पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।।
।।9.26।।जो भक्त पत्र? पुष्प? फल? जल आदि (यथासाध्य प्राप्त वस्तु) को भक्तिपूर्वक मेरे अर्पण करता है? उस मेरेमें तल्लीन हुए अन्तःकरणवाले भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये हुए उपहार(भेंट) को मैं खा लेता हूँ।
।।9.26।। जो कोई भी भक्त मेरे लिए पत्र? पुष्प? फल? जल आदि भक्ति से अर्पण करता है? उस शुद्ध मन के भक्त का वह भक्तिपूर्वक अर्पण किया हुआ (पत्र पुष्पादि) मैं भोगता हूँ अर्थात् स्वीकार करता हूँ।।
।।9.26।। व्याख्या -- [भगवान्की अपरा प्रकृतिके दो कार्य हैं -- पदार्थ और क्रिया। इन दोनोंके साथ अपनी एकता मानकर ही यह जीव अपनेको उनका भोक्ता और मालिक मानने लग जाता है और इन पदार्थों और क्रियाओंके भोक्ता एवं मालिक भगवान् हैं -- इस बातको वह भूल जाता है। इस भूलको दूर करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं कि पत्र? पुष्प? फल आदि जो कुछ पदार्थ हैं और जो कुछ क्रियाएँ हैं (9। 27)? उन सबको मेरे अर्पण कर दो? तो तुम सदासदाके लिये आफतसे छूट जाओगे (9। 28)।दूसरी बात? देवताओंके पूजनमें विधिविधानकी? मन्त्रों आदिकी आवश्यकता है। परन्तु मेरा तो जीवके साथ स्वतःस्वाभाविक अपनेपनका सम्बन्ध है? इसलिये मेरी प्राप्तिमें विधियोंकी मुख्यता नहीं है। जैसे? बालक माँकी गोदीमें जाय? तो उसके लिये किसी विधिकी जरूरत नहीं है। वह तो अपनेपनके सम्बन्धसे ही माँकी गोदीमें जाता है। ऐसे ही मेरी प्राप्तिके लिये विधि? मन्त्र आदिकी आवश्यकता नहीं है? केवल अपनेपनके दृढ़ भावकी आवश्यकता है।]पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति -- जो भक्त अनायास यथासाध्य प्राप्त पत्र (तुलसीदल आदि)? पुष्प? फल? जल आदि भी प्रेमपूर्वक भगवान्के अर्पण करता है? तो भगवान् उसको खा जाते हैं। जैसे? द्रोपदीसे पत्ता लेकर भगवान्ने खा लिया और त्रिलोकीको तृप्त कर दिया। गजेन्द्रने सरोवरका एक पुष्प भगवान्के अर्पण करके नमस्कार किया? तो भगवान्ने गजेन्द्रका उद्धार कर दिया। शबरीके दिये हुए फल पाकर भगवान् इतने प्रसन्न हुए कि जहाँ कहीं भोजन करनेका अवसर आया? वहाँ शबरीके फलोंकी प्रशंसा करते रहे (टिप्पणी प0 514.1)। रन्तिदेवने अन्त्यजरूपसे आये भगवान्को जल पिलाया तो उनको,भगवान्के साक्षात् दर्शन हो गये।जब भक्तका भगवान्को देनेका भाव बहुत अधिक बढ़ जाता है? तब वह अपनेआपको भूल जाता है। भगवान् भी भक्तके प्रेममें इतने मस्त हो जाते हैं कि अपनेआपको भूल जाते हैं। प्रेमकी अधिकतामें भक्तको इसका खयाल नहीं रहता कि मैं क्या दे रहा हूँ? तो भगवान्को भी यह खयाल नहीं रहता कि मैं क्या खा रहा हूँ जैसे? विदुरानी प्रेमके आवेशमें भगवान्को केलोंकी गिरी न देकर छिलके देती है? तो भगवान् उन छिलकोंको भी गिरीकी तरह ही खा लेते हैं (टिप्पणी0 514.2)।तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः -- भक्तके द्वारा प्रेमपूर्वक दिये गये उपहारको भगवान् स्वीकार ही नहीं कर लेते? प्रत्युत उसको खा लेते हैं -- अश्नामि। जैसे? पुष्प सूँघनेकी चीज है? पर भगवान् यह नहीं देखते कि यह खानेकी चीज है या नहीं वे तो उसको खा ही लेते हैं। उसको आत्मसात् कर लेते हैं? अपनेमें मिला लेते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि भक्तका देनेका भाव रहता है? तो भगवान्का भी लेनेका भाव हो जाता है। भक्तमें भगवान्को खिलानेका भाव आता है? तो भगवान्को भी भूख लग जाती हैप्रयतात्मनःका तात्पर्य है कि जिसका अन्तःकरण भगवान्में तल्लीन हो गया है? जो केवल भगवान्के ही परायण है? ऐसे प्रेमी भक्तके दिये हुए उपहार(भेंट) को भगवान् स्वयं खा लेते हैं।यहाँ पत्र? पुष्प? फल और जल -- इन चारोंका नाम लेनेका तात्पर्य यह है कि पत्र? पुष्प और फल -- ये तीनों जलसे पैदा होनेके कारण जलके कार्य हैं और जल इनका कारण है। इसलिये ये पत्र? पुष्प आदि कार्यकारणरूप मात्र पदार्थोंके उपलक्षण हैं क्योंकि मात्र सृष्टि जलका कार्य है और जल उसका कारण है। अतः मात्र पदार्थोंको भगवान्के अर्पण करना चाहिये।इस श्लोकमें भक्त्या और भक्त्युपहृतम् -- इस रूपमें भक्ति शब्द दो बार आया है। इनमें भक्त्या पदसे भक्तका भक्तिपूर्वक देनेका भाव है और भक्त्युपहृतम् पद भक्तिपूर्वक दी गयी वस्तुका विशेषण है। तात्पर्य यह हुआ कि भक्तिपूर्वक देनेसे वह वस्तु भक्तिरूप? प्रेमरूप हो जाती है? तो भगवान् उसको आत्मसात् कर लेते हैं अपनेमें मिला लेते हैं क्योंकि वे प्रेमके भूखे हैं।विशेष बातइस श्लोकमें पदार्थोंकी मुख्यता नहीं है? प्रत्युत भक्तके भावकी मुख्यता है क्योंकि भगवान् भावके भूखे हैं पदार्थोंके नहीं। अतः अर्पण करनेवालेका भाव मुख्य (भक्तिपूर्ण) होना चाहिये। जैसे? कोई अत्यधिक गुरुभक्त शिष्य हो? तो गुरुकी सेवामें उसका जितना समय? वस्तु? क्रिया लगती है? उतना ही उसको आनन्द आता है? प्रसन्नता होती है। इसी तरह पतिकी सेवामें समय? वस्तु? क्रिया लगनेपर पतिव्रता स्त्रीको बड़ा आनन्द आता है क्योंकि पतिकी सेवामें ही उसको अपने जीवनकी और वस्तुकी सफलता दीखती है। ऐसे ही भक्तका भगवान्के प्रति प्रेमभाव होता है? तो वस्तु चाहे छोटी हो या बड़ी हो? साधारण हो या कीमती हो? उसको भगवान्के अर्पण करनेमें भक्तको बड़ा आनन्द आता है। उसका भाव यह रहता है कि वस्तुमात्र भगवान्की ही है। मेरेको भगवान्ने सेवापूजाका अवसर दे दिया है -- यह मेरेपर भगवान्की विशेष कृपा हो गयी है इस कृपाको देखदेखकर वह प्रसन्न होता रहता है।