शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि।।9.28।।
।।9.28।।इस प्रकार मेरे अर्पण करनेसे जिनसे कर्मबन्धन होता है? ऐसे शुभ (विहित) और अशुभ,(निषिद्ध) सम्पूर्ण कर्मोंके फलोंसे तू मुक्त हो जायगा। ऐसे अपनेसहित सब कुछ मेरे अर्पण करनेवाला और सबसे मुक्त हुआ तू मेरेको प्राप्त हो जायगा।
।।9.28।। इस प्रकार तुम शुभाशुभ फलस्वरूप कर्मबन्धनों से मुक्त हो जाओगे और संन्यासयोग से युक्तचित्त हुए तुम विमुक्त होकर मुझे ही प्राप्त हो जाओगे।।
।।9.28।। व्याख्या -- शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनैः -- पूर्वोक्त प्रकारसे सब पदार्थ और क्रियाएँ मेरे अर्पण करनेसे अर्थात् तेरे स्वयंके मेरे अर्पित हो जानेसे अनन्त जन्मोंके जो शुभअशुभ कर्मोंके फल हैं? उन सबसे तू मुक्त हो जायगा। वे कर्मफल तेरेको जन्ममरण देनेवाले नहीं होंगे।यहाँ शुभ और अशुभकर्मोंसे अनन्त जन्मोंके किये हुए संचित शुभअशुभकर्म लेने चाहिये। कारण कि भक्त वर्तमानमें भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म ही भगवान्को अर्पण करता है। भगवदाज्ञाके अनुसार किये हुए कर्म शुभ ही होते हैं? अशुभ होते ही नहीं। हाँ? अगर किसी रीतिसे? किसी परिस्थितिके कारण? किसी पूर्वाभ्यासके प्रवाहके कारण भक्तके द्वारा कदाचित्? किञ्चिन्मात्र भी कोई आनुषङ्गिक अशुभकर्म बन जाय? तो उसके हृदयमें विराजमान भगवान् उस अशुभकर्मको नष्ट कर देते हैं (टिप्पणी प0 517.1)।जितने भी कर्म किये जाते हैं? वे सभी बाह्य होते हैं अर्थात् शरीर? मन? बुद्धि? इन्द्रियों आदिके द्वारा ही होते हैं। इसलिये उन शुभ और अशुभकर्मोंका अनुकलप्रतिकूल परिस्थितिके रूपमें जो फल आता है? वह भी बाह्य ही होता है। मनुष्य भूलसे उन परिस्थितियोंके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर सुखीदुःखी होता रहता है। यह सुखीदुःखी होना ही कर्मबन्धन है और इसीसे वह जन्मतामरता है। परन्तु भक्तकी दृष्टि अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंपर न रहकर भगवान्की कृपापर रहती है अर्थात् भक्त उनको भगवान्का विधान ही मानता है? कर्मोंका फल मानता ही नहीं। इसलिये वह अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितिरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जाता है।संन्यासयोगयुक्तात्मा -- सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करनेका नाम संन्यासयोग है। इस संन्यासयोग अर्थात् समर्पणयोगसे युक्त होनेवालेको यहाँ संन्यासयोगयुक्तात्मा कहा गया है। ऐसे तो गीतामें बहुत जगह संन्यास शब्द सांख्ययोगका वाचक आता है? पर इसका प्रयोग भक्तिमें भी होता है जैसे -- मयि संन्यस्य (18। 57)।जैसे सांख्ययोगी सम्पूर्ण कर्मोंको मनसे नवद्वारवाले शरीरमें रखकर स्वयं सुखपूर्वक अपने स्वरूपमें स्थित रहता है (गीता 5। 13)? ऐसे ही भक्त कर्मोंके साथ अपने माने हुए सम्बन्धको भगवान्में रख देता है। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे कोई सज्जन अपनी धरोहरको कहीं रख देता है? ऐसे ही भक्त अपनेसहित अनन्त जन्मोंके संचित कर्मोंको? उनके फलोंको और उनके सम्बन्धको भगवान्में रख देता है। इसलिये इसको,संन्यासयोग कहा गया है।विमुक्तो मामुपैष्यसि -- पूर्वश्लोकमें तत्कुरुष्व मदर्पणम् कहकर अर्पण करनेकी आज्ञा दी। यहाँ कहते हैं कि इस प्रकार अर्पण करनेसे तू शुभअशुभकर्मफलोंसे मुक्त हो जायगा। शुभअशुभकर्मफलोंसे मुक्त होनेपर तू मेरेको प्राप्त हो जायगा। तात्पर्य यह हुआ कि सम्पूर्ण कर्मफलोंसे मुक्त होना तो प्रेमप्राप्तिका साधन है और भगवान्की प्राप्ति होना प्रेमकी प्राप्ति है।