पिताऽहमस्य जगतो माता धाता पितामहः।
वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक् साम यजुरेव च।।9.17।।
।।9.17।।(टिप्पणी प0 503) क्रतु मैं हूँ? यज्ञ मैं हूँ? स्वधा मैं हूँ? औषध मैं हूँ? मन्त्र मैं हूँ? घृत मैं हूँ? अग्नि मैं हूँ और हवनरूप क्रिया भी मैं हूँ। जाननेयोग्य? पवित्र? ओंकार? ऋग्वेद? सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ। इस सम्पूर्ण जगत्का पिता? धाता? माता? पितामह? गति? भर्ता? प्रभु? साक्षी? निवास? आश्रय? सुहृद्? उत्पत्ति? प्रलय? स्थान? निधान तथा अविनाशी बीज भी मैं ही हूँ।
।।9.17।। मैं ही इस जगत् का पिता? माता? धाता (धारण करने वाला) और पितामह हूँमैं वेद्य (जानने योग्य) वस्तु हूँ? पवित्र? ओंकार? ऋग्वेद? सामवेद और यजुर्वेद भी मैं ही हूँ।।
।।9.17।। व्याख्या -- [अपनी रुचि? श्रद्धाविश्वासके अनुसार किसीको भी साक्षात् परमात्माका स्वरूप मानकर उसके साथ सम्बन्ध जोड़ा जाय तो वास्तवमें यह सम्बन्ध सत्के साथ ही है। केवल अपने मनबुद्धिमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह न हो। जैसे ज्ञानके द्वारा मनुष्य सब देश? काल? वस्तु? व्यक्ति आदिमें एक परमात्मतत्त्वको ही जानता है। परमात्माके सिवाय दूसरी किसी वस्तु? व्यक्ति? घटना? परिस्थिति? क्रिया,आदिकी किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है -- इसमें उसको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होता। ऐसे ही भगवान् विराट्रूपसे अनेक रूपोंमें प्रकट हो रहे हैं अतः सब कुछ भगवान्हीभगवान् हैं -- इसमें अपनेको किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं होना चाहिये। कारण कि यह सब भगवान् कैसे हो सकते हैं यह संदेह साधकको वास्तविक तत्त्वसे? मुक्तिसे वञ्चित कर देता है और महान् आफतमें फँसा देता है। अतः यह बात दृढ़तासे मान लें कि कार्यकारणरूपे स्थूलसूक्ष्मरूप जो कुछ देखने? सुनने? समझने और माननेमें आता है? वह सब केवल भगवान् ही हैं। इसी कार्यकारणरूपसे भगवान्की सर्वव्यापकताका वर्णन सोलहवेंसे उन्नीसवें श्लोकतक किया गया है।]अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् -- जो वैदिक रीतिसे किया जाय? वह क्रतु होता है। वह क्रतु मैं ही हूँ। जो स्मार्त (पौराणिक) रीतिसे किया जाय? वह यज्ञ होता है? जिसको पञ्चमहायज्ञ आदि स्मार्तकर्म कहते हैं। वह यज्ञ मैं हूँ। पितरोंके लिये जो अन्न अर्पण किया जाता है? उसको स्वधा कहते हैं। वह स्वधा मैं ही हूँ। उन क्रतु? यज्ञ और स्वधाके लिये आवश्यक जो शाकल्य है अर्थात् वनस्पतियाँ हैं? बूटियाँ हैं? तिल? जौ? छुहारा आदि औषध है? वह औषध भी मैं ही हूँ।मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् -- जिस मन्त्रसे क्रतु? यज्ञ और स्वधा किये जाते हैं? वह मन्त्र भी मैं ही हूँ। यज्ञ आदिके लिये गोघृत आवश्यक होता है? वह घृत भी मैं ही हूँ। जिस आहवनीय अग्निमें होम किया जाता है? वह अग्नि भी मैं ही हूँ और हवन करनेकी क्रिया भी मैं ही हूँ।वेद्यं पवित्रमोंकार ऋक्साम यजुरेव च -- वेदोंकी बतायी हुई जो विधि है? उसको ठीक तरहसे जानना,वेद्य है। तात्पर्य है कि कामनापूर्तिके लिये अथवा कामनानिवृत्तिके लिये वैदिक और शास्त्रीय जो कुछ क्रतु? यज्ञ आदिका अनुष्ठान किया जाता है? वह विधिविधानसहित साङ्गोपाङ्ग होना चाहिये। अतः विधिविधानको जाननेयोग्य सब बातें वेद्य कहलाती हैं। वह वेद्य मेरा स्वरूप है।