गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्।।9.18।।
।।9.18।। गति (लक्ष्य)? भरणपोषण करने वाला? प्रभु (स्वामी)? साक्षी? निवास? शरणस्थान तथा मित्र और उत्पत्ति? प्रलयरूप तथा स्थान (आधार)? निधान और अव्यय कारण भी मैं हूँ।।
।।9.18।। आत्मस्वरूप का वर्णन करने वाले प्रसंग का ही यहाँ विस्तार है। आत्मा अधिष्ठान है इस सम्पूर्ण दृश्यमान नानाविध जगत् का? जो हमें आत्मअज्ञान की दशा में प्रतीत हो रहा है। वास्तव में यह परम सत्य पर अध्यारोपित है। आत्मस्वरूप से तादात्म्य कर भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं का वर्णन अनेक सांकेतिक शब्दों के द्वारा करते हैं। ऐसे इन सारगर्भित शब्दों से निर्मित मालारूपी यह एक अत्युत्तम श्लोक है? जिस पर सभी साधकों को मनन करना चाहिए।मैं गति हूँ पूर्णत्व के अनुभव में हमारी समस्त अपूर्णताएं नष्ट हो जाती हैं और उसके साथ ही अनादि काल से चली आ रही परम आनन्द की हमारी खोज भी समाप्त हो जाती है। रज्जु (रस्सी) में मिथ्या सर्प को देखकर भयभीत हुए पुरुष को सांत्वना और सन्तोष तभी मिलता है? जब रस्सी के ज्ञान से सर्प भ्रम की निवृत्ति हो जाती है। दुखपूर्ण प्रतीत होने वाले इस जगत् का अधिष्ठान आत्मा है। उस आत्मा का साक्षात्कार करने का अर्थ है समस्त श्वासरोधक बन्धनों के परे चले जाना। वह पारमार्थिक ज्ञान जिसे जानकर अन्य सब कुछ ज्ञात हो जाता है? उसे यहाँ आत्मा के रूप में दर्शाया गया है।मैं भर्ता हूँ जैसे रेगिस्तान उस मृगजल का आधार है धारण करने वाला है? जिसे एक प्यासा व्यक्ति भ्रान्ति से देखता है? वैसे ही? आत्मा सबको धारण करने वाला है। अपने सत्स्वरूप से वह इन्द्रियगोचर वस्तुओं को सत्ता प्रदान करता है? और समस्त परिवर्तनों के प्रवाह को एक धारा में बांधकर रखता है। इसके कारण ही अनुभवों की अखण्ड धारा रूप जीवन का हमें अनुभव होता है।मैं प्रभु हूँ यद्यपि समस्त कर्म उपाधियों के द्वारा किये जाते हैं? परन्तु वे स्वयं जड़ होने के कारण यह स्पष्ट होता है कि उन्हें चेतनता किसी अन्य से प्राप्त हुई है। वह चेतन तत्त्व आत्मा है। उसके अभाव में उपाधियाँ कर्म में असमर्थ होती है इसलिए यह आत्मा ही उनका प्रभु अर्थात् स्वामी है।मैं साक्षी हूँ यद्यपि आत्मा चैतन्य स्वरूप होने के कारण जड़ उपाधियों को चेतनता प्रदान करता है? तथापि वह स्वयं संसार के आभासिक और भ्रान्तिजन्य सुखों एवं दुखों के परे होता है। इस दृश्य जगत् को आत्मा से ही अस्तित्व प्राप्त हुआ है? परन्तु स्वयं आत्मा मात्र साक्षी है। साक्षी उसे कहते हैं जो किसी घटना को घटित होते हुए समीप से देखता है? परन्तु उसका घटना से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं होता। बिना किसी राग या द्वेष के वह उस घटना को देखता है। जब किसी व्यक्ति की उपस्थिति में कोई घटना स्वत हो जाती है? तब वह व्यक्ति उसका साक्षी कहलाता है। अनन्त आत्मा साक्षी है? क्योंकि वह स्वयं अलिप्त रहकर बुद्धि के अन्तपुर? मन की रंगभूमि? शरीर के आंगन और बाह्य जगत् के विस्तार को प्रकाशित करता है।