एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।7.6।।
।।7.6।। यह जानो कि समम्पूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से उत्पत्ति वाले हैं। (अत) मैं सम्पूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय स्थान हूँ।।
।।7.6।। उपर्युक्त अपरा एवं परा प्रकृतियों के परस्पर संबंध से यह नानाविध वैचित्र्यपूर्ण सृष्टि व्यक्त होती है। जड़ प्रकृति के बिना चैतन्य की सार्मथ्य व्यक्त नहीं हो सकती और न ही उसके बिना जड़ उपाधियों में चेनवत् व्यवहार की संभावना ही रहती है। बल्ब में स्थित तार में स्वयं विद्युत् ही प्रकाश के रूप मे व्यक्त होती है। प्रकाश की अभिव्यक्ति के लिए विद्युत् और बल्ब दोनों का संबंध होना आवश्यक है। इसी प्रकार सृष्टि के लिए परा और अपरा जड़ और चेतन के संबंध की अपेक्षा होती है।इसी दृष्टि से भगवान् कहते हैं ये दोनों प्रकृतियां भूतमात्र की कारण हैं। एक मेधावी विद्यार्थी को इस कथन का अभिप्राय समझना कठिन नहीं है। बाह्य विषय भावनाएं तथा विचारों के जगत् की न केवल उत्पत्ति और स्थिति बल्कि लय भी चेतन पुरुष में ही होता है। इस प्रकार अपरा प्रकृति पारमार्थिक स्वरूप में पराप्रकृति से भिन्न नहीं है। आत्मा मानो अपने स्वरूप को भूलकर अपरा प्रकृति के साथ तादात्म्य करके जीवभाव के दुखों को प्राप्त होता है। परन्तु उसका यह दुख मिथ्या है वास्तविक नहीं। स्वस्वरूप की पहचान ही अनात्मबन्धन से मुक्ति का एकमात्र उपाय है। परा से अपरा की उत्पत्ति उसी प्रकार होती है जैसे मिट्टी के बने घटों की मिट्टी से। स्ाभी घटों में एक मिट्टी ही सत्य है उसी प्रकार विषय इन्द्रियां मन तथा बुद्धि इन अपरा प्रकृति के कार्यों का वास्तविक स्वरूप चेतन तत्त्व ही है।इसलिये