मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।
।।9.32।।हे पृथानन्दन जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ? वैश्य और शूद्र हों? वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।
।।9.32।। हे पार्थ स्त्री? वैश्य और शूद्र ये जो कोई पापयोनि वाले हों? वे भी मुझ पर आश्रित (मेरे शरण) होकर परम गति को प्राप्त होते हैं।।
।।9.32।। व्याख्या -- मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ৷৷. यान्ति परां गतिम् -- जिनके इस जन्ममें आचरण खराब हैं अर्थात् जो इस जन्मका पापी है? उसको भगवान्ने तीसवें श्लोकमें दुराचारी कहा है। जिनके पूर्वजन्ममें आचरण खराब थे अर्थात् जो पूर्वजन्मके पापी हैं और अपने पुराने पापोंका फल भोगनेके लिये नीच योनियोंमें पैदा हुए हैं? उनको भगवान्ने यहाँ पापयोनि कहा है।यहाँ पापयोनि शब्द ऐसा व्यापक है? जिसमें असुर? राक्षस? पशु? पक्षी आदि सभी लिये जा सकते हैं (टिप्पणी प0 526) और ये सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी माने जाते हैं। शाण्डिल्य ऋषिने कहा है -- आनिन्द्ययोन्यधिक्रियते पारम्पर्यात् सामान्यवत्। (शाण्डिल्यभक्तिसूत्र 78) अर्थात् जैसे दया? क्षमा? उदारता आदि सामान्य धर्मोंके मात्र मनुष्य अधिकारी हैं? ऐसे ही भगवद्भक्तिके नीचीसेनीची योनिसे लेकर ऊँचीसेउँची योनितकके सब प्राणी अधिकारी हैं। इसका कारण यह है कि मात्र जीव भगवान्के अंश होनेसे भगवान्की तरफ चलनेमें? भगवान्की भक्ति करनेमें? भगवान्के सम्मुख होनेमें अनधिकारी नहीं हैं। प्राणियोंकी योग्यताअयोग्यता आदि तो सांसारिक कार्योंमें हैं क्योंकि ये योग्यता आदि बाह्य हैं और मिली हुई हैं तथा बिछुड़नेवाली हैं। इसलिये भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेमें योग्यताअयोग्यता कोई कारण नहीं है अर्थात् जिसमें योग्यता है? वह भगवान्में लग सकता है और जिसमें अयोग्यता है? वह भगवान्में नहीं लग सकता -- यह कोई कारण नहीं है। प्राणी स्वयं भगवान्के हैं अतः सभी भगवान्के सम्मुख हो सकते हैं। तात्पर्य हुआ कि जो हृदयसे भगवान्को चाहते हैं? वे सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी हैं। ऐसे पापयोनिवाले भी भगवान्के शरण होकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं? परम पवित्र हो जाते हैं।लौकिक दृष्टिसे तो आचरण भ्रष्ट होनेसे अपवित्रता मानी जाती है? पर वास्तवमें जो कुछ अपवित्रता आती है? वह सबकीसब भगवान्से विमुख होनेसे ही आती है। जैसे? अङ्गार अग्निसे विमुख होते ही कोयला बन जाता है। फिर उस कोयलेको साबुन लगाकर कितना ही धो लें? तो भी उसका कालापन नहीं मिटता। अगर उसको पुनः अग्निमें रख दिया जाय? तो फिर उसका कालापन नहीं रहता और वह चमक उठता है। ऐसे ही भगवान्के अंश इस जीवमें कालापन अर्थात् अपवित्रता भगवान्से विमुख होनेसे ही आती है। अगर यह भगवान्के सम्मुख हो जाय? तो इसकी वह अपवित्रता सर्वथा मिट जाती है और यह महान् पवित्र हो जाता है तथा दुनियामें चमक उठता है। इसमें इतनी पवित्रता आ जाती है कि भगवान् भी इसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैंजब स्वयं आर्त होकर प्रभुको पुकारता है? तो उस पुकारमें भगवान्को द्रवित करनेकी जो शक्ति है? वह शक्ति शुद्ध आचरणोंमें नहीं है। जैसे? माँका एक बेटा अच्छा काम करता है तो माँ उससे प्यार करती है