अनन्याश्िचन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्।।9.22।।
।।9.22।।जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं? मेरेमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तोंका योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्तकी रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
।।9.22।। अनन्य भाव से मेरा चिन्तन करते हुए जो भक्तजन मेरी ही उपासना करते हैं? उन नित्ययुक्त पुरुषों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।।
।।9.22।। व्याख्या -- अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते -- जो कुछ देखने? सुनने और समझनेमें आ रहा है? वह सबकासब भगवान्का स्वरूप ही है और उसमें जो कुछ परिवर्तन तथा चेष्टा हो रही है? वह सबकीसब भगवान्की लीला है -- ऐसा जो दृढ़तासे मान लेते हैं? समझ लेते हैं? उनकी फिर भगवान्के सिवाय कहीं भी महत्त्वबुद्धि नहीं होती। वे भगवान्में ही लगे रहते हैं। इसलिये वे अनन्य हैं। केवल भगवान्में ही महत्ता और प्रियता होनेसे उनके द्वारा स्वतः भगवान्का ही चिन्तन होता है।अनन्याः कहनेका दूसरा भाव यह है कि उनके साधन और साध्य केवल भगवान् ही हैं अर्थात् केवल भगवान्के ही शरण होना है? उन्हींका चिन्तन करना है? उन्हींकी उपासना करनी है और उन्हींको प्राप्त करना है -- ऐसा उनका दृढ़ भाव है। भगवान्के सिवाय उनका कोई अन्य भाव है ही नहीं क्योंकि भगवान्के सिवाय अन्य सब नाशवान् है। अतः उनके मनमें भगवान्के सिवाय अन्य कोई इच्छा नहीं है अपने जीवननिर्वाहकी भी इच्छा नहीं है। इसलिये वे अनन्य हैं।वे खानापीना? चलनाफिरना? बातचीत करना? व्यवहार करना आदि जो कुछ भी काम करते हैं? वह सब भगवान्की ही उपासना है क्योंकि वे सब काम भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही करते हैं।तेषां नित्याभियुक्तानाम् -- जो अनन्य होकर भगवान्का ही चिन्तन करते हैं और भगवान्की प्रसन्नताके लिये ही सब काम करते हैं? उन्हींके लिये यहाँ नित्याभियुक्तानाम् पद आया है।इसको दूसरे शब्दोंमें इस प्रकार समझें कि वे संसारसे विमुख हो गये -- यह उनकी अनन्यता है? वे,केवल भगवान्के सम्मुख हो गये -- यह उनका चिन्तन है और सक्रियअक्रिय सभी अवस्थाओंमें भगवत्सेवापरायण हो गये -- यह उनकी उपासना है। ये तीनों बातें जिनमें हो जाती हैं? वे ही,नित्याभियुक्त हैं।योगक्षेमं वहाम्यहम् -- अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करा देना योग है और प्राप्त सामग्रीकी रक्षा करना क्षेम है। भगवान् कहते हैं कि मेरेमें नित्यनिरन्तर लगे हुए भक्तोंका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।