अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।।
।।9.11।।मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप परमभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।
।।9.11।। व्याख्या -- परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् -- जिसकी सत्तास्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंकी रचना करती है? चरअचर? स्थावरजङ्गम प्राणियोंको पैदा करती है जो प्रकृति और उसके कार्यमात्रका संचालक? प्रवर्तक? शासक और संरक्षक है जिसकी इच्छाके बिना वृक्षका पत्ता भी नहीं हिलता प्राणी अपने कर्मोंके अनुसार जिनजिन लोकोंमें जाते हैं? उनउन लोकोंमें प्राणियोंपर शासन करनेवाले जितने देवता हैं? उनका भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सबको जाननेवाला है -- ऐसा वह मेरा भूतमहेश्वररूप सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है।परं भावम् कहनेका तात्पर्य है कि मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभावको अर्थात् करनेमें? न करनेमें और उलटफेर करनेमें जो सर्वथा स्वतन्त्र है जो कर्म? क्लेश? विपाक आदि किसी भी विकारसे कभी आबद्ध नहीं है जो क्षरसे अतीत और अक्षरसे भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रोंमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है (गीता 15। 18) -- ऐसे मेरे परमभावको मूढ़लोग नहीं जानते? इसीसे वे मेरेको मनुष्यजैसा मानकर मेरी अविज्ञा करते हैं।मानुषी तनुमाश्रितम् -- भगवान्को मनुष्य मानना क्या है जैसे साधारण मनुष्य अपनेको शरीर? कुटुम्बपरिवार? धनसम्पत्ति? पदअधिकार आदिके आश्रित मानते हैं अर्थात् शरीर? कुटुम्ब आदिकी इज्जतप्रतिष्ठाको अपनी इज्जतप्रतिष्ठा मानते हैं उन पदार्थोंके मिलनेसे अपनेको बड़ा मानते हैं और उनके न मिलनेसे अपनेको छोटा मानते हैं और जैसे साधारण प्राणी पहले प्रकट नहीं थे? बीचमें प्रकट हो जाते हैं तथा अन्तमें पुनः अप्रकट हो जाते हैं (गीता 2। 28)? ऐसे ही वे मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं। वे मेरेको मनुष्यशरीरके परवश मानते हैं अर्थात् जैसे साधारण मनुष्य होते हैं? ऐसे ही साधारण मनुष्य कृष्ण हैं -- ऐसा मानते हैं। ,भगवान् शरीरके आश्रित नहीं होते। शरीरके आश्रित तो वे ही होते हैं? जिनको कर्मफलभोगके लिये पूर्वकृत कर्मोंके अनुसार शरीर मिलता है। परन्तु भगवान्का मानवीय शरीर कर्मजन्य नहीं होता। वे अपनी इच्छासे ही प्रकट होते हैं -- इच्छयाऽऽत्तवपुषः (श्रीमद्भा0 10। 33। 35) और स्वतन्त्रतापूर्वक मत्स्य? कच्छप? वराह आदि अवतार लेते हैं। इसलिये उनको न तो कर्मबन्धन होता है और न वे शरीरके आश्रित होते हैं? प्रत्युत शरीर उनके आश्रित होता है -- प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवामि (गीता 4। 6) अर्थात् वे प्रकृतिको अधिकृत करके प्रकट होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य प्राणी तो प्रकृतिके परवश होकर जन्म लेते हैं तथा प्रकृतिके आश्रित होकर ही कर्म करते हैं? पर भगवान् स्वेच्छासे? स्वतन्त्रतासे अवतार लेते हैं और प्रकृति भी उनकी अध्यक्षतामें काम करती है।मूढ़लोग मेरे अवतारके तत्त्वको न जानकर मेरेको मनुष्यशरीरके आश्रित (शरण) मानते हैं अर्थात् उनको होना तो चाहिये मेरे शरण? पर मानते हैं मेरेको मनुष्यशरीरके शरण तो वे मेरे शरण कैसे होंगे हो ही नहीं सकते। यही बात भगवान्ने सातवें अध्यायमें कही है कि बुद्धिहीन लोग मेरे अजअविनाशी परमभावको न जानते हुए मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं (7। 24 -- 25)। इसलिये वे मेरे शरण न होकर देवताओंके शरण होते हैं (7। 20)।अवजानन्ति मां (टिप्पणी प0 498) मूढाः -- जिसकी अध्यक्षतामें प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंको उत्पन्न और लीन करती है? जिसकी सत्तास्फूर्तिसे संसारमें सब कुछ हो रहा है और जिसने कृपा करके अपनी प्राप्तिके लिये मनुष्यशरीर दिया है -- ऐसे मुझ सत्यतत्त्वकी मूढ़लोग अवहेलना करते हैं। वे मेरेको न मानकर उत्पत्तिविनाशशील पदार्थोंको ही सत्य मानकर उनका संग्रह करने और भोग भोगनेमें ही लगे रहते हैं -- यही मेरी अवज्ञा? अवहेलना करना है। सम्बन्ध -- अब भगवान् आगेके श्लोकमें अपनी अवज्ञाका फल बताते हैं।