मैं निवास हूँ समस्त चराचर जगत् का निवास स्थान आत्मा है। सड़क के किनारे खड़े किसी स्तम्भ पर किन्हीं यात्रियों ने दाँत निकाले हुए भूत को देखा? कुछ अन्य लोगों ने मन्दस्मिति भूत को देखा? तो दूसरों ने वही पर एक नग्न विकराल भूत को देखा? जिसका मुँह रक्त से सना हुआ था और आँखें चमक रही थीं? उसी प्रकार कुछ अन्य लोग भी थे? जिन्होंने आमन्त्रित करते हुए से श्वेत वस्त्र धारण किये हुए भूत को देखा? जो प्रेमपूर्वक उन्हें सही मार्ग दर्शा रहा था। एक ही स्तम्भ पर उन सभी लोगों ने अपनीअपनी भ्रामक कल्पनाओं का प्रक्षेपण किया था। स्वाभाविक है कि? वह स्थाणु उन समस्त प्रकार के भूतों का निवास कहलायेगा। इसी प्रकार जहाँ कहीं भी हमारी इन्द्रियों और मन को बहुविध दृश्यजगत् का आभास होता है? उन सबके लिए आत्मा ही अस्तित्व और सुरक्षा का निवास हैशरणम् मोह? शोक को जन्म देता है? जबकि ज्ञान आनन्द का जनक है। मोहजनित होने के कारण यह संसार दुखपूर्ण है। विक्षुब्ध संसार सागर की पर्वताकार उत्ताल तरंगों पर दुख पा रहे भ्रमित जीव के लिए जगत् के अधिष्ठान आत्मा का बोध शान्ति का शरण स्थल है। एक बार जब आत्मा शरीर? मन और बुद्धि के साथ तादात्म्य कर व्यष्टि जीव भाव को प्राप्त होकर बाह्य जगत् में क्रीड़ा करने जाता है? तब वह सागर तट की सुरक्षा से दूर तूफानी समुद्र में भटक जाता है। जीव की इस जर्जर नाव को जब सब ओर से भयभीत और प्रताड़ित किया जाता है? ऊपर घिरती हुई काली घटाएं? नीचे उछलता हुआ क्रुद्ध समुद्र? और चारों ओर भयंकर गर्जन करता हुआ तूफान तब नाविक के लिए केवल एक ही शरणस्थल रह जाता है? और वह शान्त पोतस्थान है आत्मा आत्मा का उपर्युक्त वर्णन सत्य के विषय में ऐसी धारणा को जन्म देता है मानो वह सत्य निष्ठुर है या एक अत्यन्त प्रतिष्ठित देवता है? या एक अप्राप्त पूर्णत्व है। अर्जुन जैसे भावुक साधकों के कोमल हृदय से इस प्रकार की धारणाओं को मिटा देने के लिए वह सनातन सत्य? मनुष्य के प्रिय मित्र श्रीकृष्ण के रूप में स्वयं का परिचय देते हुए अब मानवोचित शब्दों का प्रयोग करते हैं।मैं मित्र हूँ अनन्त परमात्मा परिच्छिन्न जीव का मित्र है। उसकी यह मित्रता नमस्कार तक ही सीमित नहीं? वरन् उसकी आतुरता अपने मित्र की सुरक्षा और कल्याण के लिए होती है। प्रत्युपकार की अपेक्षा किये बिना मित्र पर उपकार करने वाला मनुष्य सुहृत् कहलाता है।मैं प्रभव? प्रलय? स्थान और निधान हूँ जैसे आभूषणों में स्वर्ण और घटों में मिट्टी है? वैसे ही आत्मा सम्पूर्ण विश्व में है। इसलिए सभी की उत्पत्ति? स्थिति और लय स्थान वही हो सकता है। इसी कारण से उसे यहाँ निधान कहा गया है? क्योंकि सभी नाम? रूप एवं गुण इसी में निहित रहते हैं।मैं अव्यय बीज हूँ सामान्य बीज अंकुरित होकर और वृक्ष को जन्म देकर स्वयं नष्ट हो जाते हैं? परन्तु यह बीज सामान्य से सर्वथा भिन्न है। आत्मा निसन्देह ही इस संसार वृक्ष का बीज है? परन्तु इस वृक्ष की उत्पत्ति में स्वयं आत्मा परिणाम को नहीं प्राप्त होता? क्योंकि वह अव्यय स्वरूप है। यह धारणा कि सनातन सत्य परिणाम को प्राप्त होकर यह सृष्ट जगत् बन गया है? मनुष्य की तर्क बुद्धि को एक कलंक है और वेदान्त ऐसी दोषपूर्ण अयुक्तिक धारणा को अस्वीकार करता है? परन्तु द्वैतवादी इस सिद्धांत का समर्थन करते हैं? अन्यथा उनके तर्कों का महल ही धराशायी होकर चूरचूर हो जायेगा? जैसे शरद ऋतु के आकाश में निर्मित मेघों का किला छन्नभिन्न हो जाता है।जैसा कि पहले बताया जा चुका है? यह श्लोक सरल किन्तु सारगर्भित शब्दों से पूर्ण है? जिसमें प्रत्येक शब्द साधक के मनन के लिए छायावृत मार्ग है? जिस पर आनन्दपूर्वक टहलते हुए सत्य के द्वार तक पहुँचा जा सकता है।भगवान् आगे कहते हैं --