महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः।
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम्।।9.13।।
।।9.13।।परन्तु हे पृथानन्दन दैवी प्रकृतिके आश्रित महात्मालोग मेरेको सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि और अविनाशी समझकर अनन्यमनसे मेरा भजन करते हैं।
।।9.13।। हे पार्थ परन्तु दैवी प्रकृति के आश्रित महात्मा पुरुष मुझे समस्त भूतों का आदिकारण और अव्ययस्वरूप जानकर अनन्यमन से युक्त होकर मुझे भजते हैं।।
।।9.13।। व्याख्या -- महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिताः -- पूर्वश्लोकमें जिन आसुरी? राक्षसी और मोहिनी स्वभावके आश्रित मूढ़लोगोंका वर्णन किया था? उनसे दैवीसम्पत्तिके आश्रित महात्माओंकी विलक्षणता बतानेके लिये ही यहाँ तु पद आया है।दैवीं प्रकृतिम् -- अर्थात् दैवी सम्पत्तिमें देव नाम परमात्माका है और परमात्माकी सम्पत्ति दैवी सम्पत्ति कहलाती है। परमात्मा सत् हैं अतः परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले जितने गुण और आचरण हैं? उनके साथ सत् शब्द लगता है अर्थात् वे सद्गुण और सदाचार कहलाते हैं। जितने भी सद्गुणसदाचार हैं? वे सबकेसब भगवत्स्वरूप हैं अर्थात् वे सभी भगवान्के ही स्वभाव हैं और स्वभाव होनेसे ही उनको प्रकृति कहा गया है। इसलिये दैवी प्रकृतिका आश्रय लेना भी भगवान्का ही आश्रय लेना है।दैवी सम्पत्तिके जितने भी गुण हैं (गीता 16। 1 -- 3)? वे सभी सामान्य गुण हैं और स्वतःसिद्ध हैं अर्थात् इन गुणोंपर सभी मनुष्योंका पूरा अधिकार है। अब कोई इन गुणोंका आश्रय ले या न ले -- यह तो मनुष्योंपर निर्भर है परन्तु जो इनका आश्रय लेकर परमात्माकी तरफ चलते हैं? वे अपना कल्याण कर लेते हैं।एक खोज होती है और एक उत्पत्ति होती है। खोज नित्यतत्त्वकी होती है? जो कि पहलेसे ही है। जिस वस्तुकी उत्पत्ति होती है? वह नष्ट होनेवाली होती है। दैवी सम्पत्तिके जितने सद्गुणसदाचार हैं? उनको भगवान्के और भगवत्स्वरूप समझकर धारण करना? उनका आश्रय लेना खोज है। कारण कि ये किसीके उत्पन्न किये हुए नहीं है अर्थात् ये किसीकी व्यक्तिगत उपज? बपौती नहीं हैं। जो इन गुणोंको अपने पुरुषार्थके द्वारा उपार्जित मानता है अर्थात् स्वाभाविक न मानकर अपने बनाये हुए मानता है? उसको इन गुणोंका अभिमान होता है। यह अभिमान ही वास्तवमें प्राणीकी व्यक्तिगत उपज है? जो नष्ट होनेवाली है।जब मनुष्य दैवी गुणोंको अपने बलके द्वारा उपार्जित मानता है और मैं सत्य बोलता हूँ? दूसरे सत्य नहीं बोलते -- इस तरह दूसरोंकी अपेक्षा अपनेमें विशेषता मानता है? तब उसमें इन गुणोंका अभिमान पैदा हो जाता है। परन्तु इन गुणोंको केवल भगवान्के ही गुण माननेसे और भगवत्स्वरूप समझकर इनका आश्रय लेनेसे अभिमान पैदा नहीं होता।दैवी सम्पत्तिके अधूरेपनमें ही अभिमान पैदा होता है। दैवी सम्पत्तिके (अपनेमें) पूर्ण होनेपर अभिमान पैदा नहीं होता। जैसे? किसीको मैं सत्यवादी हूँ -- इसका अभिमान होता है? तो उसमें सत्यभाषणके साथसाथ आंशिक असत्यभाषण भी है। अगर सर्वथा सत्यभाषण हो तो मैं सत्य बोलनेवाला हूँ -- इसका अभिमान नहीं हो सकता? प्रत्युत उसका यह भाव रहेगा कि मैं सत्यवादी हूँ तो मैं असत्य कैसे बोल सकता हूँ मनुष्यमें दैवी सम्पत्ति तभी प्रकट होती है? जब उसका उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्तिका हो जाता है। भगवत्प्राप्तिके लिये दैवी गुणोंका आश्रय लेकर ही वह परमात्माकी तरफ बढ़ सकता है। दैवी गुणोंका आश्रय लेनेसे उसमें अभिमान नहीं आता प्रत्युत नम्रता? सरलता? निरभिमानता आती है और साधनमें नित्य नया उत्साह आता है।