यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः।।8.6।।
।।8.6।।हे कुन्तीपुत्र अर्जुन मनुष्य अन्तकालमें जिसजिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है वह उस (अन्तकालके) भावसे सदा भावित होता हुआ उसउसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उसउस योनिमें ही चला जाता है।
।।8.6।। हे कौन्तेय (यह जीव) अन्तकाल में जिस किसी भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर को त्यागता है वह सदैव उस भाव के चिन्तन के फलस्वरूप उसी भाव को ही प्राप्त होता है।।
।।8.6।। व्याख्या -- यं यं वापि स्मरन्भावं ৷৷. सदा तद्भावभावितः -- भगवान्ने इस नियममें दयासे भरी हुई एक विलक्षण बात बतायी है कि अन्तिम चिन्तनके अनुसार मनुष्यको उसउस योनिकी प्राप्ति होती है जब यह नियम है तो मेरी स्मृतिसे मेरी प्राप्ति होगी ही परम दयालु भगवान्ने अपने लिये अलग कोई विशेष नियम नहीं बताया है प्रत्युत सामान्य नियममें ही अपनेको शामिल कर दिया है। भगवान्की दयाकी यह कितनी विलक्षणता है कि जितने मूल्यमें कुत्तेकी योनि मिले उतने ही मूल्यमें भगवान् मिल जायँ सदा तद्भावभावितः का तात्पर्य है कि अन्तकालमें जिस भावका -- जिस किसीका चिन्तन होता है शरीर छोड़नेके बाद वह जीव जबतक दूसरा शरीर धारण नहीं कर लेता तबतक वह उसी भावसे भावित रहता है अर्थात् अन्तकालका चिन्तन (स्मरण) वैसा ही स्थायी बना रहता है। अन्तकालके उस चिन्तनके अनुसार ही उसका मानसिक शरीर बनता है और मानसिक शरीरके अनुसार ही वह दूसरा शरीर धारण करता है। कारण कि अन्तकालके चिन्तनको बदलनेके लिये वहाँ कोई मौका नहीं है शक्ति नहीं है और बदलनेकी स्वतन्त्रता भी नहीं है तथा नया चिन्तन करनेका कोई अधिकार भी नहीं है। अतः वह उसी चिन्तनको लिये हुए उसीमें तल्लीन रहता है। फिर उसका जिस किसीके साथ कर्मोंका किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध रहता है वायु जल खाद्यपदार्थ आदिके द्वारा वह वहीं पुरुषजातिमें प्रविष्ट होता है। फिर पुरुषजातिसे स्त्रीजातिमें जाकर समयपर जन्म लेता है। जैसे कुत्तेका पालन करनेवाला कोई मनुष्य अन्तसमयमें कुत्तेको याद करते,हुए शरीर छोड़ता है तो उसका मानसिक शरीर कुत्तेका बन जाता है जिससे वह क्रमशः कुत्ता ही बन जाता है अर्थात् कुत्तेकी योनिमें जन्म लेता है। इस तरह अन्तकालमें जिस किसीका स्मरण होता है उसीके अनुसार जन्म लेना पड़ता है। परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि मकानको याद करते हुए शरीर छोड़नेसे मकान बन जायगा धनको याद करते हुए शरीर छोड़नेसे धन बन जायगा आदि। प्रत्युत मकानका चिन्तन होनेसे वह उस मकानमें चूहा छिपकली आदि बन जायगा और धनका चिन्तन होनेसे वह साँप बन जायगा आदि। तात्पर्य यह हुआ कि अन्तकालके चिन्तनका नियम सजीव प्राणियोंके लिये ही है निर्जीव (जड) पदार्थोंके लिये नहीं। अतः जड पदार्थका चिन्तन होनेसे वह उससे सम्बन्धित कोई सजीव प्राणी बन जायगा।