अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्।।8.8।।
।।8.8।।हे पृथानन्दन अभ्यासयोगसे युक्त और अन्यका चिन्तन न करनेवाले चित्तसे परम दिव्य पुरुषका चिन्तन करता हुआ (शरीर छोड़नेवाला मनुष्य) उसीको प्राप्त हो जाता है।
।।8.8।। व्याख्या -- [सातवें अध्यायके अट्ठाईसवें श्लोकमें जो सगुणनिराकार परमात्माका वर्णन हुआ था उसीको यहाँ आठवें नवें और दसवें श्लोकमें विस्तारसे कहा गया है।]अभ्यासयोगयुक्तेन -- इस पदमें अभ्यास और योग -- ये दो शब्द आये हैं। संसारसे मन हटाकर परमात्मामें बारबार मन लगानेका नाम अभ्यास है और समताका नाम योग है -- समत्वं योग उच्यते (गीता 2। 48)। अभ्यासमें मन लगनेसे प्रसन्नता होती है और मन न लगनेसे खिन्नता होती है। यह अभ्यास तो है पर अभ्यासयोग नहीं है। अभ्यासयोग तभी होगा जब प्रसन्नता और खिन्नता -- दोनों ही न हों। अगर चित्तमें प्रसन्नता और खिन्नता हो भी जायँ तो भी उनको महत्त्व न दे केवल अपने लक्ष्यको ही महत्त्व दे। अपने लक्ष्यपर दृढ़ रहना भी योग है। ऐसे योगसे युक्त चित्त हो।चेतसा नान्यगामिना -- चित्त अन्यगामी न हो अर्थात् एक परमात्माके सिवाय दूसरा कोई लक्ष्य न हो।परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् -- ऐसे चित्तसे परम दिव्य पुरुषका अर्थात् सगुणनिराकार परमात्माका चिन्तन करते हुए शरीर छोड़नेवाला मनुष्य उसी परमात्माको प्राप्त हो जाता है। सम्बन्ध -- अब भगवान् ध्यान करनेके लिये अत्यन्त उपयोगी सगुणनिराकार परमात्माके स्वरूपका वर्णन करते हैं।