप अर्थात् चेतन रूप है जिसके कारण ही शरीर मन और बुद्धि अपनेअपने कार्य इस प्रकार करते हैं मानो वे स्वयं ही चेतन हों।इस चेतन की विद्यमानता में ही उपाधियाँ अपना व्यापार कर सकती हैं अन्यथा नहीं। चैतन्य के बिना हमें न बाह्य स्थूल जगत् का और न आन्तरिक सूक्ष्म विचार रूप जगत् का ही अनुभव और ज्ञान हो सकता है। वही जगत् को धारण किये हुए है। उसके अभाव में हमारी दशा एक पाषाण के समान हो जायेगी जिसमें न चेननता है और न बुद्धिमत्ता।भगवान् के इस कथन को कि परा प्रकृति जगत् का आधार है भौतिक विज्ञान की दृष्टि से विचार करके भी सिद्ध किया जा सकता है। हम अपने घर में रहते हैं जिसका आधार है भूमि। उस भूमिभाग का आधार है शहर शहर का राष्ट्र और राष्ट्र का आधार विश्व है विश्व घिरा हुआ है समुद्र के जल से जिसकी स्थिति वायुमण्डल पर निर्भर करती है। यह वायुमण्डल तो सौरमण्डल अथवा ग्रहमण्डल का एक भाग है। सम्पूर्ण विश्व आकाश में स्थित है और आकाश स्थित है मन में स्थित आकाश की कल्पना पर। मन का आधार है बुद्धि का निर्णय। और क्योंकि बुद्धिवृत्तियों का ज्ञान चैतन्य के कारण ही संभव है इसलिए यह चैतन्य ही सम्पूर्ण जगत् का आधार सिद्ध होता है। व्ाही जगत् का अधिष्ठान है।दर्शनशास्त्र में जगत् का अर्थ केवल इन्द्रियगोचर जगत् ही नहीं वरन् मन तथा बुद्धि के द्वारा अनुभूयमान जगत् भी उस शब्द की परिभाषा मे समाविष्ट है। इस प्रकार बाह्य विषय भावनाएं और विचार ये सब जगत् ही हैं। यह सम्पूर्ण जगत् चेतनस्वरूप परा प्रकृति के द्वारा धारण किया जाता है।
7.5 O mighty-armed one, this is the inferior (Prakrti). Know the other Prakrti of Mine which, however, is higher than this, which has taken the from of individual souls, and by which this world is uphelp.
7.5 This is the inferior Prakriti, O mighty-armed (Arjuna); know thou as different from it My higher Prakriti (Nature), the very life-element, by which this world is upheld.
7.5. This is the lower [nature of Mine]. Not different from this is My superior nature which has become the individual Soul and by which this world is maintained. O mighty armed (Arjuna), you must know this.
7.5 अपरा lower? इयम् this? इतः from this? तु but? अन्याम् different? प्रकृतिम् nature? विद्धि know? मे My? पराम् higher? जीवभूताम् the very lifeelement? महाबाहो O mightyarmed? यया by which? इदम् this? धार्यते is upheld? जगत् world.Commentary The eightfold Nature described in the previous verse is the inferior Nature. It constitutes the Kshetra or the field or matter. It is impure. It generates evil and causes bondage. But the superior Nature is pure. It is My very Self? Kshetrajna (knower of the field or Spirit) by which life is sustained? and that which enters within the whole world and upholds it. It is the very lifeelement or the principle of Selfconsciousness? by which this universe is sustained.
7.5 O mighty-armed one, iyam, this; is apara, the inferior (Prakrti)-not the higher, (but)-the impure, the source of evil and having the nature of worldly bondage. Viddhi, know; anyam, the other, pure; prakrtim, Prakrti; me, of Mine, which is essentially Myself; which, tu, however;is param, higher, more exalted; itah, than this (Prakrti) already spoken of; Jiva-bhutam, which has taken the form of the individual souls, which is characterized as the Knower of the body (field), and which is the cause of sustenance of life; and yaya, by which Prakriti; idam, this; jagat, world; dharyate, is upheld, by permeating it.
