अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।8.14।।
।।8.14।। हे पार्थ जो अनन्यचित्त वाला पुरुष मेरा स्मरण करता है उस नित्ययुक्त योगी के लिए मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ।।
।।8.14।। उस नित्ययुक्त योगी के लिए आत्मप्राप्ति सहज साध्य होती है जो मुझ चैतन्यस्वरूप आत्मा का अनन्यभाव से नित्यप्रतिदिन स्मरण करता है। पूर्व श्लोकों में कथित सिद्धान्त को ही यहाँ संक्षेप में किन्तु स्पष्ट एवं प्रभावशाली भाषा में कहा गया है।प्रार्थना कोई कीटनाशक दवाई नहीं कि जिसका यदकदा छिड़काव करना ही पर्याप्त है उसी प्रकार पूजागृह को स्नानगृह के समान नहीं समझना चाहिये जिसमें हम अशुद्ध प्रवेश करते हैं और फिर स्वच्छ होकर बाहर आते हैं यहाँ श्रीकष्ण अत्यन्त सावधानी से विशेष बल देकर आग्रह करते हैं कि यह आत्मानुसंधान या ईश्वर स्मरण नित्य निरन्तर और अखण्ड होना चाहिये।उपर्युक्त गुणों से सम्पन्न योगी को हे अर्जुन मैं सुलभ हूँ। भगवान् का यह कथन विशेष महत्व एवं अभिप्राय रखता है क्योंकि इन गुणों के अभाव में ध्यान में सफलता की आशा नहीं की जा सकती।आत्मप्राप्ति के लिए प्रयत्न क्यों किया जाय इस पर कहते हैं --