सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते।।9.14।।
।।9.14।।नित्य(मेरेमें) युक्त मनुष्य दृढ़व्रती होकर लगनपूर्वक साधनमें लगे हुए और भक्तिपूर्वक कीर्तन,करते हुए तथा नमस्कार करते हुये निरन्तर मेरी उपासना करते हैं।
।।9.14।। व्याख्या -- नित्ययुक्ताः -- मात्र मनुष्य भगवान्में ही नित्ययुक्त रह सकते हैं? हरदम लगे रह सकते हैं? सांसारिक भोगों और संग्रहमें नहीं। कारण कि समयसमयपर भोगोंसे भी ग्लानि होती है और संग्रहसे भी उपरति होती है। परन्तु भगवान्की प्राप्तिका? भगवान्की तरफ चलनेका जो एक उद्देश्य बनता है? एक दृढ़ विचार होता है? उसमें कभी भी फरक नहीं पड़ता।भगवान्का अंश होनेसे जीवका भगवान्के साथ अखण्ड सम्बन्ध है। मनुष्य जबतक उस सम्बन्धको नहीं पहचानता? तभीतक वह भगवान्से विमुख रहता है? अपनेको भगवान्से अलग मानता है। परन्तु जब वह भगवान्के साथ अपने नित्यसम्बन्धको पहचान लेता है? तो फिर वह भगवान्के सम्मुख हो जाता है? भगवान्से अलग नहीं रह सकता और उसको भगवान्के सम्बन्धकी विस्मृति भी नहीं होती -- यही उसका नित्ययुक्त रहना है।मनुष्यका भगवान्के साथ मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं -- ऐसा जो स्वयंका सम्बन्ध है? वह जाग्रत्? स्वप्न और सुषुप्ति -- इन अवस्थाओंमें? एकान्तमें भजनध्यान करते हुए अथवा सेवारूपसे संसारके सब काम करते हुए भी कभी खण्डित नहीं होता? अटलरूपसे सदा ही बना रहता है। जैसे मनुष्य अपनेको जिस माँबापका मान लेता है? सब काम करते हुए भी उसका मैं अमुकका लड़का हूँ यह भाव सदा बना रहता है। उसको याद रहे चाहे न रहे? वह याद करे चाहे न करे? पर यह भाव हरदम रहता है क्योंकि,मैं अमुकका लड़का हूँ -- यह भाव उसके मैं -- पनमें बैठ गया है ऐसे ही जो अनादि? अविनाशी? सर्वोपरि भगवान् ही मेरे हैं और मैं उनका ही हूँ -- इस वास्तविकताको जान लेता है? मान लेता है? तो यह भाव हरदम बना रहता है। इस प्रकार भगवान्के साथ अपना वास्तविक सम्बन्ध मान लेना ही नित्ययुक्त होना है।दृढव्रताः -- जो सांसारिक भोग और संग्रहमें लगे हुए हैं? वे जो पारमार्थिक निश्चय करते हैं? वह निश्चय दृढ़ नहीं होता (गीता 2। 44)। परन्तु जिन्होंने भीतरसे ही अपने मैंपनको बदल दिया है कि हम भगवान्के हैं और भगवान् हमारे हैं? उनका यह दृढ़ निश्चय हो जाता है कि हम संसारके नहीं हैं और संसार हमारा नहीं है अतः हमें सांसारिक भोग और संग्रहकी तरफ कभी जाना ही नहीं है? प्रत्युत भगवान्के नाते केवल सेवा कर देनी है। इस प्रकार उनका निश्चय बहुत दृढ़ होता है। अपने निश्चयसे वे कभी विचलित नहीं होते। कारण कि उनका उद्देश्य भगवान्का है और वे स्वयं भी भगवान्के अंश हैं। उनके निश्चयमें अदृढ़ता आनेका प्रश्न ही नहीं है। अदृढ़ता तो सांसारिक निश्चयमें आती है? जो कि टिकनेवाला नहीं है।यतन्तश्च -- जैसे सांसारिक मनुष्य कुटुम्बका पालन करते हैं तो ममतापूर्वक करते हैं? रुपये कमाते हैं तो लोभपूर्वक कमाते हैं? ऐसे ही भगवान्के भक्त भगवत्प्राप्तिके लिये यत्न (साधन) करते हैं तो लगनपूर्वक ही करते हैं। उनके प्रयत्न सांसारिक दीखते हुए भी वास्तवमें सांसारिक नहीं होते क्योंकि उनके प्रयत्नमात्रका उद्देश्य भगवान् ही होते हैं।भक्त्या कीर्तयन्तो माम् -- वे भक्त प्रेमपूर्वक कभी भगवान्के नामका कीर्तन करते हैं? कभी नामजप करते हैं? कभी पाठ करते हैं? कभी नित्यकर्म करते हैं? कभी भगवत्सम्बन्धी बातें सुनाते हैं आदिआदि। वे जो कुछ वाणीसम्बन्धी क्रियाएँ करते हैं? वह सब भगवान्का स्तोत्र ही होता है -- स्तोत्राणि सर्वा गिरः।नमस्यन्तश्च -- वे भक्तिपूर्वक भगवान्को नमस्कार करते हैं। उनमें सद्गुणसदाचार आते हैं? उनके द्वारा भगवान्के अनुकूल कोई चेष्टा होती है? तो वे इस भावसे भगवान्को नमस्कार करते हैं कि हे नाथ यह सब आपकी कृपासे ही हो रहा है। आपकी तरफ इतनी अभिरुचि और तत्परता मेरे उद्योगसे नहीं हुई है। अतः इन सद्गुणसदाचारोंको? इस साधनको आपकी कृपासे हुआ समझकर मैं तो आपको केवल नमस्कार ही कर,सकता हूँ।सततं मां उपासते -- इस प्रकार मेरे अनन्यभक्त निरन्तर मेरी उपासना करते हैं। निरन्तर उपासना करनेका तात्पर्य है कि वे कीर्तननमस्कार आदिके सिवाय जो भी खानापीना? सोनाजगना तथा व्यापार करना? खेती करना आदि साधारण क्रियाएँ करते हैं? उन सबको भी मेरे लिये ही करते हैं। उनकी सम्पूर्ण लौकिक? पारमार्थिक क्रियाएँ केवल मेरे उद्देश्यसे? मेरी प्रसन्नताके लिये ही होती हैं। सम्बन्ध -- अनित्य संसारसे सम्बन्धविच्छेद करके नित्यतत्त्वकी तरफ चलनेवाले साधक कई प्रकारके होते हैं। उनमेंसे भक्तिके साधकोंका वर्णन पीछेके दो श्लोकोंमें कर दिया? अब दूसरे साधकोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।