मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।
।।9.4।।यब सब संसार मेरे अव्यक्त स्वरूपसे व्याप्त है। सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूँ तथा वे प्राणी भी मेरेमें स्थित नहीं हैं -- मेरे इस ईश्वरसम्बन्धी योग(सामर्थ्य)को देख सम्पूर्ण प्राणियोंको उत्पन्न करनेवाला और उनका धारण? भरणपोषण करनेवाला मेरा स्वरूप उन प्राणियोंमें स्थित नहीं है।
।।9.4।। यह सम्पूर्ण जगत् मुझ (परमात्मा) के अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है भूतमात्र मुझमें स्थित है? परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूं।।
।।9.4।। व्याख्या -- मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना -- मनबुद्धिइन्द्रियोंसे जिसका ज्ञान होता है? वह भगवान्का व्यक्तरूप है और जो मनबुद्धिइन्द्रियोंका विषय नहीं है अर्थात् मन आदि जिसको नहीं जान सकते? वह भगवान्का अव्यक्तरूप है। यहाँ भगवान्ने मया पदसे व्यक्त(साकार) स्वरूप और,अव्यक्तमूर्तिना पदसे अव्यक्त(निराकार) स्वरूप बताया है। इसका तात्पर्य है कि भगवान् व्यक्तरूपसे भी हैं और अव्यक्तरूपसे भी हैं। इस प्रकार भगवान्की यहाँ व्यक्तअव्यक्त (साकारनिराकार) कहनेकी गूढ़ाभिसन्धि समग्ररूपसे है अर्थात् सगुणनिर्गुण? साकारनिराकार आदिका भेद तो सम्प्रदायोंको लेकर है? वास्तवमें परमात्मा एक हैं। ये सगुणनिर्गुण आदि एक ही परमात्माके अलगअलग विशेषण हैं? अलगअलग नाम हैं।गीतामें जहाँ सत्असत्? शरीरशरीरीका वर्णन किया गया है? वहाँ जीवके वास्तविक स्वरूपके लिये आया है -- येन सर्वमिदं ततम् (2। 17) क्योंकि यह परमात्माका साक्षात् अंश होनेसे परमात्माके समान ही सर्वत्र व्यापक है अर्थात् परमात्माके साथ इसका अभेद है। जहाँ सगुणनिराकारकी उपासनाका वर्णन आया है? वहाँ बताया है -- येन सर्वमिदं ततम् (8। 22)? जहाँ कर्मोंके द्वारा भगवान्का पूजन बताया है? वहाँ भी कहा है -- येन सर्वमिदं ततम् (18। 46)। इन सबके साथ एकता करनेके लिये ही भगवान् यहाँ कहते हैं -- मया ततमिदं सर्वम्।मतस्थानि सर्वभूतानि -- सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं अर्थात् पराअपरा प्रकृतिरूप सारा जगत् मेरेमें ही स्थित है। वह मेरेको छोड़कर रह ही नहीं सकता। कारण कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेसे ही उत्पन्न होते हैं? मेरेमें ही स्थित रहते हैं और मेरेमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका उत्पत्ति? स्थिति और प्रलयरूप जो कुछ परिवर्तन होता है? वह सब मेरेमें ही होता है। अतः वे सब प्राणी मेरेमें स्थित हैं।न चाहं तेष्ववस्थितः -- पहले भगवान्ने दो बातें कहीं -- पहली मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना और दूसरी मत्स्थानि सर्वभूतानि। अब भगवान् इन दोनों बातोंके विरुद्ध दो बातें कहते हैं।पहली बात(मैं सम्पूर्ण जगत्में स्थित हूँ) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि मैं उनमें स्थित नहीं हूँ। कारण कि यदि मैं उनमें स्थित होता तो उनमें जो परिवर्तन होता है? वह परिवर्तन मेरेमें भी होता उनका नाश होनेसे मेरा भी नाश होता और उनका अभाव होनेसे मेरा भी अभाव होता। तात्पर्य है कि उनका तो परिवर्तन? नाश और अभाव होता है परन्तु मेरेमें कभी किञ्चिन्मात्र भी विकृति नहीं आती। मैं उनमें सब तरहसे व्याप्त रहता हुआ भी उनसे निर्लिप्त हूँ? उनसे सर्वथा सम्बन्धरहित हूँ। मैं तो निर्विकाररूपसे अपनेआपमें ही स्थित हूँ।वास्तवमें मैं उनमें स्थित हूँ -- ऐसा कहनेका तात्पर्य यह है कि मेरी सत्तासे ही उनकी सत्ता है? मेरे होनेपनसे ही उनका होनापन है। यदि मैं उनमें न होता? तो जगत्की सत्ता ही नहीं होती। जगत्का होनापन तो मेरी सत्तासे ही दीखता है। इसलिये कहा कि मैं उनमें स्थित हूँ।