वास्तवमें देखा जाय तो अप्राप्त वस्तुकी प्राप्ति करानेमें भी योगका वहन है और प्राप्ति न करानेमें भीयोगका वहन है। कारण कि भगवान् तो अपने भक्तका हित देखते हैं और वही काम करते हैं? जिसमें भक्तका हित होता हो। ऐसे ही प्राप्त वस्तुकी रक्षा करनेमें भी क्षेमका वहन है और रक्षा न करनेमें भी,क्षेमका वहन है। अगर भक्तकी भक्ति बढ़ती हो? उसका कल्याण होता हो तो भगवान् प्राप्तकी रक्षा करेंगे क्योंकि इसीमें उसका क्षेम है। अगर प्राप्तकी रक्षा करनेसे उसकी भक्ति न बढ़ती हो? उसका हित न होता हो तो भगवान् उस प्राप्त वस्तुको नष्ट कर देंगे क्योंकि नष्ट करनेमें ही उसका क्षेम है। इसलिये भगवान्के भक्त अनुकूल और प्रतिकूल -- दोनों परिस्थितियोंमें परम प्रसन्न रहते हैं। भगवान्पर निर्भर रहनेके कारण उनका यह दृढ़ विश्वास हो जाता है कि जो भी परिस्थिति आती है? वह भगवान्की ही भेजी हुई है। अतः अनुकूल परिस्थिति ठीक है और प्रतिकूल परिस्थिति बेठीक है -- उनका यह भाव मिट जाता है। उनका भाव रहता है कि भगवान्ने जो किया है? वही ठीक है और भगवान्ने जो नहीं किया है? वही ठीक है? उसीमें हमारा कल्याण है।ऐसा होना चाहिये और ऐसा नहीं होना चाहिये -- यह सोचनेकी हमें किञ्चिन्मात्र भी आवश्यकता नहीं है। कारण कि हम सदा भगवान्के हाथमें ही हैं और भगवान् सदा ही हमारा वास्तविक हित करते रहते हैं। इसलिये हमारा अहित कभी हो ही नहीं सकता। तात्पर्य है कि भक्तका मनचाहा हो जाय तो उसमें भी कल्याण है और मनचाहा न हो तो उसमें भी कल्याण है। भक्तका चाहा और न चाहा कोई मूल्य नहीं रखता? मूल्य तो भगवान्के विधानका है। इसलिये अगर कोई अनुकूलतामें प्रसन्न और प्रतिकूलतामें खिन्न होता है? तो वह भगवान्का दास नहीं है? प्रत्युत अपने मनका दास है।वास्तवमें तो योग नाम भगवान्के साथ सम्बन्धका है और क्षेम नाम जीवके कल्याणका है। इस दृष्टिसे भगवान् भक्तके सम्बन्धको अपने साथ दृढ़ करते हैं -- यह तो भक्तका योग हुआ और भक्तके कल्याणकी चेष्टा करते हैं -- यह भक्तका क्षेम हुआ। इसी बातको लेकर दूसरे अध्यायके पैंतालीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्जुनके लिये आज्ञा दी कि तू निर्योगक्षेम हो जा अर्थात् तू योग और क्षेमसम्बन्धी किसी प्रकारकी चिन्ता मत कर।वहाम्यहम् का तात्पर्य है कि जैसे छोटे बच्चेके लिये माँ किसी वस्तुकी आवश्यकता समझती है? तो बड़ी प्रसन्नता और उत्साहके साथ स्वयं वह वस्तु लाकर देती है। ऐसे ही मेरेमें निरन्तर लगे हुए भक्तोंके लिये मैं किसी वस्तुकी आवश्यकता समझता हूँ? तो वह वस्तु मैं स्वयं ढोकर लाता हूँ अर्थात् भक्तोंके सब काम मैं स्वयं करता हूँ। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें अपनी उपासनाकी बात कह करके अब भगवान् अन्य देवताओंकी उपासनाकी बात कहते हैं।
।।9.22।। यह श्लोक उस रहस्य को अनावृत करता है? जिसे जानकर आध्यात्मिक और भौतिक क्षेत्र में भी निश्चित रूप से महान सफलता प्राप्त की जा सकती है। यहाँ ध्यान देने योग्य बात है कि यह श्लोक लगभग गीता का मध्यबिन्दु है। हम क्रमश आध्यात्मिक और भौतिक दृष्टि से इसके अर्थ पर विचार करेंगे।जो लोग यह जानकर कि एकमात्र आत्मा ही सम्पूर्ण विश्व का अधिष्ठान और पारमार्थिक सत्य है? अनन्यभाव से मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ध्यान करते हैं? श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि उन नित्ययुक्त भक्तजनों का योगक्षेम मैं वहन करता हूँ। योग का अर्थ है अधिक से अधिक आध्यात्मिक शक्ति? और क्षेम का अर्थ है अध्यात्म का चरम लक्ष्य परमानन्द की प्राप्ति? जो यज्ञ का फल है। इन योग और क्षेम को भगवान् ही पूर्ण करते हैं।