सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम्।।8.12।।
।।8.12 -- 8.13।।(इन्द्रियोंके) सम्पूर्ण द्वारोंको रोककर मनका हृदयमें निरोध करके और अपने प्राणोंको मस्तकमें स्थापित करके योगधारणामें सम्यक् प्रकारसे स्थित हुआ जो ँ़ इस एक अक्षर ब्रह्मका उच्चारण और मेरा स्मरण करता हुआ शरीरको छोड़कर जाता है वह परमगतिको प्राप्त होता है।
।।8.12।। सब (इन्द्रियों के) द्वारों को संयमित कर मन को हृदय में स्थिर करके और प्राण को मस्तक में स्थापित करके योगधारणा में स्थित हुआ।।
।।8.12।। व्याख्या -- सर्वद्वाराणि संयम्य -- (अन्तसमयमें) सम्पूर्ण इन्द्रियोंके द्वारोंका संयम कर ले अर्थात् शब्द स्पर्श रूप रस और गन्ध -- इन पाँचों विषयोंसे श्रोत्र त्वचा नेत्र रसना और नासिका -- इन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा बोलना ग्रहण करना गमन करना मूत्रत्याग और मलत्याग -- इन पाँचों क्रियाओंसे वाणी हाथ चरण उपस्थ और गुदा -- इन पाँचों कर्मेन्द्रियोंको सर्वथा हटा ले। इससे इन्द्रियाँ अपने स्थानमें रहेंगी।मनो हृदि निरुध्य च -- मनका हृदयमें ही निरोध कर ले अर्थात् मनको विषयोंकी तरफ न जाने दे। इससे मन अपने स्थान(हृदय) में रहेगा।मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणम् -- प्राणोंको मस्तकमें धारण कर ले अर्थात् प्राणोंपर अपना अधिकार प्राप्त करके दसवें द्वार -- ब्रह्मरन्ध्रमें प्राणोंको रोक ले।आस्थितो योगधारणाम् -- इस प्रकार योगधारणामें स्थित हो जाय। इन्द्रियोंसे कुछ भी चेष्टा न करना मनसे भी संकल्पविकल्प न करना और प्राणोंपर पूरा अधिकार प्राप्त करना ही योगधारणामें स्थित होना है।ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन् -- इसके बाद एक अक्षर ब्रह्म ँ़ (प्रणव) का मानसिक उच्चारण करे और मेरा अर्थात् निर्गुणनिराकार परम अक्षर ब्रह्मका (जिसका वर्णन इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें हुआ है) स्मरण करे (टिप्पणी प0 464)। सब देश काल वस्तु व्यक्ति घटना परिस्थिति आदिमें एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही सत्तारूपसे परिपूर्ण हैं -- ऐसी धारणा करना ही मेरा स्मरण है।यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम् -- उपर्युक्त प्रकारसे निर्गुणनिराकारका स्मरण करते हुए जो देहका त्याग करता है अर्थात् दसवें द्वारसे प्राणोंको छोड़ता है वह परमगतिको अर्थात् निर्गुणनिराकार परमात्माको प्राप्त होता है। सम्बन्ध -- जिसके पास योगका बल होता है और जिसका प्राणोंपर अधिकार होता है उसको तो निर्गुणनिराकारकी प्राप्ति हो जाती है परन्तु दीर्घकालीन अभ्याससाध्य होनेसे यह बात सबके लिये कठिन पड़ती है। इसलिये भगवान् आगेके श्लोकमें अपनी अर्थात् सगुणसाकारकी सुगमतापूर्वक प्राप्तिकी बात कहते हैं।
।।8.12।। See Commentary under 8.13.