अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहुः परमां गतिम्।
यं प्राप्य न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम।।8.21।।
।।8.21।।उसीको अव्यक्त और अक्षर कहा गया है और उसीको परमगति कहा गया है तथा जिसको प्राप्त होनेपर फिर लौटकर नहीं आते वह मेरा परमधाम है।
।।8.21।। व्याख्या -- अव्यक्तोऽक्षर ৷৷. तद्धाम परमं मम -- भगवान्ने सातवें अध्यायके अट्ठाईसवें उन्तीसवें और तीसवें श्लोकमें जिसको माम् कहा है तथा आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें अक्षरं ब्रह्म चौथे श्लोकमें अधियज्ञः पाँचवें और सातवें श्लोकमें माम् आठवें श्लोकमें परमं पुरुषं दिव्यम् नवें श्लोकमें कविं पुराणमनुशासितारम् आदि तेरहवें चौदहवें पन्द्रहवें और सोलहवें श्लोकमें माम् बीसवें श्लोकमें,अव्यक्तः और सनातनः कहा है उन सबकी एकता करते हुए भगवान् कहते हैं कि उसीको अव्यक्त और अक्षर कहते हैं तथा उसीको परमगति अर्थात् सर्वश्रेष्ठ गति कहते हैं और जिसको प्राप्त होनेपर जीव फिर लौटकर नहीं आते वह मेरा परमधाम है अर्थात् मेरा सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है। इस प्रकार जिस प्रापणीय वस्तुको अनेक रूपोंमें कहा गया है उसकी यहाँ एकता की गयी है। ऐसे ही चौदहवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें भी ब्रह्म अविनाशी अमृत शाश्वत धर्म और ऐकान्तिक सुखका आश्रय मैं हूँ ऐसा कहकर भगवान्ने प्रापणीय वस्तुकी एकता की है।लोगोंकी ऐसी धारणा रहती है कि सगुणउपासनाका फल दूसरा है और निर्गुणउपासनाका फल दूसरा है।,इस धारणाको दूर करनेके लिये इस श्लोकमें सबकी एकताका वर्णन किया गया है। मनुष्योंकी रुचि विश्वास और योग्यताके अनुसार उपासनाके भिन्नभिन्न प्रकार होते हैं पर उनके अन्तिम फलमें कोई फरक नहीं होता। सबका प्रापणीय तत्त्व एक ही होता है। जैसे भोजनके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर तृप्तिकी एकता होनेपर भी भोजनके पदार्थोंमें भिन्नता रहती है ऐसे ही परमात्माके प्राप्त न होनेपर अभावकी और प्राप्त होनेपर पूर्णताकी एकता होनेपर भी उपासनाओंमें भिन्नता रहती है। तात्पर्य यह हुआ कि उस परमात्माको चाहे सगुणनिराकार मानकर उपासना करें चाहे निर्गुणनिराकार मानकर उपासना करें और चाहे सगुणसाकार मानकर उपासना करें अन्तमें सबको एक ही परमात्माकी प्राप्ति होती है।ब्रह्मलोक आदि जितने भी लोक हैं वे सभी पुनरावर्ती हैं अर्थात् वहाँ गये हुए प्राणियोंको फिर लौटकर जन्ममरणके चक्करमें आना पड़ता है क्योंकि वे सभी लोक प्रकृतिके राज्यमें हैं और विनाशी हैं। परन्तु भगवद्धाम प्रकृतिसे परे और अविनाशी है। वहाँ गये हुए प्राणियोंको गुणोंके परवश होकर लौटना नहीं पड़ता जन्म लेना नहीं पड़ता। हाँ भगवान् जैसे स्वेच्छासे अवतार लेते हैं ऐसे ही वे भगवान्की इच्छासे लोगोंके उद्धारके लिये कारक पुरुषोंके रूपमें इस भूमण्डलपर आ सकते हैं।