अब? यदि इसे? व्यावहारिक जगत् के विभिन्न कार्य क्षेत्रों में दिनरात परिश्रम करने वाले लोगों के लिए सफलता का भेद बताने वाला मानें? तब भी यही श्लोक उस रहस्य को बताता हैं? जिसके द्वारा संसारी लोग अपने जीवन में पूर्ण सफलता प्राप्त कर सकते हैं। हाथ में लिए हुए किसी भी कार्य में? यदि मनुष्य एक ही लक्ष्य को ध्यान में रखकर अपनी संकल्प शक्ति का उपयोग कर एक ही संकल्प को बनाये रख सकता है? तो उसकी सफलता निश्चित समझनी चाहिए। परन्तु दुर्भाग्य है कि सामान्य जन एक ही संकल्प को बनाये नहीं रख पाते हैं। इसलिए? उनका लक्ष्य सदैव परिवर्तित होता रहता है और उनसे दूर और दूर होता जाता है। इस स्थिति में उनका संकल्प दृढ़ कैसे रह सकता है ऐसे आकस्मिक और क्षणिक निश्चय वाले लोगों के लिए जीवन में किसी भी कार्य क्षेत्र में उन्नति करना सम्भव नहीं है।हमारे युग की सबसे बड़ी त्रासदी (दुख की बात) यह प्रतीत होती है कि हम इस एक अत्यन्त स्पष्ट एवं सुबोध तथ्य की उपेक्षा करते हैं कि विचारों से ही निर्माण कार्य होता है। संकल्पशक्ति से ही कर्मबल प्राप्त करते हैं। जब शक्तिदायक स्रोत ही श्वासरुद्ध हो जाता है या बिखर जाता है? तब बाह्य कार्यों में कार्यान्वयन की शक्ति क्षीण और प्रभावहीन हो जाती है। सफलता के लिए आवश्यक है कि मनुष्य एकाग्र चित्त से? निश्चित किये हुए अपने जीवन के लक्ष्य के विषय में सतत स्फूर्ति? उत्साह और सार्मथ्य के साथ चिन्तन करे।केवल विचार करना अपने आप में पर्याप्त नहीं है और कर्मों की आवश्यकता के विषय में भी दो मत नहीं हो सकते हैं। वर्तमान पीढ़ी के अनेक नवयुवक यद्यपि एक लक्ष्य को निरन्तर बनाये रखने में सक्षम हैं? परन्तु कार्यक्षेत्र में प्रवेश करके सफलता के लिए सर्व सम्भव प्रयत्न करने के लिए जिस तत्परता की आवश्यकता होती है? उसका उनमें अभाव रहता है। उपासना शब्द का अर्थ है पूजा। पूजा के द्वारा हम देवता का आह्वान करते हैं देवता माने किसी भी क्षेत्र की फल प्रदायक सार्मथ्य।यहाँ उपासते क्रियापद को परि उपसर्ग लगाया गया है? जिसका आशय है सम्पूर्ण प्रयत्न। अपने चुने हुए कार्य में सफलता की निर्मिति के लिए सम्पूर्ण प्रयत्न की आवश्यकता है? जिसमें कोई भी सम्भव प्रयत्न नहीं छोड़ा गया हो।अब तक? सफलता के रहस्य की दो कुञ्जियाँ बताई गयीं है? जिनके अभाव मंे कोई भी कार्य यशस्वी नहीं हो सकता? और वे हैं (क) संकल्प का सातत्य? और (ख) एक निश्चित लक्ष्य के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करना। तीसरी मुख्य कुञ्जी है (ग) नित्ययुक्तता अर्थात् आत्मसंयम। जीवन में दर्शनीय व गौरवमय सफलता पाने के लिए आत्मसंयम आवश्यक है।जब जीवन में किसी महत्त्वाकांक्षा को लेकर मनुष्य अपने मार्ग पर अग्रसर होता है? तब उसे अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उसके लक्ष्य से भिन्न? अनेक आकर्षक और प्रलोभित करने वाली योजनाएं उसके समक्ष प्रस्तुत की जाती हैं? जिनके चिन्तन में वह अपनी शक्ति का अपव्यय करके थक जाता है और इस प्रकार अपने चुने हुए कार्य को भी सफलतापूर्वक करने में असमर्थ हो जाता है। उन्नति में बाधक ऐसे विघ्न से सुरक्षित रहने के लिए आत्मसंयम अत्यावश्यक है।