विशेष बातशुभ (टिप्पणी प0 517.2) और अशुभ कर्मोंका बन्धन क्या हैशुभ अथवा अशुभ किसी भी कर्मको किया जाय? उस कर्मका आरम्भ और अन्त होता है। ऐसे ही उन कर्मोंके फलस्वरूपमें जो परिस्थिति आती है? उसका भी संयोग और वियोग होता है। तात्पर्य यह हुआ कि जब कर्म और उनके फल निरन्तर नहीं रहते? तो फिर उनके साथ सम्बन्ध निरन्तर कैसे रह सकता है परन्तु जब कर्ता (कर्म करनेवाला) कर्मोंके साथ अपनापन कर लेता है? तब उसका फलके साथ सम्बन्ध जुड़ जाता है। यद्यपि कर्म और फलके साथ सम्बन्ध कभी रह नहीं सकता? तथापि कर्ता उस सम्बन्धको अपनेमें मान लेता है। कर्ता स्वयं (स्वरूपसे) नित्य है? इसलिये उस सम्बन्धको अपनेमें स्वीकार करनेसे वह सम्बन्ध भी नित्य प्रतीत होने लगता है।कर्ता शुभकर्मोंका फल चाहता है? जो कि अनुकूल परिस्थितिके रूपमें सामने आता है। उस परिस्थितिमें यह सुख मानता है। जबतक इस सुखकी चाहना रहती है? तबतक वह दुःखसे बच नहीं सकता। कारण कि सुखके आदिमें और अन्तमें दुःख ही रहता है तथा सुखसे भी प्रतिक्षण स्वाभाविक वियोग होता रहता है। जिसके वियोगको यह प्राणी नहीं चाहता? उसका वियोग तो हो ही जाता है? यह नियम है। तात्पर्य यह हुआ कि सुखकी इच्छाको यह नहीं छोड़ता और दुःख इसको नहीं छोड़ता।जीव जब अपनेआपको प्रभुके समर्पित कर देता है? तब (साक्षात् परमात्माका ही अंश होनेसे) इसकी परमात्माके साथ स्वतः अभिन्नता हो जाती है और शरीरके साथ भूलसे माना हुआ सम्बन्ध मिट जाता है। यह परमात्माके साथ अभिन्न तो पहलेसे ही था। केवल अपने लिये कर्म करनेसे इस अभिन्नताका अनुभव नहीं होता था। अब अपनेसहित कर्मोंको भगवान्के अर्पण करनेसे उसकी अपने लिये कर्म करनेकी मान्यता मिट जाती है? तो उसको स्वाभाविक प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है। इसीको भगवान्ने यहाँ विमुक्तो मामुपैष्यसि कहा है।जब यह जीव अपनेआपको भगवान्के समर्पित कर देता है तो फिर उसके समाने जो कुछ अनुकूलप्रतिकूल परिस्थिति आती है? वह सब दया और कृपाके रूपमें परिणत हो जाती है। तात्पर्य है कि जब उसके सामने अनुकूल परिस्थिति आती है? तब वह उसमें भगवान्की दया को मानता है और जब प्रतिकूल परिस्थिति आती है? तब वह उसमें भगवान्की कृपा को मानता है। दया और कृपामें भेद यह है कि कभी भगवान् प्यार? स्नेह करके जीवको कर्मबन्धनसे मुक्त करते हैं -- यह दया है और कभी शासन करके? ताड़ना करके उसके पापोंका नाश करते हैं -- यह कृपा है। इस प्रकार दया और कृपा करके भगवान् भक्तको सबल? सहिष्णु बनाते हैं। परन्तु भक्त तो दोनोंमें ही प्रसन्न रहता है। कारण कि उसकी दृष्टि अनुकूलताप्रतिकूलताकी तरफ न रहकर केवल भगवान्की तरफ ही रहती है। अतः उसकी दृष्टिमें भगवान्की दया और कृपा दो रूपसे नहीं होती? प्रत्युत एक ही रूपसे होती है। जैसे कि कहा है -- लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके।तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयोः।।जिस प्रकार बालकका पालन करने और ताड़ना करने -- दोनोंमें माँकी कहीं अकृपा नहीं होती? उसी प्रकार जीवोंके गुणदोषोंका नियन्त्रण करनेवाले परमेश्वरकी कहीं किसीपर अकृपा नहीं होती।, सम्बन्ध -- अब एक शंका होती है कि जो भगवान्के समर्पित होते हैं? उनको तो भगवान् मुक्त कर देते हैं और जो भगवान्के समर्पित नहीं होते? उनको भगवान् मुक्त नहीं करते -- इसमें तो भगवान्की दयालुता और समता नहीं हुई? प्रत्युत विषमदृष्टि और पक्षपात हुआ इसपर कहते हैं --,
