मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्।।9.32।।
।।9.32।।हे पृथानन्दन जो भी पापयोनिवाले हों तथा जो भी स्त्रियाँ? वैश्य और शूद्र हों? वे भी सर्वथा मेरे शरण होकर निःसन्देह परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं।
।।9.32।। व्याख्या -- मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य ৷৷. यान्ति परां गतिम् -- जिनके इस जन्ममें आचरण खराब हैं अर्थात् जो इस जन्मका पापी है? उसको भगवान्ने तीसवें श्लोकमें दुराचारी कहा है। जिनके पूर्वजन्ममें आचरण खराब थे अर्थात् जो पूर्वजन्मके पापी हैं और अपने पुराने पापोंका फल भोगनेके लिये नीच योनियोंमें पैदा हुए हैं? उनको भगवान्ने यहाँ पापयोनि कहा है।यहाँ पापयोनि शब्द ऐसा व्यापक है? जिसमें असुर? राक्षस? पशु? पक्षी आदि सभी लिये जा सकते हैं (टिप्पणी प0 526) और ये सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी माने जाते हैं। शाण्डिल्य ऋषिने कहा है -- आनिन्द्ययोन्यधिक्रियते पारम्पर्यात् सामान्यवत्। (शाण्डिल्यभक्तिसूत्र 78) अर्थात् जैसे दया? क्षमा? उदारता आदि सामान्य धर्मोंके मात्र मनुष्य अधिकारी हैं? ऐसे ही भगवद्भक्तिके नीचीसेनीची योनिसे लेकर ऊँचीसेउँची योनितकके सब प्राणी अधिकारी हैं। इसका कारण यह है कि मात्र जीव भगवान्के अंश होनेसे भगवान्की तरफ चलनेमें? भगवान्की भक्ति करनेमें? भगवान्के सम्मुख होनेमें अनधिकारी नहीं हैं। प्राणियोंकी योग्यताअयोग्यता आदि तो सांसारिक कार्योंमें हैं क्योंकि ये योग्यता आदि बाह्य हैं और मिली हुई हैं तथा बिछुड़नेवाली हैं। इसलिये भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेमें योग्यताअयोग्यता कोई कारण नहीं है अर्थात् जिसमें योग्यता है? वह भगवान्में लग सकता है और जिसमें अयोग्यता है? वह भगवान्में नहीं लग सकता -- यह कोई कारण नहीं है। प्राणी स्वयं भगवान्के हैं अतः सभी भगवान्के सम्मुख हो सकते हैं। तात्पर्य हुआ कि जो हृदयसे भगवान्को चाहते हैं? वे सभी भगवद्भक्तिके अधिकारी हैं। ऐसे पापयोनिवाले भी भगवान्के शरण होकर परमगतिको प्राप्त हो जाते हैं? परम पवित्र हो जाते हैं।लौकिक दृष्टिसे तो आचरण भ्रष्ट होनेसे अपवित्रता मानी जाती है? पर वास्तवमें जो कुछ अपवित्रता आती है? वह सबकीसब भगवान्से विमुख होनेसे ही आती है। जैसे? अङ्गार अग्निसे विमुख होते ही कोयला बन जाता है। फिर उस कोयलेको साबुन लगाकर कितना ही धो लें? तो भी उसका कालापन नहीं मिटता। अगर उसको पुनः अग्निमें रख दिया जाय? तो फिर उसका कालापन नहीं रहता और वह चमक उठता है। ऐसे ही भगवान्के अंश इस जीवमें कालापन अर्थात् अपवित्रता भगवान्से विमुख होनेसे ही आती है। अगर यह भगवान्के सम्मुख हो जाय? तो इसकी वह अपवित्रता सर्वथा मिट जाती है और यह महान् पवित्र हो जाता है तथा दुनियामें चमक उठता है। इसमें इतनी पवित्रता आ जाती है कि भगवान् भी इसे अपना मुकुटमणि बना लेते हैंजब स्वयं आर्त होकर प्रभुको पुकारता है? तो उस पुकारमें भगवान्को द्रवित करनेकी जो शक्ति है? वह शक्ति शुद्ध आचरणोंमें नहीं है। जैसे? माँका एक बेटा अच्छा काम करता है तो माँ उससे प्यार