रसोऽहमप्सु कौन्तेय प्रभास्मि शशिसूर्ययोः।
प्रणवः सर्ववेदेषु शब्दः खे पौरुषं नृषु।।7.8।।
।।7.8।।हे कुन्तीनन्दन जलोंमें रस हूँ चन्द्रमा और सूर्यमें प्रभा (प्रकाश) मैं हूँ सम्पूर्ण वेदोंमें प्रणव (ओंकार) मैं हूँ आकाशमें शब्द और मनुष्योंमें पुरुषार्थ मैं हूँ।
।।7.8।। हे कौन्तेय जल में मैं रस हूँ चन्द्रमा और सूर्य में प्रकाश हूँ सब वेदों में प्रणव (ँ़कार) हूँ तथा आकाश में शब्द और पुरुषों में पुरुषत्व हूँ।।