अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः।।9.30।।
।।9.30।। यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभाव से मेरा भक्त होकर मुझे भजता है? वह साधु ही मानने योग्य है? क्योंकि वह यथार्थ निश्चय वाला है।।
।।9.30।। जिस विशेष अर्थ में भक्ति शब्द गीता में प्रयुक्त है उसकी यहाँ गौरवमयी प्रशंसा की गई है। भक्ति में प्रत्येक साधक पर होने वाले प्रभाव को दर्शाकर भक्ति का माहात्म्य यहाँ बताया गया है। गीता में वर्णित भक्ति का अर्थ है एकाग्रचित्त से अद्वैत स्वरूप ब्रह्म का आत्मरूप से अर्थात् एकत्वभाव से ध्यान करना। इस भक्ति साधना का अभ्यास दीर्घ काल तक आवश्यक तीव्रता और लगन से करने पर साधक के होने वाले विकास का क्रम यहाँ दर्शाया गया है।साधारणत? लोगों के मन में कुछ ऐसी धारणा बन गई है कि एक दुष्ट पापी या हतोत्साहित अपराधी वह बहिष्कृत व्यक्ति है? जो कदापि स्वर्ग के आंगन में प्रवेश करने का साहस नहीं कर सकता है। भ्रष्ट या अनैतिक पुरुष की ऐसी निन्दा करना वैदिक साहित्य के तात्पर्य और मर्म को विपरीत समझना है। यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है। वेद पाप की निन्दा करते हैं? पापी की नहीं। पापी के पापपूर्ण कर्म उसके मन में स्थित अशुभ विचारों की केवल अभिव्यक्ति हैं। अत? यदि उसके विचारों की रचना या दिशा को बदला जा सके? तो उसके व्यवहार में भी निश्चित रूप से परिवर्तन होगा। जो व्यक्ति? समृद्ध होती हुई भक्ति के वातावरण में? अपने मन में सतत्ा ईश्वर को बनाये रखने में सफल हो गया है? उसके मानसिक जीवन का पुनर्वास इस प्रकार सम्पन्न होता है कि तत्पश्चात् वह पुन पापाचरण में प्रवृत्त नहीं हो सकता।यदि अतिशय दुराचारी भी मुझे भजता है गीता न केवल पापियों के लिए अपने द्वार खुले रखती है? वरन् ऐसा प्रतीत होता है कि इस दिव्य गान के गायक भगवान् श्रीकृष्ण एक धर्मप्रचारक के उत्साह के साथ समस्त पापियों को मुक्त करके उन्हें सुखी बनाना चाहते हैं। केवल जीवन की अशुद्धता और हीन कर्मों के कारण पापकर्मियों का आध्यात्मिक क्षेत्र में प्रवेश निषेध नहीं किया गया है। आग्रह केवल इस बात का है कि उस भक्त को अनन्य भाव से आत्मा की पूजा और चिन्तन करना चाहिए। यहाँ अनन्य शब्द का अर्थ साधक के मन से तथा ध्येय के स्वरूप से भी सम्बन्धित है। इसका समग्र अर्थ यह होगा कि भक्ति का निर्दिष्ट फल तभी प्राप्त होगा जब भक्त एकाग्रचित्त से अद्वैत और नित्य स्वरूप परमात्मा का ध्यान आत्मरूप से करेगा। इस अद्वैत आत्मा को भक्त के मूल स्वरूप से भिन्न नहीं समझना चाहिए। यही अनन्यभाव है।वह साधु ही मानने योग्य है भक्ति साधना को ग्रहण करने के पूर्व तक कोई व्यक्ति कितना ही दुष्ट और क्रूर क्यों न रहा हो? या उसका जीवन कितना ही अनियन्त्रित कामुकतापूर्ण क्यों न हो? जिस क्षण वह भक्तिपूर्वक आत्मचिन्तन के मार्ग पर प्रथम चरण रखता है? उसी क्षण से वह साधु ही मानने योग्य है? यह भगवान् श्रीकृष्ण का कथन है। इस प्रकार का पूर्वानुमानित कथन का प्रयोग सभी भाषाओं में किया जाता है। जैसे रोटी बनाना या चाय बनाना। वास्तव में केवल आटा गूँथा जा रहा था? या पानी गरम हो रहा था परन्तु फिर भी निकट भविष्य में क्रियाओं की पूर्णता रोटी बनने या चाय बनने में होती है? इसलिए उक्त प्रकार के वाक्य कहे जाते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी जिस क्षण वह पापी पुरुष भक्ति मार्ग का आश्रय लेता है? उसी क्षण से वह साधु कहलाने योग्य हो जाता है? क्योंकि शीघ्र ही वह अपने अवगुणों से मुक्त होकर आध्यात्मिक वैभव के क्षेत्र में विकास और उन्नति को प्राप्त करने वाला होता है। यह पूर्वानुमानित कथन है।ऐसे पुरुष को साधु मानने का कारण यह है कि उसने यथार्थ निश्चय किया है। इस दिव्य जीवन में केवल दिनचर्या की अपेक्षा यथार्थ शुभ निश्चय अधिक महत्त्वपूर्ण है। बहुसंख्यक साधक उदास भाव से चिन्तित हुए अपने मार्ग पर केवल श्रमपूर्वक ऐसे चलते हैं? जैसे भूखे मर रहे पशु कसाईखाने की ओर बढ़ रहे हों ऐसा खिन्न उदास जुलूस कसाई के कुन्दे के अतिरिक्त कहीं और नहीं पहुँच सकता? जहाँ काल उन्हें टुकड़ेटुकड़े कर देता है जो पुरुष स्थिर एवं दृढ़ निश्चयपूर्वक? सजगता और उत्साह? प्रसन्नता और वीरता के साथ इस मार्ग पर अग्रसर होता है? वही निश्चित सफलता के गौरव को प्राप्त करता है। इसलिए? मुरलीमनोहर भगवान् श्रीकृष्ण विशेष बल देकर कहते हैं कि सम्यक् निश्चय कर लेने पर उसी क्षण से अतिशय दुराचारी पुरुष भी साधु ही मानने योग्य है? क्योंकि शीघ्र ही वह सफल ज्ञानी पुरुष बनने वाला है।आपके कथन में हम कैसे विश्वास कर लें इस अनन्यभक्ति का निश्चित प्रभाव क्या होता है इसे स्पष्ट करते हुए कहते हैं --