पुण्यो गन्धः पृथिव्यां च तेजश्चास्मि विभावसौ।
जीवनं सर्वभूतेषु तपश्चास्मि तपस्विषु।।7.9।।
।।7.9।। पृथ्वी में पवित्र गन्ध हूँ और अग्नि में तेज हूँ सम्पूर्ण भूतों में जीवन हूँ और तपस्वियों में मैं तप हूँ।।
।।7.9।। किस प्रकार परमात्मरूपी सूत्र में नामरूपमय मणि पिरोकर सुन्दर सृष्टिरूप कण्ठाभरण की निर्मिति हुई है इसका वर्णन इन दो श्लोकों में किया गया है। इसके पूर्व भगवान् ने यह कहा था कि परा और अपरा प्रकृतियों के द्वारा मैं ही जगत् का कारण हूँ और मुझसे भिन्न किञ्चिन्मात्र कोई वस्तु नहीं है। वह सनातन तत्त्व क्या है जो सर्वत्र व्याप्त होते हुये भी दृष्टिगोचर नहीं होता इस प्रश्न का उत्तर यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण ने दिया है।किसी वस्तु का धर्म या स्वरूप वह है जो सदा एक समान बना रहता है और जिसके बिना उस वस्तु का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं हो सकता। यहाँ दिये दृष्टान्त जल में रस सूर्य चन्द्र में प्रकाश समस्त वेदों में प्रणव आकाश में शब्द पृथ्वी में पवित्र गन्ध पुरुषों में पुरुषत्व एवं तपस्वियों में तप आदि ये सब दर्शाते हैं कि आत्मा ही वह तत्त्व है जिसके कारण इन वस्तुओं का अपना विशेष अस्तित्व होता है। संक्षेपत आत्मा समस्त भूतों का जीवन है।भगवान् श्रीकृष्ण कुछ और उदाहरण देते हुये कहते हैं