तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।9.19।।
।।9.19।। हे अर्जुन मैं ही (सूर्य रूप में) तपता हूँ मैं वर्षा का निग्रह और उत्सर्जन करता हूँ। मैं ही अमृत और मृत्यु एवं सत् और असत् हूँ।।
।।9.19।। मैं तपता हूँ विद्युत् का यह कहना उपयुक्त होगा कि वह उष्णक (हीटर) में उष्णता? बल्ब में प्रकाश और शीतक (फ्रीज) में शीतलता देती है क्योंकि इन उपकरणों के द्वारा विद्युत् ही उष्णता आदि के रूप में व्यक्त होती है। इसी प्रकार? एक सत्स्वरूप आत्मा दृश्य प्रकृति की एक वस्तु सूर्य के साथ तादात्म्य कर समस्त जगत् के लिए उष्णता का स्रोत बन जाता है।मैं वर्षा का निग्रह और उत्सर्जन करता हूँ ऐसी बात नहीं है कि केवल आधुनिक मौसम विज्ञान के विशेषज्ञों ने ही जगत् में जलवायु की स्थिति में सूर्य के प्रभाव को समझा है। प्राचीन ऋषियों को भी प्रकृति के स्वभाव एवं व्यवहार का पूर्ण ज्ञान था। वे जानते थे कि सूर्य की स्थिति? दशा एवं स्वरूप जलवायु को निश्चित करता है? जो जगत् के लिए कभी वरदान या अभिशाप बनकर आता है। पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी के अनुभवक्षेत्र को सूर्य नियन्त्रित और प्रभावित करता है? क्योंकि वह जलवायु का नियामक है। यदि सूर्य की उष्णता में कुछ अंशों की वृद्धि हो जाय? तो विश्व की सम्पूर्ण वनस्पति और पशु जीवन में परिवर्तन हो जायेगा। उसी प्रकार? यदि सूर्य अपनी कलोरी उष्णता को देना कम कर दे? तो उससे होने वाला परिवर्तन इतना अधिक होगा कि वर्तमान जगत् का रूप ही सर्वथा परिवर्तित हो जायेगा। तत्काल ही? उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव से गति भूमध्य रेखा की ओर होगी और प्राणीमात्र को बलात् पृथ्वी के मध्य भाग में खींच कर ले आयेगी? जहाँ अत्यधिक जनसंख्या के दबाव और पर्याप्त अन्न के अभाव में दुख ही दुख होगा मैं अमृत और मृत्यु हूँ मृत्यु का अर्थ है परिवर्तन। चैतन्य के बिना इस परिवर्तनशील जगत् की न सत्ता है और न भान। अत यहाँ कहा गया है कि मैं मृत्यु हूँ। पुन? इन परिवर्तनों का जो प्रकाशक आत्मा है? उसको अपरिवर्तनशील होना ही चाहिए। वह आत्मा अमृत है। आत्मा स्वयं अमृत रहते हुए मृत्यु को प्रकाशित करती है।मैं सत् और असत् हूँ कोई वस्तु है और कोई नहीं है इन दोनों सत् (है) और असत् (नहीं हैं) का एक भावस्वरूप प्रकाशक होना अनिवार्य है। उसके बिना इनका अनुभव नहीं हो सकता। आत्यन्तिक अभाव को जानना या अनुभव करना असंभव है? जहाँ कहीं हमें अभाव का ज्ञान होता है वह इसी रूप में होता है कि अमुक वस्तु का अभाव है इस अत्यन्त सूक्ष्म दार्शनिक व्याख्या के अतिरिक्त इन दो शब्दों सत् और असत् का सरल अभिप्राय भी है। इन्द्रियगोचर? स्थूल व्यक्त वस्तु को सत् तथा सूक्ष्म? अव्यक्त वस्तु को असत् कहा जाता है। अथवा सत् और असत् शब्द से क्रमश कार्य और कारण को भी वेदान्त में सूचित किया जाता है। प्रकाशक चैतन्य आत्मा के बिना सत् (बाह्य विषय) और असत् (मन की विचार वृत्ति) का ज्ञान नहीं हो सकता। अत यहाँ कहा गया है कि इन दोनों का मूल स्वरूप आत्मा है। मिट्टी के बिना घटों का कोई अस्तित्व नहीं होता? अत मिट्टी यह दावा कर सकती है कि सभी आकारों? रंगों और रूपों वाले घट मैं ही हूँ।ध्यान के आसन पर साधकों के लिए यह श्लोक जीवनपर्यन्त प्रेरणादायक बन सकता है।जो अज्ञानी लोग सकाम भावना से ईश्वर की पूजा करते हैं? वे अपने इष्टफल को प्राप्त करते हैं। कैसे भगवान् कहते हैं --