मनुष्येतर (पशु पक्षी आदि) प्राणियोंको अपनेअपने कर्मोंके अनुसार ही अन्तकालमें स्मरण होता है और उसीके अनुसार उनका अगला जन्म होता है। इस तरह अन्तकालके स्मरणका कानून सब जगह लागू पड़ता है। परन्तु मनुष्यशरीरमें यह विशेषता है कि उसका अन्तकालका स्मरण कर्मोंके अधीन नहीं है प्रत्युत पुरुषार्थके अधीन है। पुरुषार्थमें मनुष्य सर्वथा स्वतन्त्र है। तभी तो अन्य योनियोंकी अपेक्षा इसकी अधिक महिमा है।मनुष्य इस शरीरमें स्वतन्त्रतापूर्वक जिससे सम्बन्ध जोड़ लेता है उस सम्बन्धके अनुसार ही उसका अन्य योनियोंमें जन्म हो सकता है। परन्तु अन्तकालमें अगर वह भगवान्का स्मरण कर ले तो उसके सारे सम्बन्ध टूट जाते हैं। कारण कि वे सब सम्बन्ध वास्तविक नहीं है प्रत्युत वर्तमानके बनाये हुए कृत्रिम हैं जब कि भगवान्के साथ सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है बनाया हुआ नहीं है। अतः भगवान्की याद आनेसे उसके सारे कृत्रिम सम्बन्ध टूट जाते हैं।विशेष बात(1) दूसरे जन्मकी प्राप्ति अन्तकालमें हुए चिन्तनके अनुसार होती है। जिसका जैसा स्वभाव होता है अन्तकालमें उसे प्रायः वैसा ही चिन्तन होता है। जैसे जिसका कुत्ते पालनेका स्वभाव होता है अन्तकालमें उसे कुत्तेका चिन्तन होता है। वह चिन्तन आकाशवाणीकेन्द्रके द्वारा प्रसारित (विशेष शक्तियुक्त) ध्वनिकी तरह सब जगह फैल जाता है। जैसे आकाशवाणीकेन्द्रके द्वारा प्रसारित ध्वनि रेडियोके द्वारा (किसी विशेष नंबरपर) पकड़में आ जाती है। ऐसे ही अन्तकालीन कुत्तेका चिन्तन सम्बन्धित कुत्तेके द्वारा (जिसके साथ कोई ऋणानुबन्ध अथवा कर्मों आदिका कोईनकोई सम्बन्ध है) पकड़में आ जाता है। फिर जीव सूक्ष्म और कारणशरीरको साथ लिये अन्न जल वायु (श्वास) आदिके द्वारा उस कुत्तेमें प्रविष्ट हो जाता है। फिर कुतियामें प्रविष्ट होकर गर्भ बन जाता है और निश्चित समयपर कुत्तेके शऱीरसे जन्म लेता है।अन्तकालीन चिन्तन और उसके अनुसार गतिको एक दृष्टान्तके द्वारा समझा जा सकता है। एक आदमी फोटो खिंचवाने गया। जब वह फोटो खिंचवाने बैठा तब फोटोग्राफरने उससे कहा कि फोटो खिंचते समय हिलना मत और मुस्कराते रहना। जैसे ही फोटो खिंचनेका समय आया उस आदमीकी नाकपर एक मक्खी बैठ गयी। हाथसे मक्खीको भगाना ठीक न समझकर (कि कहीं फोटोमें वैसा न आ जाय) उसने अपनी नाकको सिकोड़ा। ठीक इसी समय उसकी फोटो खिंच गयी। उस आदमीने फोटोग्राफरसे फोटो माँगी तो उसने कहा कि अभी फोटोको प्रत्यक्षरूपमें आनेमें कुछ समय लगेगा आप अमुक दिन फोटो ले जाना। वह दिन आनेपर फोटोग्राफरने उसे फोटो दिखायी तो उसमें (अपनी नाक सिकोड़े हुए) भद्दे रूपको देखकर वह आदमी बहुत नाराज हुआ कि तुमने फोटो बिगाड़ दी फोटोग्राफरने कहा कि इसमें मेरी क्या गलती है फोटो खिंचते समय आपने जैसी आकृति बनायी थी वैसी ही फोटोमें आ गयी अब तो फोटोमें परिवर्तन नहीं हो सकता। इसी तरह अन्तकालमें मनुष्यका जैसा चिन्तन होगा वैसी ही योनि उसको प्राप्त होगी।फोटो खिंचनेका समय तो पहलेसे ही मालूम रहता है पर मृत्यु कब आ जाय -- इसका हमें कुछ पता नहीं रहता। इसलिये अपने स्वभाव चिन्तनको निर्मल बनाये रखते हुए हर समय सावधान रहना चाहिये और भगवान्का नित्यनिरन्तर स्मरण करते रहना चाहिये (गीता 8। 