श्री शंकराचार्य योगक्षेम के अर्थ इस प्रकार बताते हैं ? अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करना योग और प्राप्त वस्तु का रक्षण करना क्षेम कहलाता है। प्रस्तुत विवेचन के सन्दर्भ में ये अर्थ भी उपयुक्त हैं और प्रयोज्य हैं। जीवन में? जिन किसी भी रूप में विरोध और स्पर्धा? संघर्ष और दुख आते हैं? वे प्रत्येक व्यक्ति के लिए स्थानस्थान पर और समयसमय पर भिन्नभिन्न प्रकार के होते हैं। मनुष्य के इस संघर्ष को मुख्यत दो भागों में विभाजित किया जा सकता है? (क) अप्राप्त वस्तु की प्राप्ति के लिए संघर्ष? और (ख) प्राप्त वस्तु के रक्षण के लिए प्रयत्न। इन दोनों से उत्पन्न तनाव जीवन की शान्ति और आनन्द को छिन्नभिन्न कर देता है। जो व्यक्ति इन दो चिन्ताओं से मुक्त है? वह सबसे भाग्यवान व्यक्ति है? क्योंकि वह कृतकृत्य है। इन दोनों के अभाव में उस पुरुष के जीवन में दुख की गन्धमात्र नहीं होती और वह अक्षय सुख को प्राप्त हो जाता है।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण वचन देते हैं कि जो कोई व्यक्ति उपर्युक्त सफलता की तीन कुञ्जियों को समझकर उद्यमता से उनका पालन करेगा उसे? योग और क्षेम की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है? क्योंकि उसको पूर्ण करने का उत्तरदायित्व स्वयं भगवान् स्वेच्छापूर्वक निभाते हैं। यहाँ भगवान् शब्द से तात्पर्य इस जगत् और उसमें होने वाली घटनाओं के पीछे जो शाश्वत नियम कार्य कर रहा है? उससे समझना चाहिए। सिंचाई कार्य के लिए जब जल को उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित किया जाता है? तो इच्छित क्षेत्र में उसके प्रवाह के लिए हमें केवल उसकी दिशा ही सही करनी होती है। तत्पश्चात् प्रकृतिक नियम के अनुसार वह जल स्वत ही उच्च से निम्न धरातल की ओर प्रवाहित होगा। इसी प्रकार? जो कोई पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में यहाँ वर्णित शारीरिक? मानसिक और बौद्धिक स्तर पर पालन करने योग्य नियमांे के अनुसार कार्य करेगा? सफलता ऐसी परिस्थितियों के सजग शासक के चरणों को चूमेगी।अब? एक अन्य प्रकरण का प्रारम्भ किया जाता है? जिसमें उन साधकों के विषय में विचार किया गया है? जो विपरीत मार्गदर्शन के कारण परिच्छिन्न शक्ति एवं अनित्य फल के अधिष्ठाता देवताओं की पूजा करते हैं --
9.22 Those persons who, becoming non-different from Me and meditative, worship Me everywhere, for them, who are ever attached (to Me), I arrange for securing what they lack and preserving what they have.
9.22 For those men who worship Me alone, thinking of no other, for those ever-united, I secure what is not already possessed and preserve what they already possess.
9.22. Those men who, having nothing else [as their goal] worship Me everywhere and are thinking of Me [alone]; to them, who are constantly and fully attached [to Me], I bear acisition and the security of acisition.