करती है और एक बेटा कुछ भी काम नहीं करता? प्रत्युत आर्त होकर माँको पुकारता है? रोता है? तो फिर माँ यह विचार नहीं करती कि यह तो कुछ भी अच्छा काम नहीं करता? इसको गोदमें कैसे लूँ वह उसके रोनेको सह नहीं सकती और चट उठाकर गोदमें ले लेती है। ऐसे ही खराबसेखराब आचरण करनेवाला? पापीसेपापी व्यक्ति भी आर्त होकर भगवान्को पुकारता है? रोता है? तो भगवान् उसको अपनी गोदमें ले लेते हैं? उससे प्यार करते हैं। इससे यह सिद्ध हुआ कि स्वयंके भगवान्की ओर लगनेपर जब इस जन्मके पाप भी बाधा नहीं दे सकते? तो फिर पुराने पाप बाधा कैसे दे सकते हैं कारण कि पुराने पापकर्मोंका फल जन्म और भोगरूप प्रतिकूल परिस्थिति है अतः वे भगवान्की ओर चलनेमें बाधा नहीं दे सकते।यहाँ स्त्रियः पद देनेका तात्पर्य है कि किसी भी वर्णकी? किसी भी आश्रमकी? किसी भी देशकी? किसी भी वेशकी कैसी ही स्त्रियाँ क्यों न हों? वे सभी मेरे शरण होकर परम पवित्र बन जाती हैं और परमगतिको प्राप्त होती हैं। जैसे? प्राचीन कालमें देवहूति? शबरी? कुन्ती? द्रौपदी? व्रजगोपियाँ आदि और अभीके जमानेमें मीरा? करमैती? करमाबाई? फूलीबाई आदि कई स्त्रियाँ भगवान्की भक्ता हो गयी हैं। ऐसे ही वैश्योंमें समाधि? तुलाधार आदि और शूद्रोंमें विदुर? सञ्जय? निषादराज गुह आदि कई भगवान्के भक्त हुए हैं। तात्पर्य यह हुआ कि पापयोनि? स्त्रियाँ? वैश्य और शूद्र -- ये सभी भगवान्का आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त होते हैं।विशेष बातइस श्लोकमें पापयोनयः पद स्वतन्त्ररूपसे आया है। इस पदको स्त्रियों? वैश्यों और शूद्रोंका विशेषण नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा माननेपर कई बाधाएँ आती हैं। स्त्रियाँ चारों वर्णोंकी होती हैं। उनमेंसे ब्राह्मणों? क्षत्रियों और वैश्योंकी स्त्रियोंको अपनेअपने पतियोंके साथ यज्ञ आदि वैदिक कर्मोंमें बैठनेका अधिकार है। अतः स्त्रियोंको पापयोनि कैसे कह सकते हैं अर्थात् नहीं कह सकते। चारों वर्णोंमें आते हुए भी भगवान्ने स्त्रियोंका नाम अलगसे लिया है। इसका तात्पर्य है कि स्त्रियाँ पतिके साथ ही मेरा आश्रय ले सकती हैं? मेरी तरफ चल सकती हैं -- ऐसा कोई नियम नहीं है। स्त्रियाँ स्वतन्त्रतापूर्वक मेरा आश्रय लेकर परमगतिको प्राप्त हो सकती हैं। इसलिये स्त्रियोंको किसी भी व्यक्तिका मनसे किञ्चिन्मात्र भी आश्रय न लेकर केवल मेरा ही आश्रय लेना चाहिये।अगर इस पापयोनयः पदको वैश्योंका विशेषण माना जाय? तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता। कारण कि श्रुतिके अनुसार वैश्योंको पापयोनि नहीं माना जा सकता (टिप्पणी प0 527)। वैश्योंको तो वेदोंके पढ़नेका और यज्ञ आदि वैदिक कर्मोंके करनेका पूरा अधिकार दिया गया है।अगर इस पापयोनयः पदको शूद्रोंका विशेषण माना जाय? तो यह भी युक्तिसंगत नहीं बैठता क्योंकि शूद्र तो चारों वर्णोंमें आ जाते हैं। अतः चारों वर्णोंके अतिरिक्त अर्थात् शूद्रोंकी अपेक्षा भी जो हीन जातिवाले यवन? हूण? खस आदि मनुष्य हैं? उन्हींको पापयोनयः पदके अन्तर्गत लेना चाहिये।