।।9.28।। यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य एक ही होता हैं किन्तु उसकी प्राप्ति के साधनमार्ग अनेक हैं इन मार्गों का सतही अध्ययन करने पर वे परस्पर सर्वथा विपरीत दिखाई पड़ते हैं? तथापि उन सबका वैज्ञानिक आधार एक ही है? जो उन सबकी उपयोगिता एवं औचित्य को न्यायसंगत प्रमाणित करता है। गीता में अनेक स्थलों पर इस मूलभूत आधार को स्पष्टत दर्शाया गया है? तो किन्हीं अन्य स्थानों पर केवल उनका संकेत किया गया हैं फिर भी गीता के सावधान और सजग विद्यार्थी उसे पहचान सकते हैं। प्रस्तुत प्रकरण में इस पर विचार किया गया हैं कि किस प्रकार अर्पण की भावना से जीवन जीते हुए? मनुष्य परम पुरुषार्थ को प्राप्त कर सकता हैं जो कि निदिध्यासन और यज्ञ की भावना का निश्चित फल हैं।यह सर्वविदित तथ्य हैं कि जो कर्म का कर्ता होता हैं? वही कर्मफल का भोक्ता भी होता है। अत यदि हम कर्तृत्वाभिमान से कर्म करें? तो फलोपभोग के लिए भी हमें बाध्य होना पडेगा। इसलिए वेदान्त का सिद्धांत है कि निरहंकार भाव से कर्म किये जाने पर उनसे शुभ या अशुभ दोनों ही प्रकार की वासनाएं उत्पन्न नहीं होती।भगवान् श्रीकृष्ण यहाँ कहते हैं? तुम शुभअशुभ रूप कर्म के बन्धनांे से मुक्त हो जाओगे। कारण यह है कि अहंकार के अभाव में साधक के किये नये कर्मो से वसानाओं में वृद्धि नहीं होती और साथहीसाथ पूर्व संचित वासनाओं का शनैशनै क्षय हो जाता है। संक्षेप में? उस साधक का चित्त अधिकाधिक शुद्ध होता जाता है शास्त्रीय भाषा में इसे चित्तशुद्धि कहते हैं।मन के शुद्ध होने पर उसकी एकाग्रता की शक्ति में वृद्धि हो जाती हैं।विकास की अगली सीढ़ी यह हैं कि इस चित्तशुद्धि के फलस्वरूप साधक की आत्मानात्मविवेक की सार्मथ्य में अभिवृद्धि होती है। फिर वह संन्यास और योग के जीवन का आचरण करता है इन दो शब्दों का विस्तृत विवेचन पूर्व में किया जा चुका है? जिन्हें गीता में वर्णित अर्थ की दृष्टि से समझना चाहिए। संन्यास का अर्थ भौतिक जगत् का त्याग नहीं? वरन् गीता की भाषा में? संन्यास का अर्थ है (क) अहंकार से प्रेरित सब कर्मों का त्याग? और (ख) कर्मफल के साथ आसक्ति का त्याग। जो पुरुष परिश्रम और उत्साह के साथ अपनी भक्ति की अभिव्यक्ति के रूप में अर्पण का जीवन जीता है? उसके लिए यह दोनों त्याग स्वाभाविक हो जाते हैं। अन्त में वह समस्त फलों को ईश्वर को अर्पण कर देता है।इस प्रकार? संन्यास का जीवन जीते हुए जिस साधक ने विवेक के द्वारा पूर्ण चित्तशुद्धि प्राप्त कर ली हैं उसे आत्मानुसंधानरूप योग सरल हो जाता है इसका कारण यह है कि वह अपने दैनिक कार्यकलापों में भी अनन्त आत्मस्वरूप का स्मरण बनाये रखता है।स्वभावत ऐसा साधन सम्पन्न योग्य अधिकारी पाता है कि उसकी अज्ञान दशा का मिथ्या उपाधियों के साथ तादात्म्य और तज्जिनित परिच्छिन्नता एवं मृत्यु के दुख सर्वथा समाप्त हो गये हैं। स्वस्वरूपानुभूति उसके लिए सहज सिद्ध हो जाती हैं। संन्यास और योग से युक्त हुए तुम मुक्त होकर मुझे प्राप्त हो जाओगे।जिस आत्मस्वरूप की प्राप्ति साधक को होगी? उस आत्मा का स्वरूप क्या है उसे अगले श्लोक में बताते हैं --
9.28 Thus, you will become free from bondage in the form of actions which are productive of good and bad results. Havng your mind inbued with the yoga of renunciation and becoming free, you will attain Me.