जो मनुष्य भगवान्से विमुख होकर उत्पत्तिविनाशशील भोगों और उनके संग्रहमें लगे हुए हैं? वे अल्पात्मा हैं अर्थात् मूढ़ हैं परन्तु जिन्होंने भगवान्का आश्रय लिया है? जिनकी मूढ़ता चली गयी है और जिन्होंने केवल प्रभुके साथ अपना सम्बन्ध जोड़ लिया है? तो महान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेसे? सत्यतत्त्वकी तरफ ही लक्ष्य होनेसे वे महात्मा हैं।भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् -- मैं सम्पूर्ण प्राणियोंका आदि हूँ और अविनाशी हूँ। तात्पर्य है कि संसार उत्पन्न नहीं हुआ था? उस समयमें मैं था और सब संसार लीन हो जायगा उस समयमें भी मैं रहूँगा -- ऐसा मैं अनादिअनन्त हूँ। अनन्त ब्रह्माण्ड? अनन्त सृष्टियाँ? अनन्त स्थावरजङ्गम प्राणी मेरेसे उत्पन्न होते हैं? मेरेमें ही स्थित रहते हैं? मेरे द्वारा ही पालित होते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं परन्तु मैं ज्योंकात्यों निर्विकार रहता हूँ अर्थात् मेरेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती।सांसारिक वस्तुओंका यह नियम है कि किसी वस्तुसे कोई चीज उत्पन्न होती है? तो उस वस्तुमें कमी आ जाती है जैसे -- मिट्टीसे घड़े पैदा होनेपर मिट्टीमें कमी आ जाती है सोनेसे गहने पैदा होनेपर सोनेमें कमी आ जाती है? आदि। परन्तु मेरेसे अनन्त सृष्टियाँ पैदा होनेपर भी मेरेमें किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती क्योंकि मैं सबका अव्यय बीज हूँ (गीता 9। 18)। जिन मनुष्योंने मेरेको अनादि और अव्यय जान लिया है? वे अनन्य मनसे मेरा ही भजन करते हैं।जो जिसके महत्त्वको जितना अधिक जानता है? वह उतना ही अधिक उसमें लग जाता है। जिन्होंने भगवान्को सर्वोपरि जान लिया है? वे भगवान्में ही लग जाते हैं। उनकी पहचानके लिये यहाँ अनन्यमनसः पद आया है। उनका मन भगवान्में ही लीन हो जानेसे उनकी वृत्ति इस लोकके और परलोकके भोगोंकी तरफ कभी नहीं जाती। भोगोंमें उनकी महत्त्वबुद्धि नहीं रहती।अनन्य मनवाला होनेका तात्पर्य है कि उनके मनमें अन्यका आश्रय नहीं है? सहारा नहीं है? भरोसा नहीं है? अन्य किसीमें आकर्षण नहीं है और केवल भगवान्में ही अपनापन है। इस प्रकार अनन्य मनसे वे भगवान्का भजन करते हैं।भगवान्का भजन किसी तरहसे किया जाय? उससे लाभ ही होता है। परन्तु भगवान्के साथ अनन्य होकर मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं ऐसा सम्बन्ध जोड़कर थोड़ा भी भजन किया जाय तो उससे बहुत लाभ होता है। कारण कि अपनेपनका सम्बन्ध (भावरूप होनेसे) नित्यनिरन्तर रहता है? जब कि क्रियाका सम्बन्ध नित्यनिरन्तर नहीं रहता? क्रिया छूटते ही उसका सम्बन्ध छूट जाता है। इसलिये सबके आदि और अविनाशी परमात्मा मेरे हैं और मैं उनका हूँ -- ऐसा जिसने मान लिया है? वह अपनेआपको भगवान्के चरणोंमें अर्पित करके शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धिसे जो कुछ भी शारीरिक? व्यावहारिक? लौकिक? वैदिक? पारमार्थिक कार्य करता है। वह सब भजनरूपसे प्रभुकी प्रसन्नताके लिये ही होता है -- यही उसका अनन्य मनसे भजन करना है। इसका वर्णन गीतामें जगहजगह हुआ है (जैसे? 8। 14 9। 22 12। 6 14। 26)। सम्बन्ध -- पीछेके श्लोकमें भजन करनेवालोंका वर्णन करके अब भगवान् आगेके श्लोकमें उनके भजनका प्रकार बताते हैं।
।।9.13।। किसी तर्क को समझाने के लिए प्राय भगवान् श्रीकृष्ण दो परस्पर विरोधी तथ्यों को एक स्थान पर ही बताने की शैली अपनाते हैं? जिससे एक दूसरे की पृष्ठभूमि में दोनों का स्पष्ट ज्ञान हो सके। प्रथम श्लोक में उन मोहित पुरुषों का वर्णन है? जो अपनी निम्न स्तर की प्रवृत्तियों का अनुकरण करते हैं। दूसरे श्लोक में उन महात्मा पुरुषों का चित्रण किया गया है? जो समस्त दिव्य गुणों से सम्पन्न होते हैं। झूठी आशाओं से मोहित होकर उनकी पूर्ति के लिए व्यर्थ के निकृष्ट कर्मों से थके हुए मूढ़ लोग विचार करने में सर्वथा भ्रमित और विचलित हो जाते हैं। ऐसे लोग जगत् की ओर देखने के दैवी दृष्टिकोण को खोकर अपने कर्मों में राक्षसी बन जाते हैं? और समस्त कालों में अपने कामुक और आसुरी स्वभाव का ही प्रदर्शन करते हैं। रावण की परम्परा वाले इन लोगों को ही यहाँ राक्षस और असुर कहा गया है।