7.4-5 Bhumih etc. Apard etc. [The demonstrative] this denotes what is being perceived [as objects] through sense-organs by all men at the stage of mundane life. This is only one and at the same time is divided eigth-fold. Therefore the universe is one and unitary, because it is made of one single material cause. By this statement, monism is demonstrated even while following the Prakrti theory. The selfsame Prakrti has become the living one i.e., the personal Soul. Hence it is superior [to what has become eight-fold]. It also belongs to Me alone and not to anybody else. This Prakrti is [thus] two-fold and varied in the form of the universe consisting of the knowables and the knower. That is why this Prakrti (the basic material nature), being the substratum of all beings reflected on the surface of the clean mirror, viz., the Self , is nothing but Selfs own nature and [hence] never leaves Him. This world : the Earth etc. [mentioned in the 4th verse].
7.5 This is My lower Prakrti. But know My higher Prakrti which is different from this, i.e., whose nature is different from this inanimate Prakrti constituting the objects of enjoyment to animate beings. It is higher, i.e., is more pre-eminent compared to the lower Prakrti which is constituted only of inanimate substances. This higher Nature of Mine is the individual self. Know this as My higher Prakrti through which the whole inanimate universe is sustained.
This prakrti is called the external energy. As it is not conscious, it is inferior (apara). Know the other energy, tatastha sakti, which gives rise to the jivas, which is superior (param), because it is conscious. Why is jiva considered superior? The unconscious matter (idam jagat) is employed (dharyate) by this conscious jiva, for jiva’s own enjoyment.
While concluding the topic of the eight categories of the lower inferior prakriti or material substratum Lord Krishna describes the higher superior prakriti. The lower prakriti is inferior because it is inert and meant for enjoyment by another. The higher prakriti is the individual atma or soul within all sentient beings. By the unique and exclusive sentient principle of the embodied soul being created, activated and energised by an infinitesimal portion of the Supreme Lord all creation is sustained by its own effort.
The word apare means inferior and refers to the eight principle material energies itemised in the previous verse. Residing within all creatures the sakti or feminine energy known as Sri or Laksmi Devi of Lord Krishna is the caretaker of all life existing always as the consciousness of all creatures. Prakriti or the substratum pervading material nature has a dual manifestation gross and subtle. The gross manifestation is the eight categories of material nature which is inferior to the subtle manifestation which is eternal and all pervading. There is nothing comparable to Sri Laksmi as she is an eternal energy of the Supreme Lord manifesting herself individually as an eternal consort for each and every avatar or incarnation of Lord Krishna. In the Narada Purana it states that by these two gross and subtle manifestations of Sri Laksmi all the worlds are energised and sustained by the Supreme Lord.
Lord Krishna explains that the eight categories mentioned are of His lower inferior energy being material. But He has a higher superior energy which is completely transcendent to the insentient nature being spiritual and contributing to the enjoyment of His higher nature of embodied sentient beings. This higher nature is eternal in nature in the form of the atma or soul within all sentient beings and is distinctly different from His lower insentient nature which pervades existence as well. The relationship of the higher nature to the lower nature is equated to the enjoyer and the enjoyed. The higher nature is further distinguished by an intellect which is totally absent in the lower insentient nature; but both nature manifest from the Supreme Lord. The lower nature consisting of matter and the higher nature consisting of the atma or eternal soul within all sentient beings. By this higher superior energy all inert and non-intelligent matter is upheld throughout all creation.
Lord Krishna explains that the eight categories mentioned are of His lower inferior energy being material. But He has a higher superior energy which is completely transcendent to the insentient nature being spiritual and contributing to the enjoyment of His higher nature of embodied sentient beings. This higher nature is eternal in nature in the form of the atma or soul within all sentient beings and is distinctly different from His lower insentient nature which pervades existence as well. The relationship of the higher nature to the lower nature is equated to the enjoyer and the enjoyed. The higher nature is further distinguished by an intellect which is totally absent in the lower insentient nature; but both nature manifest from the Supreme Lord. The lower nature consisting of matter and the higher nature consisting of the atma or eternal soul within all sentient beings. By this higher superior energy all inert and non-intelligent matter is upheld throughout all creation.
Apareyamitastwanyaam prakritim viddhi me paraam; Jeevabhootaam mahaabaaho yayedam dhaaryate jagat.
aparā—inferior; iyam—this; itaḥ—besides this; tu—but; anyām—another; prakṛitim—energy; viddhi—know; me—my; parām—superior; jīva-bhūtām—living beings; mahā-bāho—mighty-armed one; yayā—by whom; idam—this; dhāryate—the basis; jagat—the material world