भावपूर्वक लगाये हुये भोगको भगवान् अवश्य स्वीकार करते हैं? चाहे हमें दीखे या न दीखे। इस विषयमें एक आचार्य कहते थे कि हमारे मन्दिरमें दीवालीसे होलीतक अर्थात् सरदीके दिनोंमें ठाकुरजीको पिस्ता? बादाम? अखरोट? काजू? चिरौंजी आदिका भोग लगाया जाता था परन्तु जब यह बहुत महँगा हो गया? तब हमने मूँगफलीका भोग लगाना शुरू कर दिया। एक दिन रातमें ठाकुरजीने स्वप्नमें कहा -- अरे यार तू मूँगफली,ही खिलायेगा क्या उस दिनके बाद फिर मेवाका भोग लगाना शुरू कर दिया। उनको यह विश्वास हो गया कि जब ठाकुरजीको भोग लगाते हैं? तब वे उसे अवश्य स्वीकार करते हैं।भोग लगानेपर जिन वस्तुओंको भगवान् स्वीकार कर लेते हैं? उन वस्तुओंमें विलक्षणता आ जाती है अर्थात् उन वस्तुओंमें स्वाद बढ़ जाता है? उनमें सुगन्ध आने लगती है उनको खानेपर विलक्षण तृप्ति होती है? वे चीजें कितने ही दिनोंतक पड़ी रहनेपर भी खराब नहीं होतीं आदिआदि। परन्तु यह कसौटी नहीं है कि ऐसा होता ही है। कभी भक्तका ऐसा भाव बन जाय तो भोग लगायी हुई वस्तुओंमें ऐसी विलक्षणता आ जाती है -- ऐसा हमने सन्तोंसे सुना है।मनुष्य जब पदार्थोंकी आहुति देते हैं तो वह यज्ञ हो जाता है चीजोंको दूसरोंको दे देते हैं तो वह दान कहलाता है? संयमपूर्वक अपने काममें न लेनेसे वह तप हो जाता है और भगवान्के अर्पण करनेसे भगवान्के साथ योग (सम्बन्ध) हो जाता है -- ये सभी एक त्यागके ही अलगअलग नाम हैं। सम्बन्ध -- संसारमात्रके दो रूप हैं -- पदार्थ और क्रिया। इनमें आसक्ति होनेसे ये दोनों ही पतन करनेवाले होते हैं। अतः पदार्थ अर्पण करनेकी बात पूर्वश्लोकमें कह दी और अब आगेके श्लोकमें क्रिया अर्पण करनेकी बात कहते हैं।
।।9.26।। विश्व में कोई ऐसा धर्म नहीं है? जो भक्तों द्वारा ईश्वर को उपहार देने को मान्यता और प्रोत्साहन न देता हो। आधुनिक शिक्षित पुरुष को वास्तव में आश्चर्य होता है कि आखिर अनन्त परमात्मा को अपने दीपक के लिए तेल या एक मोमबत्ती या रहने के लिए मन्दिर या मस्जिद के रूप में एक घर जैसी क्षुद्र वस्तुओं की आवश्यकता क्यों होती है विपरीत धारणाओं के विष से विषाक्त हुई शुष्क व आनन्दहीन बुद्धि के लोग निर्लज्जतापूर्वक इसका भी आग्रह करने लगे हैं कि ईश्वर के इन घरों को अस्पताल? विद्यालय? मानसिक चिकित्सालय और प्रसूति गृहों में परिवर्तित कर देना चाहिए।परन्तु मेरा विश्वास है कि मैं ऐसे समाज को सम्बोधित कर रहा हूँ? जो कमसेकम अभी तो नैतिक पतन के अधोबिन्दु तक नहीं पहुँचा है। जिस समाज में अभी भी भावनापूर्ण स्वस्थ हृदय के विवेकशील लोग रहते हैं? वहाँ निश्चय ही मन्दिरों और पूजा की आवश्यकता है। यह भी ध्यान में रखने की बात है कि इन मन्दिरों में उनकी कलाकौशल पूर्ण रचना? कर्मकाण्ड का आडम्बर या स्वर्णाभूषणों की चमक और धन का प्रदर्शन उनकी सफलता के मूल कारण नहीं हैं। यहाँ तक कि प्रतिदिन वहाँ आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या पर भी उनकी सफलता निर्भर नहीं करती।