9.22 अनन्याः without others? चिन्तयन्तः thinking? माम् Me? ये who? जनाः men? पर्युपासते worship? तेषाम् of them? नित्याभियुक्तानाम् of the everunited? योगक्षेमम् the supply of what is not already possessed? and the preservation of what is already possessed? वहामि carry? अहम् I.Commentary Ananyah Nonseparate. This is another interpretation. Persons who? meditating on Me as nonseparate? worship Me in all beings -- to them who are ever devout? I secure gain and safety. They consider themselves as nonseparate? i.e.? they look upon the Supreme Being as nonseparate from their own Self they look upon the Supreme Being as their own Self.Those devotees who behold nothing as separate from themselves have no selfish interests of their own. They certainly do not look for their own gain and safety. They have no desire for life or death. They have taken sole refuge in the Lord. They have nothing to lose? because there is nothing they call their own. Their very bodies become Gods. They have no desire for acisition because all their desires are gratified by their communion with the Lord. They have eternal satisfaction as they possess all the divine Aisvarya? the supreme wealth of the Lord.They entertain no other thoughts than those of the Lord. Conseently the Lord Himself looks after their bodily wants? such as food and clothing (this is known as Yoga)? and preserves what they already possess (this is known as Kshema). He does these two acts. Just as the father and mother attend to the bodily needs of their children? so also the Lord attends to the needs of His devotees.They direct their whole mind with full faith towards the Lord. They make the Lord alone the sole object of their thought. For them nothing is dearer in this world than the Lord. They live for the Lord alone. They think of Him only with singeleness of purpose and onepointed devotion. They behold nothing but the Lord. They love Him in all creatures. When they lead such a life? the Lord takes the whole burden of securing gain (Yoga) and safety (Kshema) for them upto Himself.Nityayuktah Those who constantly meditate on the Lord with intense devotion and onepointed mind. (Cf.VIII.14XVIII.66)
9.22 On the other hand, ye janah, those persons, the monks, who are desireless and fully illumined; who ananyah, becoming non-different (from Me), having realized the supreme Deity, Narayana, as their own Self; and cintayantah, becoming meditative; [Having known that I, Vasudeva, am the Self of all, and there is nothing else besides Me.] paryu-pasate mam, worship Me everywhere; [They see Me the one, all-pervading, infinite Reality.] tesam, for them; who have realized the supreme Truth, nitya-abhiyuktanam, who are ever attached (to Me); aham, I; vahami, arrange for; both yoga-kesamam, securing what they lack and preserving what they have. Yoga means making available what one does not have, and ksema means the protection of what one has got. Since but the man of Knowledge is the very Self. (This is) My opinion and he too is dear to Me (7.17,18), therefore they have become My own Self as also dear. Does not the Lord surely arrange for securing what they lack and protecting what they have even in the case of other devotees? This is true. He does arrange for it. But the difference lies in this: Others who are devotees make their own efforts as well for their own sake, to arrange for securing what they lack and protecting what they have. On the contrary, those who have realized non-duality do not make any effrot to arrange for themselves the acisition of what they do not have and the preservation of what they have. Indeed, they desire nothing for themselves, in life or in death. They have taken refuge only in the Lord. Therefore the Lord Himself arranges to procure what they do not have and protect what they have got. If you Yourself are the other gods even, then do not their devotees too worship You alone? Quite so!
9.22 Ananyah etc. [See for example] those who are different [from the above mentioned] and who think of Me. How [do they think] ? They have nothing else : They have no other fruit apart from Me to desire for. Acisition : gaining (realising) My nature not gained (realised) earlier. Security of acisition : protection of the already achieved gain of being well established in the nature of the Bhagavat. On account of this there may not be even a doubt regarding the fall from the Yoga. This is the idea here.
9.22 There are Mahatmas who, excluding everything else and having no other purpose, meditate on Me as their only purpose, because without Me they are unable to sustain themselves. They think of Me and worship Me with all my auspicious attributes and with all my glories. In the case of such devotees aspiring after eternal union with Me, I Myself undertake the responsibility of bringing them to Myself (Yoga translated as prosperity) and of preserving them in that state for ever (Ksema translated as welfare). The meaning is that they do not return to Samsara.
The happiness of my ananya bhaktas however, is given by me, not obtained by pious acts. They are constantly (nityam) versed in, learned in this (abhiyuktanam) and are ignorant of all other things. Or the phrase can mean that they constantly desire to be in my association. I take care of their attainment of wealth (yoga) and their maintenance (ksemam), though they do not expect such things. To say that the Lord simply does these things would be unsuitable. Thus the word “carry,” vahami is used. The use of the word vahami indicates that the Lord bears the burden of maintaining their bodies, in the manner that the householder takes the responsibility for maintaining his own wife and children. One should not say that, like others, their attainment or preservation of bodily needs is due to karma. “Still, since you are atma rama, enjoying within, and indifferent to all things as the Supreme Lord, where is the question of you bearing it?” The sruti says: bhaktir asya bhajanam tad ihamutropadhi-nairasyenamusmin manah-kalpanam etad eva naiskarmyam Bhakti is worship of the Lord, concentrating the mind on him, renouncing all material desires for enjoyment (upadhi) in this world and the next. It destroys all karmas. Gopala Tapani Upanisad, Purva 1.15 Because my ananya devotee has no karma due to lack of desire (naiskarmayam), his happiness is given by me. Though I am indifferent to all else, I have great affection for my devotee. This is the cause. One should also not say that in giving the burden of their maintenance to their worshipable Lord, the devotees show lack of prema. In fact, they do not give to me that burden. I, by my own will, accept it. It should also be understood that I am not bearing it as a duty, as I create and maintain the universe by my will alone. Rather, being attached to my devotees, 1 take the greatest pleasure in taking care of their needs, like carrying the weight of one’s lover.