न च मत्स्थानि भूतानि (टिप्पणी प0 489) -- अब भगवान् दूसरी बात(सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं) के विरुद्ध यहाँ कहते हैं कि वे प्राणी मेरेमें स्थित नहीं हैं। कारण कि अगर वे प्राणी मेरेमें स्थित होते तो मैं जैसा निरन्तर निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता हूँ? वैसा संसार भी निर्विकाररूपसे ज्योंकात्यों रहता। मेरा कभी उत्पत्तिविनाश नहीं होता? तो संसारका भी उत्पत्तिविनाश नहीं होता। एक देशमें हूँ और एक देशमें नहीं हूँ? एक कालमें हूँ? और एक कालमें नहीं हूँ? एक व्यक्तिमें हूँ और एक व्यक्तिमें नहीं हूँ -- ऐसी परिच्छिन्नता मेरेमें नहीं है? तो संसारमें भी ऐसी परिच्छिन्नता नहीं होती। तात्पर्य है कि निर्विकारता? नित्यता? व्यापकता? अविनाशीपन आदि जैसे मेरेमें हैं? वैसे ही उन प्राणियोंमें भी होते। परन्तु ऐसी बात नहीं है। मेरी स्थिति निरन्तर रहती है और उनकी स्थिति निरन्तर नहीं रहती? तो इससे सिद्ध हुआ कि वे मेरेमें स्थित नहीं हैं।अब उपर्युक्त विधिपरक और निषेधपरक चारों बातोंको दूसरी रीतिसे इस प्रकार समझें। संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है तथा परमात्मा संसारमें नहीं हैं और संसार परमात्मामें नहीं है। जैसे? अगर तरंगकी सत्ता मानी जाय तो तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। कारण कि जलको छोड़कर तरंग रह ही नहीं सकती। तरंग जलसे ही पैदा होती है? जलमें ही रहती है और जलमें ही लीन हो जाती है अतः तरंगका आधार? आश्रय केवल जल ही है। जलके बिना उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये तरंगमें जल है और जलमें तरंग है। ऐसे ही संसारकी सत्ता मानी जाय तो संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है। कारण कि परमात्माको छोड़कर संसार रह ही नहीं सकता। संसार परमात्मासे ही पैदा होता है? परमात्मामें ही रहता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है। परमात्माके सिवाय संसारकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। इसलिये संसारमें परमात्मा हैं और परमात्मामें संसार है।अगर तरंग उत्पन्न और नष्ट होनेवाली होनेसे तथा जलके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे तरंगकी सत्ता न मानी जाय? तो न तरंगमें जल है और न जलमें तरंग है अर्थात् केवल जलहीजल है और जल ही तरंगरूपसे दीख रहा है। ऐसे ही संसार उत्पन्न और नष्ट होनेवाला होनेसे तथा परमात्माके सिवाय उसकी स्वतन्त्र सत्ता न होनेसे संसारकी सत्ता न मानी जाय? तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है अर्थात् केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं और परमात्मा ही संसाररूपसे दीख रहे हैं। तात्पर्य यह हुआ कि जैसे तत्त्वसे एक जल ही है? तरंग नहीं है? ऐसे ही तत्त्वसे एक परमात्मा ही हैं? संसार नहीं है -- वासुदेवः सर्वम् (7। 19)।अब कार्यकारणकी दृष्टिसे देखें तो जैसे मिट्टीसे बने हुए जितने बर्तन हैं? उन सबमें मिट्टी ही है क्योंकि वे मिट्टीसे ही बने हैं? मिट्टीमें ही रहते हैं और मिट्टीमें ही लीन होते हैं अर्थात् उनका आधार मिट्टी ही है। इसलिये बर्तनोंमें मिट्टी है और मिट्टीमें बर्तन हैं। परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो बर्तनोंमें मिट्टी और मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। अगर बर्तनोंमें मिट्टी होती? तो बर्तनोंके मिटनेपर मिट्टी भी मिट जाती। परन्तु मिट्टी मिटती ही नहीं। अतः