अनन्यचेताः सततं यो मां स्मरति नित्यशः।
तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः।।8.14।।
।।8.14।।हे पृथानन्दन अनन्यचित्तवाला जो मनुष्य मेरा नित्यनिरन्तर स्मरण करता है उस नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ।
।।8.14।। व्याख्या -- [सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें जो सगुणसाकार परमात्माका वर्णन हुआ था उसीको यहाँ चौदहवें पंद्रहवें और सोलहवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।]अनन्यचेताः -- जिसका चित्त भगवान्को छोड़कर किसी भी भोगभूमिमें किसी भी ऐश्वर्यमें किञ्चिन्मात्र भी नहीं जाता जिसके अन्तःकरणमें भगवान्के सिवाय अन्य किसीका कोई आश्रय नहीं है महत्त्व नहीं है वह पुरुष अनन्य चित्तवाला है। जैसे पतिव्रता स्त्रीका पतिका ही व्रत नियम रहता है। पतिके सिवाय उसके मनमें अन्य किसी भी पुरुषका रागपूर्वक चिन्तन कभी होता ही नहीं। शिष्य गुरुके और सुपुत्र माँबापके परायण रहता है उनका दूसरा कोई इष्ट नहीं होता। इसी तरहसे भक्त भगवान्के ही परायण रहता है।यहाँ अनन्यचेताः पद सगुणउपासना करनेवालेका वाचक है। सगुणउपासनामें विष्णु राम कृष्ण शिव शक्ति गणेश सूर्य आदि जो भगवान्के स्वरूप हैं उनमेंसे जो जिस स्वरूपकी उपासना करता है उसी स्वरूपका चिन्तन हो। परन्तु दूसरे स्वरूपोंको अपने इष्टसे अलग न माने और अपनेआपको भी अपने इष्टके सिवाय और किसीका न माने तो उसका अन्यकी तरफ मन नहीं जाता। तात्पर्य यह हुआ कि मैं केवल भगवान्का हूँ और भगवान् ही मेरे हैं मेरा और कोई नहीं है तथा मैं और किसीका नहीं हूँ ऐसा भाव होनेसे वह अनन्यचेताः हो जाता है।सततं यो मां स्मरति नित्यशः -- सततम् का अर्थ होता है -- निरन्तर अर्थात् जबसे नींद खुले तबसे लेकर गाढ़ नींद आनेतक जो मेरा स्मरण करता है और नित्यशः का अर्थ होता है -- सदा अर्थात् इस बातको जिस दिनसे पकड़ा उस दिनसे लेकर मृत्युतक जो मेरा स्मरण करता है।तस्याहं सुलभः पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिनः -- ऐसे नित्ययुक्त योगीके लिये मैं सुलभ हूँ। यहाँ नित्ययुक्त पद चित्तके द्वारा निरन्तर चिन्तन करनेवालेका वाचक नहीं है प्रत्युत श्रद्धाप्रेमपूर्वक निष्कामभावसे खुद भगवान्में लगनेवालेका वाचक है। जैसे कोई ब्राह्मण अपने ब्राह्मणपनेमें स्थित रहता है कि मैं ब्राह्मण हूँ क्षत्रिय वैश्य आदि नहीं हूँ। वह अपने ब्राह्मणपनेको याद करे या न करे पर उसके ब्राह्मणपनेमें कोई फरक नहीं पड़ता। ऐसे ही मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं -- इस नित्यसम्बन्धमें दृढ़ रहनेवाला ही नित्ययुक्त है। ऐसे नित्ययुक्त योगीको भगवान् सुगमतासे मिल जाते हैं।भगवान्के सिवाय शरीर इन्द्रियाँ प्राण मन बुद्धि अपने नहीं हैं केवल भगवान् ही अपने हैं -- ऐसा दृढ़तासे माननेपर भगवान् सुलभ हो जाते हैं। परन्तु शरीर आदिको अपना मानते रहनेसे भगवान् सुलभ नहीं होते।भगवान्के साथ अपनी भिन्नता तथा संसारके साथ अपनी एकता कभी हुई नहीं होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। इस रीतिसे मनुष्यकी भगवान्के साथ स्वतःस्वाभाविक अभिन्नता है और संसारके साथ स्वतःस्वाभाविक भिन्नता है। परन्तु भूलके कारण मनुष्य अपनेको भगवान्से और भगवान्को अपनेसे अलग मान लेता है तथा अपनेको शरीरका तथा शरीरको अपना मान लेता है। इस विपरीत धारणाके कारण ही यह मनुष्य जन्ममरणके चक्रमें फँसा रहता है। जब यह विपरीत धारणा सर्वथा मिट जाती है तब भगवान् स्वतः सुलभ हो जाते हैं।आठवेंसे तेरहवें श्लोकतक सगुणनिराकार और निर्गुणनिराकारका स्मरण बताया गया। इन दोनों स्मरणोंमें प्राणायामकी मुख्यता रहती है जिसको सिद्ध करना कठिन है। अन्तकालजैसी विकट अवस्थामें भी प्राणायामके बलसे प्राणोंको भ्रुवोंके मध्यमें स्थापित कर सकें अथवा मूर्धा(दशम द्वार) में लगा सकें -- ऐसा प्राणोंपर अधिकार रहनेकी आवश्यकता है। परन्तु भगवान्के स्मरणमें यह कठिनता नहीं है क्योंकि यहाँ प्राणोंका खयाल नहीं है। यहाँ तो भगवान्के साथ साधकका स्वयंका अनादिकालसे स्वतःसिद्ध सम्बन्ध है। इस सम्बन्धमें इन्द्रियाँ मन बुद्धि प्राण आदिकी भी जरूरत नहीं है। अतः इसमें अन्तकालमें प्राण आदिको लगानेकी जरूरत नहीं है। जैसे किसी वस्तुका बीमा होनेपर वस्तुके बिगड़ने टूटनेफूटनेकी चिन्ता नहीं रहती ऐसे ही शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसहित अपनेआपको भगवान्के समर्पित कर देनेपर साधकको अपनी गतिके विषयमें कभी किञ्चिन्मात्र भी चिन्ता नहीं होती। कारण कि यह साधन क्रियाजन्य अथवा अभ्यासजन्य नहीं है। इसमें तो वास्तविक सम्बन्धकी जागृति है। अतः इसमें कठिनताका नामोनिशान नहीं है। इसीसे भगवान्ने अपनेआपको सुलभ बताया है। सम्बन्ध -- अब दो श्लोकोंमें भगवान् अपनी प्राप्तिका माहात्म्य बताते हैं।