This verse clearly and distinctly confirms that the devotees of the Supreme Lord Krishna who are completely absorbed in reflecting upon Him and who have no other desire then pleasing Him by activities or by meditation are blessed by His grace to the degree that their welfare, their maintenance, their protection, their achievement of moksa or liberation from the cycle of birth and death as well as their ascension to Him in the eternal spiritual realms are all sanctioned and arranged by the Supreme Lord Himself for His exclusive devotees who never even think of asking anything in return for what they offer with devotional love.
The word ananyas means exclusivity. It refers to those who are always focused on the qualities and pastimes of the Supreme Lord Krishna or any of His authorised incarnations and expansions revealed in Vedic scriptures. The Gautama Parva states: Renouncing all desires in the mind, when nothing else remains other than remembrance of the pure, primeval Supreme Lord they the meditators who possess equanimity in all respects are verily ananya and attain Him. In the Moksa Dharma it states: That by Superior desire for the Supreme Lord with all faculties and senses concentrated in communion with Him time and space is transcended and it is possible to perceive the Supreme Lord within the heart enveloped in a halo of light.
The word ananyas meaning exclusivity refers to those who have excluded themselves from all other desires except the Supreme Lord Krishna who is their sole source of joy and only center of hope. Always meditating upon Him day and night in terms of his qualities and pastimes as well as what He may be doing and reflecting in relation to them. Deprivation of such meditation and reflections would be tantamount to cessation of their very lives, hence incessant remembrance of the Supreme Lord is wonderful for them in and of itself. The mahatmanas or great, noble beings of this description who devoutly contemplate the Supreme Lord in all His glory and splendour as the source of all glory and splendour throughout the cosmos all over creation and furthermore who contemplating Him thus intensely aspire for eternal communion and association with Him. Then the Supreme Lord Himself accomplishes that yoga or the attainment of the individuals consciousness in communion with the His ultimate consciouness. The word kseman means perpetually this denotes that it is eternal and indicates that there is no return back to the material existence for those so exclusively devoted.
The word ananyas meaning exclusivity refers to those who have excluded themselves from all other desires except the Supreme Lord Krishna who is their sole source of joy and only center of hope. Always meditating upon Him day and night in terms of his qualities and pastimes as well as what He may be doing and reflecting in relation to them. Deprivation of such meditation and reflections would be tantamount to cessation of their very lives, hence incessant remembrance of the Supreme Lord is wonderful for them in and of itself. The mahatmanas or great, noble beings of this description who devoutly contemplate the Supreme Lord in all His glory and splendour as the source of all glory and splendour throughout the cosmos all over creation and furthermore who contemplating Him thus intensely aspire for eternal communion and association with Him. Then the Supreme Lord Himself accomplishes that yoga or the attainment of the individuals consciousness in communion with the His ultimate consciouness. The word kseman means perpetually this denotes that it is eternal and indicates that there is no return back to the material existence for those so exclusively devoted.
Ananyaashchintayanto maam ye janaah paryupaasate; Teshaam nityaabhiyuktaanaam yogakshemam vahaamyaham.
ananyāḥ—always; chintayantaḥ—think of; mām—Me; ye—those who; janāḥ—persons; paryupāsate—worship exclusively; teṣhām—of them; nitya abhiyuktānām—who are always absorbed; yoga—supply spiritual assets; kṣhemam—protect spiritual assets; vahāmi—carry; aham—I