मिट्टी मिट्टीमें ही रही अर्थात् अपनेआपमें ही स्थित रही। ऐसे ही अगर मिट्टीमें बर्तन होते? तो मिट्टीके रहनेपर बर्तन हरदम रहते। परन्तु बर्तन हरदम नहीं रहते। इसलिये मिट्टीमें बर्तन नहीं हैं। ऐसे ही संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार रहते हुए भी संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार नहीं है। कारण कि अगर संसारमें परमात्मा होते तो संसारके मिटनेपर परमात्मा भी मिट जाते। परन्तु परमात्मा मिटते ही नहीं। इसलिये संसारमें परमात्मा नहीं हैं। परमात्मा तो अपनेआपमें स्थित हैं। ऐसे ही परमात्मामें संसार नहीं है। अगर परमात्मामें संसार होता तो परमात्माके रहनेपर संसार भी रहता परन्तु संसार नहीं रहता। इसलिये परमात्मामें संसार नहीं है।जैसे? किसीने हरिद्वारको याद किया तो उसके मनमें हरिकी पैड़ी दीखने लग गयी। बीचमें घण्टाघर बना हुआ है। उसके दोनों ओर गङ्गाजी बह रही हैं। सीढ़ियोंपर लोग स्नान कर रहे हैं। जलमें मछलियाँ उछलकूद मचा रही हैं। यह सबकासब हरिद्वार मनमें है। इसलिये हरिद्वारमें बना हुआ सब कुछ,(पत्थर? जल? मनुष्य? मछलियाँ आदि) मन ही है। परन्तु जहाँ चिन्तन छोड़ा? वहाँ फिर हरिद्वार नहीं रहा? केवल मनहीमन रहा। ऐसे ही परमात्माने बहु स्यां प्रजायेय संकल्प किया? तो संसार प्रकट हो गया। उस संसारके कणकणमें परमात्मा ही रहे और संसार परमात्मामें ही रहा क्योंकि परमात्मा ही संसाररूपमें प्रकट हुए हैं। परन्तु जहाँ परमात्माने संकल्प छोड़ा? वहाँ फिर संसार नहीं रहा? केवल परमात्माहीपरमात्मा रहे।तात्पर्य यह हुआ कि परमात्मा हैं और संसार है -- इस दृष्टिसे देखा जाय तो संसारमें परमात्मा और परमात्मामें संसार है। परन्तु तत्त्वकी दृष्टिसे देखा जाय तो न संसारमें परमात्मा हैं और न परमात्मामें संसार है क्योंकि वहाँ संसारकी स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। वहाँ तो केवल परमात्माहीपरमात्मा हैं -- वासुदेवः सर्वम्। यही जीवन्मुक्तोंकी? भक्तोंकी दृष्टि है।पश्य मे योगमैश्वरम् (टिप्पणी प0 490) -- मैं सम्पूर्ण जगत्में और सम्पूर्ण जगत् मेरेमें होता हुआ भी सम्पूर्ण जगत् मेरेमें नहीं है और मैं सम्पूर्ण जगत्में नहीं हूँ अर्थात् मैं संसारसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ? अपनेआपमें ही स्थित हूँ -- मेरे इस ईश्वरसम्बन्धी योगको अर्थात् प्रभाव(सामर्थ्य) को देख। तात्पर्य है कि मैं एक ही अनेकरूपसे दीखता हूँ और अनेकरूपसे दीखता हुआ भी मैं एक ही हूँ अतः केवल मैंहीमैं हूँ।पश्य क्रियाके दो अर्थ होते हैं -- जानना और देखना। जानना बुद्धिसे और देखना नेत्रोंसे होता है। भगवान्के योग(प्रभाव) को जाननेकी बात यहाँ आयी है और उसे देखनेकी बात ग्यारहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें आयी है।भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः -- मेरा जो स्वरूप है? वह सम्पूर्ण प्राणियोंको पैदा करनेवाला? सबको धारण करनेवाला तथा उनका भरणपोषण करनेवाला है। परन्तु मैं उन प्राणियोंमें स्थित नहीं हूँ अर्थात् मैं उनके आश्रित नहीं हूँ? उनमें लिप्त नहीं हूँ। इसी बातको भगवान्ने पंद्रहवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें कहा है कि क्षर (जगत्) और अक्षर (जीवात्मा) -- दोनोंसे उत्तम पुरुष तो अन्य ही है? जिसको,परमात्मा नामसे कहा गया है और जो सम्पूर्ण लोकोंमें व्याप्त होकर सबकाभरणपषण करता हुआ सबका शासन करता है।