और एक बेटा कुछ भी काम नहीं करता? प्रत्युत आर्त होकर माँको पुकारता है? रोता है? तो फिर माँ यह विचार नहीं करती कि यह तो कुछ भी अच्छा काम नहीं करता? इसको गोदमें कैसे लूँ वह उसके रोनेको सह नहीं सकती और चट उठाकर गोदमें ले लेती है। ऐसे ही खराबसेखराब आचरण करनेवाला? पापीसेपापी व्यक्ति भी आर्त होकर भगवान्को पुकारता है? रोता है? तो भगवान् उसको अपनी गोदमें ले लेते हैं? उससे प्यार करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयंके भगवान्की ओर लगनेपर जब इस जन्मके पाप भी बाधा नहीं दे सकते? तो फिर पुराने पाप बाधा कैसे दे सकते हैं कारण कि पुराने पापकर्मोंका फल जन्म और भोगरूप प्रतिकूल परिस्थिति है अतः वे भगवान्की ओर चलनेमें बाधा नहीं दे सकते।यहाँ स्त्रियः पद देनेका तात्पर्य है कि किसी भी वर्णकी? किसी भी आश्रमकी? किसी भी देशकी? किसी भी वेशकी कैसी ही स्त्रियाँ क्यों न हों? वे सभी मेरे शरण होकर परम पवित्र बन जाती हैं और परमगतिको प्राप्त होती हैं। जैसे? प्राचीन कालमें देवहूति? शबरी? कुन्ती? द्रौपदी? व्रजगोपियाँ आदि और अभीके जमानेमें मीरा? करमैती? करमाबाई? फूलीबाई आदि कई स्त्रियाँ भगवान्की भक्ता हो गयी हैं। ऐसे ही वैश्योंमें समाधि? तुलाधार आदि और शूद्रोंमें विदुर? सञ्जय? निषादराज गुह आदि कई भगवान्के भक्त हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि पापयोनि? स्त्रियाँ? वैश्य और शूद्र -- ये सभी भगवान्का आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त होते हैं।विशेष बातइस श्लोकमें पापयोनयः पद स्वतन्त्ररूपसे आया है। इस पदको स्त्रियों? वैश्यों और शूद्रोंका विशेषण नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा माननेपर कई बाधाएँ आती हैं। स्त्रियाँ चारों वर्णोंकी होती हैं। उनमेंसे ब्राह्मणों? क्षत्रियों और वैश्योंकी स्त्रियोंको अपनेअपने पतियोंके साथ यज्ञ आदि वैदिक कर्मोंमें बैठनेका अधिकार है। अतः स्त्रियोंको पापयोनि कैसे कह सकते हैं अर्थात् नहीं कह सकते। चारों वर्णोंमें आते हुए भी भगवान्ने स्त्रियोंका नाम अलगसे लिया है। इसका तात्पर्य है कि स्त्रियाँ पतिके साथ ही मेरा आश्रय ले सकती हैं? मेरी तरफ चल सकती हैं -- ऐसा कोई नियम नहीं है। स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक मेरा आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो सकती हैं। इसलिये स्त्रियोंको किसी भी व्यक्तिका मनसे किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल मेरा ही आश्रय लेना चाहिये।अगर इस पापयोनयः पदको वैश्योंका विशेषण माना जाय? तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता। कारण कि श्रुतिके अनुसार वैश्योंको पापयोनि नहीं माना जा सकता (टिप्पणी प0 527)। वैश्योंको तो वेदोंके पढ़नेका और यज्ञ आदि वैदिक कर्मोंके करनेका पूरा अधिकार दिया गया है।अगर इस पापयोनयः पदको शूद्रोंका विशेषण माना जाय? तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता क्योंकि शूद्र तो चारों वर्णोंमें आ जाते हैं। अतः चारों वर्णोंके अतिरिक्त अर्थात् शूद्रोंकी अपेक्षा भी जो हीन जातिवाले यवन? हूण? खस आदि मनुष्य हैं? उन्हींको पापयोनयः पदके अन्तर्गत लेना चाहिये।