वर्तमान में किये गये कर्म मनुष्य के मन में अपनी वासनाएं उत्पन्न करते हैं? जिसके अनुरूप ही उस मनुष्य की इच्छाएं और विचार होते हैं। वृथा और निषिद्ध कर्मों से नकारात्मक वासनाओं की ही वृद्धि होती है जो मन्दबुद्धि पुरुष की बुद्धि की जड़ता को और अधिक स्थूल कर देती हैं। ज्ञानी की दृष्टि में? मिथ्यात्व और अशुद्धता की इस खाई में रहने वाला मनुष्य एक दैत्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता।राक्षसी संस्कृति के इन लोगों के विपरीत? दैवी स्वभाव के महात्मा पुरुष होते हैं। दूसरा श्लोक हमें दर्शाता है कि इन ज्ञानी पुरुषों का अनुभव और कर्म किस प्रकार का होता है। इन दोनों के दर्शाये अन्तर से आत्मोन्नति के साधक को चाहिए कि वे कर्मों में सही भावना और जगत् की ओर देखने के सही दृष्टिकोण को अपनायें।दैवी गुणों से सम्पन्न महात्मा पुरुष अनन्यभाव से मुझ अनन्त अमृतस्वरूप का ही साक्षात्कार चाहते हैं। वे जानते हैं कि मैं भूतमात्र का आदिकारण हूँ जो लोग मिट्टी को जानते हैं? वे मिट्टी के बने सभी घटों में मिट्टी को देख पाते हैं। इसी प्रकार? हिन्दू संस्कृति ऋ़े वे सच्चे सुपुत्र जो इस चैतन्य आत्मा को जगत् के आदिकारण के रूप में जानते हैं? समाज के अन्य व्यक्तियों को अपने समान ही देखते और उनका आदर करते हैं। सम्पूर्ण विश्व में इससे अधिक महान् और प्रभावशाली समाजवाद न कभी पढ़ाया गया है और न प्रचारित ही किया गया है। यदि वर्तमान पीढ़ी इस आध्यात्मिक समाजवाद को समझ नहीं पाती या पसंद नहीं करती हैं? जो कि वास्तव में विश्व की समस्त व्याधियों और बुराइयों की? एकमात्र रामबाण औषधि है? तो उसका कारण पूर्व के श्लोक में ही वर्णित है कि? लोग आसुरी और राक्षसी प्रकृति के वशात् मोहित हुए हैं।महात्मा पुरुष अनन्य भाव से आपको किस प्रकार भजते हैं
9.13 O son of Prtha, the noble ones, being possessed of divine nature, surely adore Me with single-mindedness, knowing Me as the immutable source of all objects.
9.13 But the great souls, O Arjuna, partaking of My divine nature, worship Me with a single mind (with the mind devoted to nothing else), knowing Me as the imperishable source of beings.
9.13. O son of Prtha ! The great-souledmen, however, taking hold of the divine nature and having nothing else in their mind, adore Me by viewing Me as the imperishable prime cuase of beings.
9.13 महात्मानः great souls? तु but? माम् Me? पार्थ O Partha? दैवीम् divine? प्रकृतिम् nature? आश्रिताः refuged (in)? भजन्ति worship? अनन्यमनसः with a mind devoted to nothing else? ज्ञात्वा having known? भूतादिम् the source of beings? अव्ययम् imperishable.Commentary Jnatva Bhutadimavyayam There is another interpretation -- knowing Me to be the source or the origin of beings and imperishable.Daivim Prakritim Divine or Sattvic nature. Those who are endowed with divine nature? and who possess selfrestraint? mercy? faith? purity? etc.Mahatmanah Or? the highsouled ones are those whose pure minds have been made by Me? as My special abode. I dwell in the pure minds of the highsouled ones. They have sincere devotion to Me. Those who possess divine Sattvic nature? who are endowed with a pure mind? and who have knowledge of the Self are Mahatmas.Bhutas All living beings? as well as the five elements.
