यान्ति देवव्रता देवान् पितृ़न्यान्ति पितृव्रताः।
भूतानि यान्ति भूतेज्या यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्।।9.25।।
।।9.25।। देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं? पितरपूजक पितरों को जाते हैं? भूतों का यजन करने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मुझे पूजने वाले भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं।।
।।9.25।। जीवन का यह नियम है कि जैसे तुम विचार करोगे वैसे तुम बनोगे। जैसी वृत्ति वैसा व्यक्ति। समयसमय पर किये गये विचारों के अनुसार व्यक्ति के भावी चरित्र का रेखाचित्र अन्तकरण में खिंच जाता है। यह एक ऐसा तथ्य है? जिसकी सत्यता का अनुभव प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन में ही हो सकता है। मनोविज्ञान के इस नियम को आत्मविकास के आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रयुक्त करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं? देवताओं के पूजक देवताओं को प्राप्त होते हैं इत्यादि। देवता? पितर? भूतों के पूजक लोग जब दीर्घकाल तक एकाग्रचित्त से अपने इष्ट की पूजा और भक्ति करते हैं? तब उसके परिणामस्वरूप उनकी इच्छायें पूर्ण होती हैं।देवता ज्ञानेन्द्रियों के अधिष्ठाता हैं। हमें जगत् का अनुभव ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा ही होता है। यहाँ देवताओं से आशय इन्द्रियों के द्वारा अनुभूत सम्पूर्ण भौतिक जगत् से है। जो लोग निरन्तर बाह्य जगत् के सुख और यश की कामना एवं तत्प्राप्ति के लिए प्रयत्न करते हैं? वे अपने इच्छित अनुभवों के विषय और क्षेत्र को प्राप्त होते है।पितृव्रता शब्द का अर्थ है? वे लोग जो अपने पितरों की सांस्कृतिक शुद्धता और परम्परा के प्रति जागरूक हैं? तथा जो उन्हीं आदर्शों के अनुरूप जीवन जीने का उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते हैं। जो व्यक्ति आध्यात्मिक भारत की प्राचीन सांस्कृतिक परम्परा के अनुसार जीने का सतत प्रयत्न करता है? वह? फलत? इस शुद्धता एवं पूर्णता के अत्युत्तम जीवन की सुन्दरता और आभा प्राप्त करता है।हमारी भारत भूमि के प्राचीन ऋषियों ने इस तथ्य की कभी उपेक्षा नहीं की कि किसी भी समाज में? आध्यात्मिक आदर्शों के अतिरिक्त? वैज्ञानिक अन्वेषण तथा प्रकृति के गर्भ में निहित अनेक नियमों एवं वस्तुओं का अविष्कार भी होता रहता है। भौतिक विज्ञानों के क्षेत्र में होने वाले अन्वेषण और अनुसंधान मानव मन की जिज्ञासा का ही एक अंग हैं। अत भूतों के पूजक से तात्पर्य उन वैज्ञानिकों से है? जो प्रकृति का निरीक्षण करते हैं और निरीक्षित नियमों का वर्गीकरण कर उस ज्ञान को सुव्यवस्थित रूप देते हैं। आधुनिक युग में प्रकृति? वस्तु? व्यक्ति एवं प्राणियों के अध्ययन का ज्ञान जिन शाखाओं के अन्तर्गत किया जाता है? वे भौतिकशास्त्र? रसायनशास्त्र? यान्त्रिकी? कृषि? राजनीति? समाजशास्त्र? भूगोल? इतिहास? भूगर्भशास्त्र आदि हैं। इन शास्त्रों में भी अनेक शाखायें होती हैं? जिनका विशेष रूप से अध्ययन करके लोग उस शाखा के विशेषज्ञ बनते हैं। अथर्ववेद के एक बहुत बड़े भाग में उस काल के ऋषियों को अवगत प्रकृति के स्वभाव एवं व्यवहार के सिद्धांत दिये गये हैं। भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा यहाँ कथित मनोविज्ञान का नियम मनुष्य के सभी कर्मों के क्षेत्रों में लागू होता है। वह नियम है किसी भी क्षेत्र में मनुष्य द्वारा किये गये प्रयत्नों के समान अनुपात में उसे सफलता प्राप्त होती है।इस प्रकार? यदि देवता? पितर और भूतों की पूजा करने से अर्थात् उनका निरन्तर चिन्तन करने से क्रमश देवता? पैतृक परम्परा और प्रकृति के रहस्यों को जानकर भौतिक जगत् में सफलता प्राप्त होती है? तो उसी सिद्धांत के अनुसार हमें वचन दिया गया है कि? मेरे भक्त मुझे ही प्राप्त होते हैं। एकाग्र चित्त से आत्मस्वरूप पर सतत दीर्घकाल तक ध्यान करने पर साधक अपने सनातन? अव्यय आत्मस्वरूप का सफलतापूर्वक साक्षात् अनुभव कर सकता है। सतत आत्मानुसंधान के फलस्वरूप अन्त में जीव की आत्मस्वरूप में ही परिणति को वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में भ्रमरकीट न्याय द्वारा दर्शाया गया है।गीता का प्रयोजन और प्रयत्न ज्ञान के साथ विज्ञान अर्थात् अनुभव को भी प्रदान करता है। इस श्लोक का प्रयोजन साधक को यह विश्वास दिलाना है कि यहाँ कथित प्रारम्भिक साधना के द्वारा परम पुरुषार्थ की भी प्राप्ति हो सकती है। जिस प्रकार समर्पित होकर भौतिक जगत् में कार्य करने पर भौतिक सफलता मिलती है? वही नियम आन्तरिक जगत् के सम्बन्ध में भी सत्य प्रमाणित होता है। इसका पर्यवसान आध्यात्मिक साक्षरता में होता है। सतत ध्यान अवश्य ही फलदायक होगा। भगवान् के इस आश्वासन का तर्कसंगत कारण इस श्लोक में दिया गया है।क्या भक्ति पूर्वक की गई पूजा मात्र से ऐसे परमार्थ की प्राप्ति हो सकती है क्या हमको वेदोक्त कर्मकाण्ड के अनुष्ठान की आवश्यकता नहीं है? जिसके पालन के लिए प्राय वेदों में आग्रह किया गया है इस पर भगवान् कहते हैं --