जैसे माँकी गोदमें जानेके लिये किसी भी बच्चेके लिये मनाही ही है क्योंकि वे बच्चे माँके ही हैं। ऐसे ही भगवान्का अंश होनेसे प्राणिमात्रके लिये भगवान्की तरफ चलनेमें (भगवान्की ओरसे) कोई मनाही नहीं है। पशु? पक्षी? वृक्ष? लता आदिमें भगवान्की तरफ चलनेकी समझ? योग्यता नहीं है? फिर भी पूर्वजन्मके संस्कारसे या अन्य किसी कारणसे वे भगवान्के सम्मुख हो सकते हैं। अतः यहाँ पापयोनयः पदमें पशु? पक्षी आदिको भी अपवादरूपसे ले सकते हैं। पशुपक्षियोंमें गजेन्द्र? जटायु आदि भगवद्भक्त हो चुके हैं।मार्मिक बातभगवान्की तरफ चलनेमें भावकी प्रधानता होती है? जन्मकी नहीं। जिसके अन्तःकरणमें जन्मकी प्रधानता होती है? उसमें भावकी प्रधानता नहीं होती और उसमें भगवान्की भक्ति भी पैदा नहीं होती। कारण कि जन्मकी प्रधानता माननेवालेके अहम् में शरीरका सम्बन्ध मुख्य रहता है? जो भगवान्में नहीं लगने देता अर्थात् शरीर भगवान्का भक्त नहीं होता और भक्त शरीर नहीं होता? प्रत्युत स्वयं भक्त होता है। ऐसे ही जीव ब्रह्मको प्राप्त नहीं हो सकता किन्तु ब्रह्म ही ब्रह्मको प्राप्त होता है अर्थात् ब्रह्ममें जीवभाव नहीं होता और जीवभावमें ब्रह्मभाव नहीं होता। जीव तो प्राणोंको लेकर ही है और ब्रह्ममें प्राण नहीं होते। इसलिये ब्रह्म ही ब्रह्मको प्राप्त होता है अर्थात् जीवभाव मिटकर ही ब्रह्मको प्राप्त होता है -- ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति (बृहदारण्यक0 4। 4। 6)।स्वयमें शरीरका अभिमान नहीं होता। जहाँ स्वयंमें शरीरका अभिमान होता है? वहाँ मैं शरीरसे अलग हूँ यह विवेक नहीं होता? प्रत्युत वह हाड़मांसका? मलमूत्र पैदा करनेवाली मशीनका ही दास (गुलाम) बना रहता है। यही अविवेक है? अज्ञान है। इस तरह अविवेककी प्रधानता होनेसे मनुष्य न तो भक्तिमार्गमें चल सकता है और न ज्ञानमार्गमें ही चल सकता है। अतः शरीरको लेकर जो व्यवहार है? वह लौकिक मर्यादाके लिये बहुत आवश्यक है और उस मर्यादाके अनुसार चलना ही चाहिये। परन्तु भगवान्की तरफ चलनेमें स्वयंकी मुख्यता है? शरीरकी नहीं।तात्पर्य यह हुआ कि जो भक्ति या मुक्ति चाहता है? वह स्वयं होता है? शरीर नहीं। यद्यपि तादात्म्यके कारण स्वयं शरीर धारण करता रहता है परन्तु स्वयं कभी भी शरीर नहीं हो सकता और शरीर कभी भी स्वयं नहीं हो सकता। स्वयं स्वयं ही है और शरीर शरीर ही है। स्वयंकी परमात्माके साथ एकता है और शरीरकी संसारके साथ एकता है। जबतक शरीरके साथ तादात्म्य रहता है? तबतक वह न भक्तिका और न ज्ञानका ही अधिकारी होता है तथा न सम्पूर्ण शङ्काओंका समाधान ही कर सकता है। वह शरीरका तादात्म्य मिटता है -- भावसे। मनुष्यका जब भगवान्की तरफ भाव होता है? तब शरीर आदिकी तरफ उसकी वृत्ति ही नहीं जाती। वह तो केवल भगवान्में ही तल्लीन हो जाता है? जिससे शरीरका तादात्म्य मिट जाता है। इसलिये उसको विवेकविचार नहीं करना पड़ता और उसमें वर्णआश्रम आदिकी किसी प्रकारकी शङ्का पैदा ही नहीं होती। ऐसे ही विवेकसे भी तादात्म्य मिटता है। तादात्म्य मिटनेपर उसमें किसी भी वर्ण या आश्रमका अभिमान नहीं होता। कारण कि स्वयंमें वर्णआश्रम नहीं है? वह वर्णआश्रमसे अतीत है। सम्बन्ध -- अब भक्तिके शेष दो अधिकारियोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।