यज्ञ? दान और तप -- ये तीनों निष्काम पुरुषोंको महान् पवित्र करनेवाले हैं -- यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम् (18। 5)। इनमें निष्कामभावसे जो हव्य आदि वस्तुएँ खर्च होती हैं? वे भी पवित्र हो जाती हैं और इनमें निष्कामभावसे जो क्रिया की जाती है? वह भी पवित्र हो जाती है। यह पवित्रता मेरा स्वरूप है।क्रतु? यज्ञ आदिका अनुष्ठान करनेके लिये जिन ऋचाओंका उच्चारण किया है? उन सबमें सबसे पहले का ही उच्चारण किया जाता है। इसका उच्चारण करनेसे ही ऋचाएँ अभीष्ट फल देती हैं। वेदवादियोंकी यज्ञ? दान? तप आदि सभी क्रियाएँ का उच्चारण करके ही आरम्भ होती हैं (गीता 17। 24)। वैदिकोंके लिये प्रणवका उच्चारण मुख्य है। इसलिये भगवान्ने प्रणवको अपना स्वरूप बताया है।उन क्रतु? यज्ञ आदिकी विधि बतानेवाले ऋग्वेद? सामवेद और यजुर्वेद -- ये तीनों वेद हैं। जिसमें नियताक्षरवाले मन्त्रोंकी ऋचाएँ होती हैं? उन ऋचाओंके समुदायको ऋग्वेद कहते हैं। जिसमें स्वरोंसहित गानेमें आनेवाले मन्त्र होते हैं? वे सब मन्त्र सामवेद कहलाते हैं। जिसमें अनियताक्षरवाले मन्त्र होते हैं? वे मन्त्र यजुर्वेद कहलाते है (टिप्पणी प0 504)। ये तीनों वेद भगवान्के ही स्वरूप हैं।पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः -- इस जडचेतन? स्थावरजङ्गम आदि सम्पूर्ण संसारको मैं ही उत्पन्न करता हूँ -- अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः ( गीता 7। 6 ) और बारबार अवतार लेकर मैं ही इसकी रक्षा करता हूँ। इसलिये मैं पिता हूँ। ग्यारहवें अध्यायके तैंतालीसवें श्लोकमें अर्जुनने भी कहा है कि आप ही इस चराचर जगत्के पिता हैं -- पितासि लोकस्य चराचरस्य।इस संसारको सब तरहसे मैं ही धारण करता हूँ और संसारमात्रका जो कुछ विधान बनता है? उस विधानको,बनानेवाला भी मैं हूँ। इसलिये मैं धाता हूँ।जीवोंकी अपनेअपने कर्मोंके अनुसार जिसजिस योनिमें? जैसेजैसे शरीरोंकी आश्यकता पड़ती है? उसउस योनिमें वैसेवैसे शरीरोंको पैदा करनेवाली माता मैं हूँ अर्थात् मैं सम्पूर्ण जगत्की माता हूँ।प्रसिद्धिमें ब्रह्माजी सम्पूर्ण सृष्टिको पैदा करनेवाले हैं -- इस दृष्टिसे ब्रह्माजी प्रजाके पिता हैं। वे ब्रह्माजी भी मेरेसे प्रकट होते हैं -- इस दृष्टिसे मैं ब्रह्माजीका पिता और प्रजाका पितामह हूँ। अर्जुनने भी भगवान्को ब्रह्माके आदिकर्ता कहा है -- ब्रह्मणोऽप्यादिकर्त्रे (11। 37)।गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् -- प्राणियोंके लिये जो सर्वोपरि प्रापणीय तत्त्व है? वह गतिस्वरूप मैं ही हूँ। संसारमात्रका भरणपोषण करनेवाला भर्ता और संसारका मालिक प्रभु मैं ही हूँ। सब समयमें सबको ठीक तरहसे जाननेवाला साक्षी मैं हूँ। मेरे ही अंश होनेसे सभी जीव स्वरूपसे नित्यनिरन्तर मेरेमें ही रहते हैं? इसलिये उन सबका निवासस्थान मैं ही हूँ। जिसका आश्रय लिया जाता है? वह शरण अर्थात् शरणागतवत्सल मैं ही हूँ। बिना कारण प्राणिमात्रका हित करनेवाला सुहृद् अर्थात् हितैषी भी मैं हूँ।प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम् -- सम्पूर्ण संसार मेरेसे ही उत्पन्न होता है और मेरेमें ही लीन होता है? इसलिये मैं प्रभव और प्रलय हूँ अर्थात् मैं ही संसारका निमित्तकारण और उपादानकारण हूँ (गीता 7। 6)।महाप्रलय होनेपर प्रकृतिसहित सारा संसार मेरेमें ही रहता है? इसलिये मैं संसारका स्थान (टिप्पणी प0 505.1) हूँ।संसारकी चाहे सर्गअवस्था हो? चाहे प्रलयअवस्था हो? इन सब अवस्थाओंमें प्रकृति? संसार? जीव तथा जो कुछ देखने? सुनने? समझनेमें आता है? वह सबकासब मेरेमें ही रहता है? इसलिये मैं निधान हूँ।सांसारिक बीज तो वृक्षसे पैदा होता है और वृक्षको पैदा करके नष्ट हो जाता है परन्तु ये दोनों ही दोष मेरेमें नहीं हैं। मैं अनादि हूँ अर्थात् पैदा होनेवाला नहीं हूँ और अनन्त सृष्टियाँ पैदा करके भी जैसाकातैसा ही रहता हूँ। इसलिये मैं अव्यय बीज हूँ।