5 7)।(2) अन्तकालीन गतिके नियममें भगवान्की न्यायकारिता और दयालुता -- ये दोनों ही भरी हुई हैं। साधारण दृष्टिसे न्याय और दया -- दोनों परस्परविरुद्ध मालूम देते हैं। अगर न्याय करेंगे तो दया सिद्ध नहीं होगी और दया करेंगे तो न्याय सिद्ध नहीं होगा। कारण कि न्यायमें ठीकठीक निर्णय होता है छूट नहीं होती और दयामें छूट होती है। परन्तु वास्तवमें यह विरोध सामान्य और क्रूर पुरुषके बनाये हुए न्यायमें ही आ सकता है भगवान्के बनाये हुए न्यायमें नहीं क्योंकि भगवान् परम दयालु और प्राणिमात्रके सुहृद् हैं -- सुहृदं सर्वभूतानाम् (गीता 5। 29)। भगवान्के सभी न्याय कानून दयासे परिपूर्ण होते हैं।मनुष्य अन्तकालमें जैसा स्मरण करता है उसीके अनुसार उसकी गति होती है। अगर कोई कुत्तेका चिन्तन करते हुए मरता है तो क्रमशः कुत्ता ही बन जाता है। यह भगवान्का मनुष्यमात्रके प्रति लागू होनेवाला न्याय हुआ क्योंकि भगवान्ने मनुष्यमात्रको यह स्वतन्त्रता दी है कि वह चाहे मेरा (भगवान्का) स्मरण करे चाहे अन्यका स्मरण करे। इसलिये यह भगवान्का न्याय है। जितने मूल्यमें कुत्तेकी योनि मिले उतने ही मूल्यमें भगवान् मिल जायँ -- यह मनुष्यमात्रके प्रति भगवान्की दया है। अगर मनुष्य भगवान्की इस न्यायकारिता और दयालुताकी तरफ खयाल करे तो उसका भगवान्में आकर्षण हो जायगा। सम्बन्ध -- जब अन्तकालके स्मरणके अनुसार ही गति होती है तो फिर अन्तकालमें भगवान्का स्मरण होनेके लिये मनुष्यको क्या करना चाहिये -- इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।
।।8.6।। भारत के महान तत्त्वचिन्तक ऋषियों द्वारा सम्यक् विचारोपरांत पहुँचे हुए निष्कर्ष को भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ घोषित करते हैं अन्तकाल में जिस किसी भाव का स्मरण करते हुए जीव देह को त्यागता है वह उसी भाव को प्राप्त होता है चाहे वह पशुत्व का भाव हो अथवा देवत्व का।जैसा तुम सोचोगे वैसे ही बनोगे यह एक ऐसा सिद्धांत है जो किसी भी बुद्धिमान पुरुष को किसी दार्शनिक द्वारा दिए गये स्पष्टीकरण के बिना भी स्वत स्पष्ट हो जाता है। कर्मों के प्रेरक विचार हैं और किसी भी एक विशेष क्षण पर मनुष्य के मन में जो विचार आते हैं वे उसके पूर्वार्जित संस्कारों के अनुरूप ही होते हैं। इन संस्कार या वासनाओं का मनुष्य स्वयं निर्माण करता है। स्वाभाविक है जिस पुरुष ने जीवन पर्यन्त अनात्म उपाधियों से तादात्म्य हटाकर मन को आत्मा में स्थिर करने का सतत प्रयत्न किया हो ऐसे साधक पुरुष के मन में अध्यात्म संस्कार दृढ़ हो जाते हैं। इस सतत चिन्तन और संस्कारों के प्रभाव से मरणकाल में उसकी वृत्त सहज ही ध्येय विषयक होगी और तदनुसार ही मरणोपरांत उसकी यात्रा अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर ही होगी। हम यह नहीं सोचें कि अन्तकाल में हम ईश्वर का स्मरण कर लेंगे अन्तकाल में अपनी भावी यात्रा को निर्धारित करने का अवसर नहीं होता क्योंकि पूर्वाभ्यास के अनुसार उसी प्रकार की ही वृत्ति मन में उठती है।