।।9.32।। पूर्व के श्लोकद्वय की व्याख्या और परिशिष्ट के रूप में? भगवान् आगे कहते हैं कि बाह्य जगत् की प्रतिकूल परिस्थितियों के दुष्प्रभाव के वशीभूत हुए केवल दुराचारी लोग ही ईश्वर के अखण्ड स्मरण से बन्धमुक्त हो जाते हों? ऐसी बात नहीं है। जो लोग जन्म से ही मानसिक और बौद्धिक क्षमताओं की कमी एवं आंतरिक दुर्व्यवस्था के शिकार हैं? वे ही आत्मा के अखण्ड स्मरण की इस साधना से अन्तकरण को शुद्ध एवं सुसंगठित कर सकते हैं।इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रुति? स्मृति और पुराणों में ऐसी उक्तियाँ हैं? जो इस श्लोक की भाषा के समान ही प्रतीत होती हैं। स्त्रियों? वैश्यों और शूद्रों को पापयोनि में जन्मे हुए कहकर उनकी निन्दा करने का अर्थ यह होगा कि धर्म का इष्ट प्रभाव समाज के केवल कुछ मुट्ठी भर लोगों पर ही है। ऐसा समझना माने प्रारम्भ से भगवान् श्रीकृष्ण जिस सिद्धांत का प्रतिपादन बारम्बार बल देकर कर रहे हैं? उस सबको नकारना हैं। इसलिए? यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण के शब्दों के वास्तविक अभिप्राय को हमें समझना होगा।धर्म की साधना न शारीरिक विकास के लिए है और न ही शरीर के द्वारा पूर्ण करने योग्य है। विकास की जिस उन्नति को धर्म लक्ष्य के रूप में इंगित करता है? उसमें शरीर के लिंग? जाति आदि से किञ्चिन्मात्र प्रयोजन नहीं है। आध्यात्मिक साधनाओं का प्रयोजन मन और बुद्धि को सुगठित करना है? जो विकास की अपनी परिपक्व अवस्था में स्वयं स्थिर हो जाती है? और? फिर? आत्मा सर्वोपाधिविनिर्मुक्त होकर स्वमहिमा में प्रतिष्ठित रहता है। अत यहाँ प्रयुक्त स्त्रियादि शब्दों से तात्पर्य अन्तकरण के कुछ विशेष गुणों से समझना चाहिए जो समयसमय पर विभिन्न व्यक्तियों में विभिन्न तारतम्य में व्यक्त होते हैं।स्त्रियों से तात्पर्य स्त्री के समान मन से है। ऐसे मन के लोग अत्यन्त भावुक प्रवृत्ति के होते हैं तथा जगत् की वस्तुओं में उनकी अत्यधिक आसक्ति होती है।इसी प्रकार? समाज में अनेक लोग अपने विचारों एवं कर्मों में व्यापारिक वृत्ति के होते हैं। ये लोग अपने आन्तरिक मानसिक जीवन में वैश्य के समान रहते हैं वे सदा इसकी ही गणना और चिन्ता करते रहते हैं कि ईश्वर स्मरण आदि में वे मन की जो पूँजी लगा रहे हैं? उससे उन्हें क्या लाभ होगा। ऐसी गणना करने वाला और सदा अधिकाधिक लाभ की आशा लगाये रहने वाला मन ध्यानयोग के द्वारा विकसित होने योग्य नहीं होता है। मन को स्थिर करके क्षणभर के लिए सारभूत अनन्तस्वरूप में जीवन्त रहने का एकमात्र उपाय है सब कर्मों को ईश्वरार्पण कर देना। इस प्रकार? जब अध्यात्मशास्त्र में वैश्यों की निन्दा की जाती है? तो? वास्तव में? यह हमारे मन की वैश्य वृत्ति की निन्दा समझनी चाहिए। ऐसी वृत्ति का पुरुष इस दिव्य मार्ग पर प्रगति की आशा नहीं कर सकता है।अन्त में? शूद्र शब्द के द्वारा आलस्य? निद्रा और प्रमाद जैसी मन की वृत्तियों को दर्शाया गया है।भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने युग में सर्वपरिचित शब्दों के उपयोग के द्वारा अन्तकरण के विशेष गुणों को इंगित किया है। इन शब्दों को उपर्युक्त अर्थ में जब हम समझते हैं? तभी इस श्लोक का वास्तविक तात्पर्य समझ में आता है। उनके विपरीत अर्थ करके? गीता को अपनी योग्यता के आधार पर प्राप्त मानव मात्र के धर्मशास्त्र होने की प्रतिष्ठा से नीचे गिराने की आवश्यकता नहीं है।इस श्लोक के द्वारा भगवान् वचन देते हैं कि अनन्य भक्ति तथा आत्मस्वरूप के सतत् निदिध्यासन से न केवल दुराचारी लोग? वरन् जन्म से ही किसी प्रकार की मानसिक और बौद्धिक हीनता के शिकार हुए लोग भी सफलतापूर्वक आध्यात्मिक लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं।पापयोनि से जन्मे हुए वेदान्त के अनुसार? पाप मन की वह दूषित प्रवृत्ति है? जो उसके भूतकाल के नकारात्मक और दोषपूर्ण जीवन के कारण मन में उत्पन्न हो जाती है। मन की ये कुवासनायें दुर्निवार होती हैं और मनुष्य को बलपूर्वक झूठे आदर्शों का जीवन व्यतीत करने को बाध्य करती हैं। फलत उस व्यक्ति के अपने तथा अन्यों के जीवन में भी भ्रम? अशान्ति और दुर्व्यवस्था उत्पन्न हो जाती है। ये वासनायें ही उपर्युक्त स्त्री? वैश्य और शूद्र वृत्तियों का मूल स्रोत हैं। केवल एक मन्द बुद्धि पंडित में ही वह धृष्टता होगी जो शास्त्रों के वाच्यार्थ के प्रति दृढ़ निष्ठा रखते हुए इस श्लोक की व्याख्या उसी के अनुसार करने की मूर्खता करेगा। ऐसा करने में वह? स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा परिभाषित वर्णाश्रम धर्म के अर्थ को आराम से भूल जायेगा।संक्षेप में? जब मन इन दुष्प्रवृत्तियों से भरा होता है? तब ऐसे मन वाले व्यक्ति का वेदाध्ययन करना निर्रथक होता है। इस कारण? केवल करुणावश ऋषियों ने उनके लिए वेदाध्ययन का निषेध किया है। इसका अर्थ यह कदापि नहीं था कि ऐसे व्यक्तियों को सदा के लिए अध्ययन से वंचित रखा जाय। इस पवित्र ब्रह्मविद्या का सफल अध्ययन करने हेतु आवश्यक योग्यताओं की प्राप्ति के लिए ही आध्यात्मिक साधनाओं का विधान किया गया है। ऐसी सभी साधनाओं में सबसे अधिक प्रभावशाली साधना है उपासना अर्थात् भक्तिपूर्ण हृदय से ईश्वर का अखण्ड स्मरण करना। वेदान्त का यह घोषणा है कि उपासना के द्वारा मन की शुद्धि होती है। मन की अशुद्धियों अथवा कमजोरियों को यहाँ स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रा इन शब्दों के द्वारा सूचित किया गया है।एक बार जब ये नकारात्मक प्रवृत्तियाँ समाप्त हो जाती हैं? तब मन में एकाग्रता? अनन्यता और ध्यान की ऊँची उड़ान की क्षमता आ जाती है। इस प्रकार यदि? यात्रा के लिए वाहन पूर्णरूप से तैयार हो जाय? तो गन्तव्य की प्राप्ति शीघ्र ही हो जायेगी। इसलिए भगवान् वचन देते है? वे भी परम गति को प्राप्त होते हैं।भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को आत्मसाक्षात्कार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
9.32 For, O son of Prtha, even those who are born of sin-women, Vaisyas, as also Sudras [S.s construction of this portion is: women, Vaisyas as also Sudras, and even others who are born of sin (i.e., those who are born low and are of vile deeds, viz Mlecchas, Pukkasas and others). M.S. also takes papa-yonayah (born of sin) as a separate phrase, and classifies women and others only as those darred from Vedic study, etc.-Tr.]-, even they reach the highest Goal by taking shelter under Me.
9.32 For, taking refuge in Me, they also who, O Arjuna, may be of a sinful birth women, Vaisyas as well as Sudras attain the Supreme Goal.
9.32. O son of Prtha, even those who are of sinful birth, [besides] women, men of working class, and the members of the fourth caste-even they, having taken refuge in Me, attain the highest goal.