इस श्लोक की प्रत्यक्ष भाषा और शैली ही यह स्पष्ट करती है कि विश्वपति भगवान् को इन भौतिक वस्तुओं का कोई मूल्य और महत्व नहीं है। वे अपने भक्त का वह प्रेम और भक्ति स्वीकार करते हैं जिससे प्रेरित होकर वह अल्प उपहार भगवान् को अर्पण करता है फिर अर्पित की हुई वस्तु चाहे पत्र? पुष्प? फल? या स्वर्ण मन्दिर हो? उसका महत्त्व नहीं भगवान् कहते हैं? शुद्धचित्त के उस भक्त के द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित वह उपहार मैं स्वीकार करता हूँ।इस श्लोक में विशेष रूप से चुनकर कुछ शब्दों का प्रयोग किया गया है जो त्याग और अर्पण के उस सिद्धांत को स्पष्ट करता है? जिस पर सभी धर्मों का आग्रह होता है। इसमें सन्देह नहीं है कि परमात्मा को अपना पूर्णत्व पूर्ण करने के लिए अथवा अनन्त वैभव को बनाये रखने के लिए भक्तों के उपहारों की आवश्यकता नहीं होती। भक्तगण अपने इष्ट देवता को कुछनकुछ अर्पण करना चाहते हैं? जो वास्तव में भगवान् के द्वारा निर्मित जगत् रूप उपवन की ही एक वस्तु होती है? जिसका भक्तजन उपयोग कर रहे थे। एक सार्वजनिक उपवन में भी कोई प्रेमी वहीं से फूल तोड़कर अपनी प्रेमिका को भेंट देता है। इसी प्रकार? भक्त भी भगवान् के ही उपवन से वस्तु चुराकर उन्हें ही पुन अर्पित करता है। विचार करने से ज्ञात होता है कि वास्तव में? भगवान् को कुछ भेंट देने का हमारा अभिमान कितना वृथा और खोखला है।फिर भी? ईश्वर की सब प्रकार की पूजाओं में उन्हें कुछ अर्पण करने का महत्त्वपूर्ण विधान है? जिसके पालन पर विशेष बल दिया जाता है। पत्रपुष्पादि अर्पण करते समय यदि भक्त यह समझता है कि वह उन वस्तुओं को ही समर्पित कर रहा है? तो वह इस विधान का ही दुरुपयोग कर रहा है। वह अर्पण के सिद्धांत को नहीं जानता है। यहाँ पुष्प आदि का प्रयोजन एक चम्मच के समान है। भोजन के समय हम चम्मच का उपयोग किसी खाद्य पदार्थ को मुँह तक ले जाने में करते हैं परन्तु भोजनोपरान्त चम्मच थाली में ही रखा रहता है। बगीचे में या मन्दिर में फूलफल आदि रहते ही हैं परन्तु जब एक भक्त उन्हें तोड़कर भगवान् को अर्पण करता है तब वे उसके प्रेम और समर्पण को व्यक्त करने के माध्यम बन जाते हैं।यही बात भगवान यहाँ स्पष्ट करते हैं कि? शुद्ध बुद्धि के भक्त द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पित वस्तु को मैं स्वीकार करता हूँ।इसलिए भगवान को कुछ अर्पण करने की क्रिया प्रभावपूर्ण होने के लिए दो बातों की आवश्यकता है (क) वह उपहार भक्तिपूर्वक अर्पण किया गया हो तथा (ख) वह शुद्ध बुद्धि के भक्त द्वारा अर्पण किया गया हो। इन दोनों बातों के बिना अर्पण केवल आर्थिक अपव्यय है और अन्धश्रद्धा तथा मिथ्याविश्वास है। यदि उसका उचित अनुसरण किया जाय तो आत्मविकास के आध्यात्मिक मार्ग के लिए उपयुक्त वाहन बन जाता है।इसलिए --