तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन।।9.19।।
।।9.19।।हे अर्जुन (संसारके हितके लिये) मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ? जलको ग्रहण करता हूँ और फिर उस जलको वर्षारूपसे बरसा देता हूँ। (और तो क्या कहूँ) अमृत और मृत्यु तथा सत् और असत् भी मैं ही हूँ।
।।9.19।। व्याख्या -- तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च -- पृथ्वीपर जो कुछ अशुद्ध? गंदी चीजें हैं? जिनसे रोग पैदा होते हैं? उनका शोषण करके प्राणियोंको नीरोग करनेके लिये (टिप्पणी प0 505.2) अर्थात् ओषधियों? जड़ीबूटियोंमें जो जहरीला भाग है? उसका शोषण करनेके लिये और पृथ्वीका जो जलीय भाग है? जिससे अपवित्रता होती है? उसको सुखानेके लिये मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ। सूर्यरूपसे उन सबके जलीय भागको ग्रहण करके और उस जलको शुद्ध तथा मीठा बना करके समय आनेपर वर्षारूपसे प्राणिमात्रके हितके लिये बरसा देता हूँ? जिससे प्राणिमात्रका जीवन चलता है।अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन -- मैं ही अमृत और मृत्यु हूँ अर्थात् मात्र जीवोंका प्राण धारण करते हुए जीवित रहना (न मरना) और सम्पूर्ण जीवोंके पिण्डप्राणोंका वियोग होना (मरना) भी मैं ही हूँ।और तो क्या कहूँ? सत्असत्? नित्यअनित्य? कारणकार्यरूपसे जो कुछ है? वह सब मैं ही हूँ। तात्पर्य है कि जैसे महात्माकी दृष्टिमें सब कुछ वासुदेव (भगवत्स्वरूप) ही है -- वासुदेवः सर्वम्? ऐसे ही भगवान्की दृष्टिमें सत्असत्? कारणकार्य सब कुछ भगवान् ही हैं। परन्तु सांसारिक लोगोंकी दृष्टिमें सब एकदूसरेसे विरुद्ध दीखते हैं जैसे -- जीना और मरना अलगअलग दीखता है? उत्पत्ति और विनाश अलगअलग दीखता है स्थूल और सूक्ष्म अलगअलग दीखते हैं? सत्त्वरजतम -- ये तीनों अलगअलग दीखते हैं?,कारण और कार्य अलगअलग दीखते हैं? जल और बर्फ अलगअलग दीखते हैं। परन्तु वास्तवमें संसाररूपमें भगवान् ही प्रकट होनेसे? भगवान् ही बने हुए होनेसे सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है। भगवान्के सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। जैसे सूतसे बने हुए सब कपड़ोंमें केवल सूतहीसूत है? ऐसे ही वस्तु? व्यक्ति? क्रिया? पदार्थ आदि सब कुछ केवल भगवान्हीभगवान् हैं। सम्बन्ध -- जगत्की रचना तथा विविध परिवर्तन मेरी अध्यक्षतामें ही होता है परन्तु मेरे इस प्रभावको न जाननेवाले मूढ़लोग आसुरी? राक्षसी और मोहिनी प्रकृतिका आश्रय लेकर मेरी अवहेलना करते हैं? इसलिये वे पतनकी ओर जाते हैं। जो भक्त मेरे प्रभावको जानते हैं? वे मेरे दैवी गुणोंका आश्रय लेकर अनन्यमनसे मेरी विविध प्रकारसे उपासना करते हैं? इसलिये उनको सत्असत् सब कुछ एक परमात्मा ही हैं -- ऐसा यथार्थ अनुभव हो जाता है। परन्तु जिनके अन्तःकरणमें सांसारिक भोग और संग्रहकी कामना होती है? वे वास्तविक तत्त्वको न जानकर भगवान्से विमुख होकर स्वर्गादि लोकोंके भोगोंकी प्राप्तिके लिये सकामभावपूर्वक यज्ञादि अनुष्ठान किया करते हैं? इसलिये वे आवागमनको प्राप्त होते हैं -- इसका वर्णन भगवान् आगेके दो श्लोकोंमे करते हैं।