9.32 माम् Me? हि indeed? पार्थ O Partha? व्यपाश्रित्य taking refuge in? ये who? अपि even? स्युः may be? पापयोनयः of sinful birth? स्त्रियः women? वैश्याः Vaisyas? तथा also? शूद्राः Sudras? ते they? अपि also? यान्ति attain? पराम् the Supreme? गतिम् Goal.Commentary Chandalas or outcastes are of a sinful birth. Women and Sudras are darred by social rules from the study of the Vedas. What is wanted is devotion. There is no need for family traditions. The elephant Gajendra remembered Me with devotion and attained Me in spite of his being an animal. The lowest of the low and the vilest of the vile can attain Me if they have faith and devotion? if they sing and repeat My Name and if they think of Me always and think of no worldy object.Prahlada was a demon and yet by his devotion forced Me to incarnate as Narasimha. Birth is immaterial. Devotion is everything. The Gopis attained Me through their devotion. Kamsa and Ravana attained Me through fear. Sisupala reached Me through hatred. Narada? Dhruva? Akrura? Suka? Sanatkumara and others attined Me through their devotion. Nandan? a man of low caste but a great devotee of Lord Siva? had direct vision of the Lord in Chidambaram in South India. Raidas? a cobbler? was a great devotee. In the spiritual life or in the Adhyatmic sphere all the external distinctions of caste? colour and creed disappear altogether. Shabari? though a Bhilni (a tribe) by birth? was a great devotee of Lord Rama.Hindu scriptures are full of such instances. Hinduism does not restrict salvation to any one group or section of humanity. All can attain God if they have devotion.
9.32 Hi, for; O son of Prtha, ye api, even those; papayonayah syuh, who are born of sin;-as to who they are, the Lord says-striyah, women; vaisyah, Vaisyas, tatha, as also; sudrah, Sudras; te api, even they; yanti, reach, go to; the param, highest; gatim, Goal vyapasritya, by taking shelter; mam, under Me-by accepting Me as their refuge.
9.32 See Comment under 9.34
9.32 - 9.33 Women, Vaisyas and Sudras, and even those who are of sinful birth, can attain the supreme state by taking refuge in Me. How much more then the well-born Brahmanas and royal sages who are devoted to me! Therefore, roayl sage that you are, do worship Me, as you have come to this transient and joyless world stricken by the threefold afflictions. Sri Krsna now describes the nature of Bhakti:
Is it so remarkable that my bhakti does not consider the accidental faults arising by actions of my misbehaving devotee? For my bhakti does not even consider the inherent faults of such a person arising from his birth. Even those of sinful birth (papa yonayah), outcastes or mlecchas, who surrender to me, attain the supreme goal. kirata-hunandhra-pulinda-pulkasa abhira-sumbha yavanah khasadayah ye’nye ca papa yad-apasrayasrayah sudhyanti tasmai prabhavisnave namah Kirata, Huna, Andhra, Pulinda, Pulkasa, Abhira, Sumbha, Yavana, members of the Khasa races and even others addicted to sinful acts can be purified by taking shelter of the devotees of the Lord, due to His being the supreme power.I beg to offer my respectful obeisances unto Him. SB 2.4.18 aho bata sva-paco ‘to gariyan yaj-jihvagre vartate nama tubhyam tepus tapas te juhuvuh sasnur arya brahmanucur nama grnanti ye te Oh, how glorious are they whose tongues are chanting Your holy name! Even if born in the families of dog-eaters, such persons are wprshipable. Persons who chant the holy name of Your Lordship must have executed all kinds of austerities and fire sacrifices and achieved all the good manners of the Aryans. To be chanting the holy name of Your Lordship, they must have bathed at holy places of pilgrimage, studied the Vedas and fulfilled everything required. SB 3.33.7 What then to speak of women, vaisyas or others with such bad qualities as impurity?
What is there to wonder that bhakti or loving devotion to the Supreme Lord Krishna purifies one of previously abominable behaviour? When it liberates from samsara the perpetual cycle of birth and death even low born and unqualified persons. This is being confirmed here that those born sinfully out of wedlock, those born in the poorest and most degraded of families such as mleccha or meat eaters, those who are vaisyas the mercantile class engaged only in business, sudras the menial class, women and all others who are devoid of Vedic knowledge. If any of them are accepted by the bonafide spiritual preceptor in one of the four authorised channels of spiritual knowledge and take complete refuge in the Supreme Lord Krishna worshipping Him or any of His authorised incarnations and expansions, it is assured undoubtedly that they will attain the Supreme destination of eternal association with Him.
Maam hi paartha vyapaashritya ye’pi syuh paapayonayah; Striyo vaishyaastathaa shoodraaste’pi yaanti paraam gatim.
mām—in Me; hi—certainly; pārtha—Arjun, the son of Pritha; vyapāśhritya—take refuge; ye—who; api—even; syuḥ—may be; pāpa yonayaḥ—of low birth; striyaḥ—women; vaiśhyāḥ—mercantile people; tathā—and; śhūdrāḥ—manual workers; te api—even they; yānti—go; parām—the supreme; gatim—destination