।।9.17।। आत्मा कोई अस्पष्ट? अगोचर सत् तत्त्व नहीं कि जो भावरहित? संबंध रहित और गुण रहित हो। यह दर्शाने के लिए कि यही आत्मा ईश्वर के रूप में परम प्रेमस्वरूप है? परिच्छिन्न जगत् के साथ उसके सम्बन्धों को यहाँ दर्शाया गया है। मैं जगत् का पिता? माता? धाता और पितामह हूँ। माता? पिता और धाता इन तीनों से अभिप्राय यह है कि वह जगत् का एकमात्र कारण है और उसका कोई कारण नहीं है। यह तथ्य पितामह शब्द से दर्शाया गया है। परमात्मा स्वयं सिद्ध है।यहाँ विशेष बल देकर कहा गया है कि जानने योग्य एकमेव वस्तु (वेद्य) मैं हूँ। इस बात को सभी धर्मशास्त्रों में बारम्बार कहा गया है आत्मा वह तत्त्व है जिसे जान लेने पर? अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है। आत्मबोध से अपूर्णता का? सांसारिक जीवन का और मर्मबेधी दुखों का अन्त हो जाता है। देहधारी जीव के रूप में जीने का अर्थ है? अपनी दैवी सार्मथ्य से निष्कासित जीवन को जीना। वास्तव में हम तो दैवी सार्मथ्य के उत्तराधिकारी हैं परन्तु अज्ञानवश जीव भाव को प्राप्त हो गये हैं। अपने इस परमानन्द स्वरूप का साक्षात्कार करना ही वह परम पुरुषार्थ है? जो मनुष्य को पूर्णतया सन्तुष्ट कर सकता है।सम्पूर्ण विश्व के अधिष्ठान आत्मा को वेदों में ओंकार के द्वारा सूचित किया गया है। हम अपने जीवन में अनुभवों की तीन अवस्थाओं से गुजरते हैं जाग्रत्? स्वप्न और सुषुप्ति। इन तीनों अवस्थाओं का अधिष्ठान और ज्ञाता (अनुभव करने वाला) इन तीनों से भिन्न होना चाहिए? क्योंकि ज्ञाता ज्ञेय वस्तुओं से और अधिष्ठान अध्यस्त से भिन्न होता है।इन तीनों अवस्थाओं से भिन्न उस तत्त्व को? जो इन को धारण किये हुये है? उपनिषद् के ऋषियों ने तुरीय अर्थात् चतुर्थ कहा है। इन चारों को जिस एक शब्द के द्वारा वेदों में सूचित किया गया है वह शब्द है । ओम् ही आत्मा है? जिसकी उपासना के लिए भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा श्रीमद्भागवत में वर्णित है।प्रणव के द्वारा लक्षित आत्मा ही वेद्य वस्तु है? जो पारमार्थिक सत्य है? जिसको कभी प्रत्यक्ष तो कभी अप्रत्यक्ष अथवा मौनरूप से वेदों में निर्देशित किया गया है। इसलिए यहाँ कहा गया है कि मैं ऋग्वेद? सामवेद और यजुर्वेद हूँ।आगे कहते हैं --
9.17 Of this world I am the father, mother, ordainer, (and the), grand-father; I am the knowable, the sancitifier, the syllable Om as also Rk, Sama and Yajus.
9.17 I am the father of this world, the mother, the dispenser of the fruits of actions and the grandfather; the (one) thing to be known, the purifier, the sacred monosyllable (Om), and also the Rik-, the Sama-and the Yajur-Vedas.
9.17. I am the father, the mother, the sustainer and the paternal-grandsire of this world; [I am] the sacred object of knowledge, the syullable Om, the Rk, the Saman, and the Yajus too.