9.28 Thus shalt thou be freed from the bonds of actions yielding good and evil fruits; with the mind steadfast in the Yoga of renunciation, and liberated, thou shalt come unto Me.
9.28. Thus, you shall be freed from the good and evi results which are the action-bonds. Having your innate nature immersed in the Yoga of renunciation and (thus) being fully liberated you shall attain Me.
9.28 शुभाशुभफलैः from good and evil fruits? एवम् thus? मोक्ष्यसे (thou) shalt be freed? कर्मबन्धनैः from the bonds of actions? संन्यासयोगयुक्तात्मा with the mind steadfast in the Yoga of renunciation? विमुक्तः liberated? माम् to Me? उपैष्यसि (thou) shalt come.Commentary Evam Thus -- when you thus offer everything to Me.Renunciation of the fruits of all works is Sannyasa. He who is eipped with the mind steadfast in the Yog of renunciation is Sannyasayogayuktatma. The act of offering everything unto the Lord,constitutes the Yoga of renunciation. It is also Yoga as it is an action. With the mind endowed with renunciation and Yoga thou shalt be freed from good and evil results while yet living and thou shalt come unto Me when this body falls.An objector says? Then the Lord has love and hatred as He confers His grace on His devotees only and not on others.The answer is? Not so. The Lord is impartial and is beyond love and hatred. His grace flows towards all. But the devotee recieves it freely as he has opened his heart to the reception of His grace.This is explained in the next verse.
9.28 By dedicating to Me evam, thus; maksyase, you will become free; karma-bandhanaih, from bondage in the form of actions-actions themselves being the bonds; subha-asubha-phalaih, which are productive of good and bad results-i.e. from actions that have desirable (subha) and undesireable (asubha) results (phala). Sannyasa, renunciation, is that which results from dedication (of actions) to Me, and that is also yoga since it involves actions. He who has his mind (atma) endowed (yukta) with that yoga of renunciation (sannyasa-yoga) is sannyasa-yoga-yukta-atma. You, being such, having your mind endowed with the yoga of renunciation, and vimuktah, becoming free from the bonds of actions evern while living; upaisyasi, will attain, come; mam, to Me, when this body falls. In that case the Lord is possessed of love and hatred inasmuch as He favours the devotees, and not others? That is not so:
9.27-28 Yat karosi etc. Subhasubha - etc. Because the performers of sacrifices intending other deities have in their mind only limited purpose, and [hence] belitle the [principal] result [of the sacrifice etc.]; therefore all [actions] you should offer, by the method advised above, to Me i.e., consider them to be absorbed in Me (or to be born of Me). This is the renunciation-Yoga. Extensively it has already been made almost ite clear.