जैसे माँकी गोदमें जानेके लिये किसी भी बच्चेके लिये मनाही ही है क्योंकि वे बच्चे माँके ही हैं। ऐसे ही भगवान्का अंश होनेसे प्राणिमात्रके लिये भगवान्की तरफ चलनेमें (भगवान्की ओरसे) कोई मनाही नहीं है। पशु? पक्षी? वृक्ष? लता आदिमें भगवान्की तरफ चलनेकी समझ? योग्यता नहीं है? फिर भी पूर्वजन्मके संस्कारसे या अन्य किसी कारणसे वे भगवान्के सम्मुख हो सकते हैं। अतः यहाँ पापयोनयः पदमें पशु? पक्षी आदिको भी अपवादरूपसे ले सकते हैं। पशुपक्षियोंमें गजेन्द्र? जटायु आदि भगवद्भक्त हो चुके हैं।मार्मिक बातभगवान्की तरफ चलनेमें भावकी प्रधानता होती है? जन्मकी नहीं। जिसके अन्तःकरणमें जन्मकी प्रधानता होती है? उसमें भावकी प्रधानता नहीं होती और उसमें भगवान्की भक्ति भी पैदा नहीं होती। कारण कि जन्मकी प्रधानता माननेवालेके अहम् में शरीरका सम्बन्ध मुख्य रहता है? जो भगवान्में नहीं लगने देता अर्थात् शरीर भगवान्का भक्त नहीं होता और भक्त शरीर नहीं होता? प्रत्युत स्वयं भक्त होता है। ऐसे ही जीव ब्रह्मको प्राप्त नहीं हो सकता किन्तु ब्रह्म ही ब्रह्मको प्राप्त होता है अर्थात् ब्रह्ममें जीवभाव नहीं होता और जीवभावमें ब्रह्मभाव नहीं होता। जीव तो प्राणोंको लेकर ही है और ब्रह्ममें प्राण नहीं होते। इसलिये ब्रह्म ही ब्रह्मको प्राप्त होता है अर्थात् जीवभाव मिटकर ही ब्रह्मको प्राप्त होता है -- ब्रह्मैव सन् ब्रह्माप्येति (बृहदारण्यक0 4। 4। 6)।स्वयमें शरीरका अभिमान नहीं होता। जहाँ स्वयंमें शरीरका अभिमान होता है? वहाँ मैं शरीरसे अलग हूँ यह विवेक नहीं होता? प्रत्युत वह हाड़मांसका? मलमूत्र पैदा करनेवाली मशीनका ही दास (गुलाम) बना रहता है। यही अविवेक है? अज्ञान है। इस तरह अविवेककी प्रधानता होनेसे मनुष्य न तो भक्तिमार्गमें चल सकता है और न ज्ञानमार्गमें ही चल सकता है। अतः शरीरको लेकर जो व्यवहार है? वह लौकिक मर्यादाके लिये बहुत आवश्यक है और उस मर्यादाके अनुसार चलना ही चाहिये। परन्तु भगवान्की तरफ चलनेमें स्वयंकी मुख्यता है? शरीरकी नहीं।तात्पर्य यह हुआ कि जो भक्ति या मुक्ति चाहता है? वह स्वयं होता है? शरीर नहीं। यद्यपि तादात्म्यके कारण स्वयं शरीर धारण करता रहता है परन्तु स्वयं कभी भी शरीर नहीं हो सकता और शरीर कभी भी स्वयं नहीं हो सकता। स्वयं स्वयं ही है और शरीर शरीर ही है। स्वयंकी परमात्माके साथ एकता है और शरीरकी संसारके साथ एकता है। जबतक शरीरके साथ तादात्म्य रहता है? तबतक वह न भक्तिका और न ज्ञानका ही अधिकारी होता है तथा न सम्पूर्ण शङ्काओंका समाधान ही कर सकता है। वह शरीरका तादात्म्य मिटता है -- भावसे। मनुष्यका जब भगवान्की तरफ भाव होता है? तब शरीर आदिकी तरफ उसकी वृत्ति ही नहीं जाती। वह तो केवल भगवान्में ही तल्लीन हो जाता है? जिससे शरीरका तादात्म्य मिट जाता है। इसलिये उसको विवेकविचार नहीं करना पड़ता और उसमें वर्णआश्रम आदिकी किसी प्रकारकी शङ्का पैदा ही नहीं होती। ऐसे ही विवेकसे भी तादात्म्य मिटता है। तादात्म्य मिटनेपर उसमें किसी भी वर्ण या आश्रमका अभिमान नहीं होता। कारण कि स्वयंमें वर्णआश्रम नहीं है? वह वर्णआश्रमसे अतीत है। सम्बन्ध -- अब भक्तिके शेष दो अधिकारियोंका वर्णन आगेके श्लोकमें करते हैं।