9.17 पिता father? अहम् I? अस्य of this? जगतः world? माता mother? धाता the dispenser of the fruits of actions? पितामहः grandfather? वेद्यम् the (one) thing to be known? पवित्रम् the purifier? ओंकारः the Omkara? ऋक् Rik? साम Sama? यजुः Yajus? एव also? च and.Commentary Dhata Supporter or sustainer by dispenser of the fruits of actions.Isvara or the Saguna Brahman is the father. MulaPrakriti or the primordial Nature is the mother. The pure Satchidananda Para Brahman (ExistenceKnowledgeBliss Absolute) is the grandfather.Vedyam The one thing to be known. This is the Supreme Being.Pavitram Purifier. I am of the form of a bath in the holy river Ganga and the Gayatri Japa which purify the aspirants externally and internally.Cha and. This includes the AtharvanaVeda also. (Cf.XIV.3)
9.17 Asya, of this; jagatah, world; aham, I; am pita, the father; mata, the mother; dhata, ordainer, dispenser of the results of their actions to the creatures; (and the) pirtamahah, grand-father. I am the vedayam, knowable-that which has to be known; the pavitram, sanctifier; [Virtuous actions.] and the onkarah, syllable Om; eva ca, as also Rk, Sama and Yajus. [Brahman, which has to be known, is realizable through Om, regarding which fact the three Vedas are the authority. The ca (as also) is suggestive of the Atharva-veda.] Moreover,
9.17 See Comment under 9.19
9.17 Of the world consisting of mobile and immobile entities, I alone am the father, mother, creator and grandfather. Here the term Dhatr stands for one other than the parents who helps in the birth of a particular person. Whatever is known from theVedas as purifying, I alone am that. I am the Pranava, which originates knowledge and forms the seed of the Vedas. I am the Veda comprising Rk, Saman and Yajus.
Please see text 19 for Sri Visvanatha Cakravarti Thakur’s combined commentary to texts 17, 18 and 19.
Lord Krishna states that He is the dhata or bestower of the fruits of ones actions. He is vedyam or the essence of what is to be known and the sole object to be realised. He is pavitram the one who purifies and sanctifies. He is the His own personal sound vibration manifested in the sacred monosyllable OM and He is the sublime and perfect Rig Veda, Sama Veda and the Yajur Veda from where the Atharva Veda was extracted by Vedavayasa.
The spiritual knowledge spoken previously is further narrated here. Rituals mean sacrifices of worship and propitiation. True sacrifice means the renunciation of wealth by humbly offering it in the service of the Supreme Lord. It is also stated in the Vedic sciptures that in relationship to the Supreme Lord the renunciation of wealth is considered sacrifice.
It is the Supreme Lord Krishna who is the foundation and source of all creation comprised of moving and non-moving things hence His relationship as father, mother, grandsire and patriarch is natural. The word dhata meaning bequeather or dispenser denotes the original progenitor the Supreme Lord who is the real cause of all births distinct from the seminal birth from father and mother. He is vedyam whatever is perceptible by the Vedas being worthy to be known and He is the Holy sanctifier. He is the indicator known by His personal sound vibration OM which is the root of the Vedas and He Himself is the sacred Vedas comprised of the Rig, Sama and the Yajur Vedas from where was extracted the Atharva Veda.
It is the Supreme Lord Krishna who is the foundation and source of all creation comprised of moving and non-moving things hence His relationship as father, mother, grandsire and patriarch is natural. The word dhata meaning bequeather or dispenser denotes the original progenitor the Supreme Lord who is the real cause of all births distinct from the seminal birth from father and mother. He is vedyam whatever is perceptible by the Vedas being worthy to be known and He is the Holy sanctifier. He is the indicator known by His personal sound vibration OM which is the root of the Vedas and He Himself is the sacred Vedas comprised of the Rig, Sama and the Yajur Vedas from where was extracted the Atharva Veda.
Pitaahamasya jagato maataa dhaataa pitaamahah; Vedyam pavitramonkaara riksaama yajureva cha.
aham—I; kratuḥ—Vedic ritual; aham—I; yajñaḥ—sacrifice; svadhā—oblation; aham—I; aham—I; auṣhadham—medicinal herb; mantraḥ—Vedic mantra; aham—I; aham—I; eva—also; ājyam—clarified butter; aham—I; agniḥ—fire; aham—I; hutam—the act offering; pitā—Father; aham—I; asya—of this; jagataḥ—universe; mātā—Mother; dhātā—Sustainer; pitāmahaḥ—Grandsire; vedyam—the goal of knowledge; pavitram—the purifier; om-kāra—the sacred syllable Om; ṛik—the Rig Veda; sāma—the Sama Veda; yajuḥ—the Yajur Veda; eva—also; cha—and