9.28 Thus, eipped with a mind which is firmly set in Yoga, called Sannyasa, considering yourself as one whose delight lies in being a subsidiary (Sesa) to Me and subject to My control and all acts to be My worship, and engaging yourself in secular and Vedic actions with such an attitude, you will free yourself from countless bonds, called ancient Karmas, productive of auspicious and inauspicious results which stands as a hindrance preventing you from attaining Me. Freed from them, you shall come to Me only. Listen now, to My supreme nature which transcends the world:
You will be liberated from the bondage of karma in the form of unlimited sinful and pious reactions. The sruti says, bhaktir asya bhajanam tad ihamutropadhi-nairasyenaivamusmin manah-kalpanam etad eva ca naiskarmyam Bhakti is worship of the Lord, concentrating the mind on him, renouncing all material desires for enjoyment in this world and the next. It destroys all karmas. Gopala Tapani Upanisad 1.15 You, with mind engaged in renunciation of the results of action (sannyasa yoga), will not only be liberated, but being preeminent among the liberated souls (vimuktah), will attain me. You will come near me to serve me directly. Smrti says: muktanam api siddhanam narayana-parayanah sudurlabhah prasantatma kotisv api mahamune O great sage, among many millions who are liberated and perfect in knowledge of liberation, one may be a devotee of Lord Narayana, or Krishna. Such devotees, who are fully peaceful, are extremely rare. SB 6.14.5 Sukadeva has also said: muktim dadati karhicit sma na bhakti-yogam Those engaged in getting the Lord’s favor attain liberation from the Lord very easily, but He does not very easily give the opportunity to render direct service unto Him. SB 5.6.18 This goal, with direct service to me, is far superior to liberation That is indicated in this verse.
Now Lord Krishna explains the benefits one will receive by offering everything as an act of devotion to Him as declared in the previous verse. By performing all Vedically authorised actions as an offering to the Supreme Lord one will no longer be bound by the bondage of karma or reactions to actions which results in both positive and negative consequences. By offering everything one thinks and does to the Supreme Lord, ones ongoing connection to karma is permanently neutralised and severed by the Supreme Lord Himself and under His indomitable shelter with ones mind endowed with the sublime state of renznciation one will undoubtedly attains Him.
The words evam moksyase means by performing all actions in this way one will by liberated refers to the devotees of the Supreme Lord who do everything exclusively for His pleasure and propitiate Him in the true sense of worship whether they are knowledgeable or not. One who is not knowledgeable of the Supreme Lord is deluded and on receiving material boons from pandering to lesser gods is deported back to the material worlds of unawareness after enjoying the fruits of their merits. These are deluded activities of the deluded who are not only unaware of the absolute position of the Supreme Lord Krishna but also are in the darkness of ignorance regarding the Him being the ultimate reality. Thus in conclusion without knowing the paramount supremacy of the Supreme Lord Krishna as the controller of all creation and all existence and all the demigods and every other god; all knowledge no matter how profound or esoteric is superfluous without any foundation because it is not understood in the correct context as being connected to Him.
The words sannyasa-yoga means the individual consciousness attaining communion with theultimate consciousness by the complete surrendering and offering of everything one has and is unto the Supreme Lord Krishna. One whose nature has found refuge in such inner resignation is known as a yuktatma or a renunciate of the eternal soul. Thus constantly meditating on the atma or soul as being the eternal part of themselves and the Supreme Lord and realizing that they are totally under His control they perform all actions whether they are natural, scriptural, daily or occasional as direct intended propitiation to Him. Thus thinking and acting in this way they are released from the fetters of all karma or reactions to actions from the immeasurable past which barricades the path leading to the Supreme Lord from time immemorial and being freed from them attain the eternal spiritual worlds in association with the Supreme Lord. Next here about His transcendental and paramount nature beyond the sway of material nature.
The words sannyasa-yoga means the individual consciousness attaining communion with theultimate consciousness by the complete surrendering and offering of everything one has and is unto the Supreme Lord Krishna. One whose nature has found refuge in such inner resignation is known as a yuktatma or a renunciate of the eternal soul. Thus constantly meditating on the atma or soul as being the eternal part of themselves and the Supreme Lord and realizing that they are totally under His control they perform all actions whether they are natural, scriptural, daily or occasional as direct intended propitiation to Him. Thus thinking and acting in this way they are released from the fetters of all karma or reactions to actions from the immeasurable past which barricades the path leading to the Supreme Lord from time immemorial and being freed from them attain the eternal spiritual worlds in association with the Supreme Lord. Next here about His transcendental and paramount nature beyond the sway of material nature.
Shubhaashubhaphalairevam mokshyase karmabandhanaih; Sannyaasayogayuktaatmaa vimukto maamupaishyasi.
śhubha aśhubha phalaiḥ—from good and bad results; evam—thus; mokṣhyase—you shall be freed; karma—work; bandhanaiḥ—from the bondage; sanyāsa-yoga—renunciation of selfishness; yukta-ātmā—having the mind attached to Me; vimuktaḥ—liberated; mām—to Me; upaiṣhyasi—you shall reach