9.13 On the other hand, O son of Prtha, those mahat-manah, noble ones-who are not small-mined, who are imbued with faith, and who have set out on the path of Liberation, which is characerized by devotion to God; being asritah, possessed of; daivim, divine; prakrtim, nature-distinguished by mental and physical control, kindness, faith, etc.; tu, surely; bhajante, adore; mam, Me, God; ananya-manasah, with single-mindedness; jnatva, knowing Me; as the avyayam, immutable; bhutadim, source of all objects, of space etc. (i.e. th five elements) as well as of living beings. How?
9.13 See Comment under 9.15
9.13 Those who, through their multitude of good acts, have taken refuge in Me and have been thery released from the bondage of evil - they understand My divine nature. They are high-souled. Knowing Me to be the immutable source of all beings, namely, as the Lord whose name, acts and nature are beyond thought and speech, and who has descended in a human form out of supreme compassion to rescue the good, - they worship Me with un unswerving mind. As I am extremely dear to them, without worshipping Me they are unable to find support for their mind, self and external organs. Thus they become devoted to Me as their sole object.
But those men who attain greatness by unpredictable mercy of my devotees attain the nature of the devas (daivim prakrtim) (rather than asuras), and worship me in my human-like form. Their minds do not dwell on such things as desires for jnana or karma (ananya manasah). By knowledge of my powers (maya tatam idam sarvam), they know that I am the cause of all the unlimited bodies starting with Brahma (bhutadim). They know that I am indestructible (avayayam), since I have a body of sac cid ananda. For understanding that I am worthy of worship, they should have at least this much knowledge of me. Knowing this (jnatva), they worship me. It should be understood that this bhakti, which is not dependent on jnana and karma which take tvam or the self as God, which is exclusively centered on the Lord, is the best of all, the king of knowledge, the king of secrets.
The question who is it then that worships Lord Krishna is being answered here. It is the mahatmanas or the great souls who follow the divine nature and are not subdued by lust and desire and therefore their minds are not devoted to anything other than the immutable and eternal Supreme Lord Krishna, understanding that He alone is the cause of all beings and all creation. The qualities of such great souls is given later in chapter 16 verse one.
But those whose self acquired merits have led them to approach the Supreme Lord as their sole sanctuary whose chains of sins have been dissolved and destroyed and who are born of the divine nature are the mahatmanas or of noble souls. The mahatmanas know Lord Krishna as the infinite source of all beings and cause of all creation whose lilas or divine pastimes are transcendental material existence and beyond the scope of mundane comprehension. The Supreme Lord Krishna incarnates His avatars or immortal incarnations out of His causeless compassion for all creation to protect the righteous. Knowing the Supreme Lord as such the great souls with minds exclusively devoted worship and adore Him inceesantly. Exclusive devotion of the mind denotes that exultant state of consciousness where one is imbued with ecstatic waves of love for the Supreme Lord where if without such a mood and feeling of worshipful devotion not only in the mind and by the external senses but from the atma as well then life would become without support and untenable. Such great souls worship the Supreme Lord with such intense one pointed focus that this worship alone constitutes their sole aim and complete goal.
But those whose self acquired merits have led them to approach the Supreme Lord as their sole sanctuary whose chains of sins have been dissolved and destroyed and who are born of the divine nature are the mahatmanas or of noble souls. The mahatmanas know Lord Krishna as the infinite source of all beings and cause of all creation whose lilas or divine pastimes are transcendental material existence and beyond the scope of mundane comprehension. The Supreme Lord Krishna incarnates His avatars or immortal incarnations out of His causeless compassion for all creation to protect the righteous. Knowing the Supreme Lord as such the great souls with minds exclusively devoted worship and adore Him inceesantly. Exclusive devotion of the mind denotes that exultant state of consciousness where one is imbued with ecstatic waves of love for the Supreme Lord where if without such a mood and feeling of worshipful devotion not only in the mind and by the external senses but from the atma as well then life would become without support and untenable. Such great souls worship the Supreme Lord with such intense one pointed focus that this worship alone constitutes their sole aim and complete goal.
Mahaatmaanastu maam paartha daiveem prakritimaashritaah; Bhajantyananyamanaso jnaatwaa bhootaadimavyayam.
mahā-ātmānaḥ—the great souls; tu—but; mām—Me; pārtha—Arjun, the son of Pritha; daivīm prakṛitim—divine energy; āśhritāḥ—take shelter of; bhajanti—engage in devotion; ananya-manasaḥ—with mind fixed exclusively; jñātvā—knowing; bhūta—all creation; ādim—the origin; avyayam—imperishable