तात्पर्य यह हुआ कि जैसे मैं सबको उत्पन्न करता हुआ और सबका भरणपोषण करता हुआ भी अहंताममतासे रहित हूँ और सबमें रहता हुआ भी उनके आश्रित नहीं हूँ? उनसे सर्वथा निर्लिप्त हूँ। ऐसे ही मनुष्यको चाहिये कि वह कुटुम्बपरिवारका भरणपोषण करता हुआ और सबका प्रबन्ध? संरक्षण करता हुआ उनमें अहंताममता न करे और जिसकिसी देश? काल? परिस्थितिमें रहता हुआ भी अपनेको उनके आश्रित न माने अर्थात् सर्वथा निर्लिप्त रहे।भक्तके सामने जो कुछ परिस्थिति आये? जो कुछ घटना घटे? मनमें जो कुछ संकल्पविकल्प आये? उन सबमें उसको भगवान्की ही लीला देखनी चाहिये। भगवान् ही कभी उत्पत्तिकी लीला? कभी स्थितिकी लीला और कभी संहारकी लीला करते हैं। यह सब संसार स्वरूपसे तो भगवान्का ही रूप है और इसमें जो परिवर्तन होता है? वह सब भगवान्की ही लीला है -- इस तरह भगवान् और उनकी लीलाको देखते हुए भक्तको हरदम प्रसन्न रहना चाहिये।मार्मिक बातसब कुछ परमात्मा ही है -- इस बातको खूब गहरा उतरकर समझनेसे साधकको इसका यथार्थ अनुभव हो जाता है। यथार्थ अनुभव होनेकी कसौटी यह है कि अगर उसकी कोई प्रशंसा करे कि आपका सिद्धान्त बहुत अच्छा है आदि? तो उसको अपनेमें बड़प्पनका अनुभव नहीं होना चाहिये। संसारमें कोई आदर करे या निरादर -- इसका भी साधकपर असर नहीं होना चाहिये। अगर कोई कह दे कि संसार नहीं है और परमात्मा हैं -- यह तो आपकी कोरी कल्पना है और कुछ नहीं आदि? तो ऐसी काटछाटँसे साधकको किञ्चिन्मात्र भी बुरा नहीं लगना चाहिये। उस बातको सिद्ध करनेके लिये दृष्टान्त देनेकी? प्रमाण खोजनेकी इच्छा ही नहीं होनी चाहिये और कभी भी ऐसा भाव नहीं होना चाहिये कि यह हमारा सिद्धान्त है? यह हमारी मान्यता है? इसको हमने ठीक समझा है आदि। अपने सिद्धान्तके विरुद्ध कोई कितना ही विवेचन करे? तो भी अपने सिद्धान्तमें किसी कमीका अनुभव नहीं होना चाहिये और अपनेमें कोई विकार भी पैदा नहीं होना चाहिये। अपना यथार्थ अनुभव स्वाभाविकरूपसे सदासर्वदा अटल और अखण्डरूपसे बना रहना चाहिये। इसके विषयमें साधकको कभी सोचना ही नहीं पड़े। सम्बन्ध -- अब भगवान् पीछेके दो श्लोकोंमें कही हुई बातोंको दृष्टान्तद्वारा स्पष्ट करते हैं।
।।9.4।। यह सम्पूर्ण जगत् मेरे अव्यक्त स्वरूप के द्वारा व्याप्त है किसी वस्तु की सूक्ष्मता उसकी व्यापकता से नापी जाती है और इसलिए सूक्ष्मतम वस्तु का सर्वव्यापक होना अनिवार्य है। देशकाल से परिच्छिन्न (सीमित) सभी वस्तुओं का आकार तथा नाश होता है अत सर्वव्यापी वस्तु निराकार और नाशरहित होगी। इस प्रकार आत्मतत्त्व अपने मूल अव्यक्तस्वरूप से सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है? जैसे मिट्टी के बने सभी रूपों और आकारों वाले घटों में मिट्टी व्याप्त होती है।यदि? इस प्रकार? अनन्तपरिच्छिन्न तत्त्व सान्त और परिच्छिन्न जगत् को व्याप्त किये है? तो इन दोनों में निश्चित रूप से क्या संबंध है क्या यह जगत् अनन्ततत्त्व से प्रकट हुआ है अथवा क्या अनन्त ने सान्त का निर्माण किया है या फिर क्या अनन्त वस्तु स्वयं विकार को प्राप्त होकर यह जगत् बन गयी? जैसे दूध दही बनता है अथवा? क्या इन दोनों में पितापुत्र या स्वामीभृत्य का संबंध है विश्व के विभिन्न धर्म ऐसे प्रश्नों से भरे हुए हैं। द्वैतवादी लोग ही अनन्त और सान्त? ईश्वर और भक्त के मध्य किसीनकिसी प्रकार के काल्पनिक संबंध में रम सकते हैं। परन्तु अद्वैती ऐसे किसी भी प्रकार के संबंध को स्वीकार नहीं कर सकते? क्योंकि संबंध किन्हीं दो वस्तुओं में ही हो सकता है? जब कि उनके सिद्धांतानुसार केवल आत्मा ही एकमेव अद्वितीय पारमार्थिक सत्य वस्तु है।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में सत्य और मिथ्या के बीच के इस संबंधरहित संबंध का शास्त्रीय वर्णन किया गया है। समस्त भूत मुझमें स्थित हैं? परन्तु मैं उनमें अवस्थित नहीं हूँ। शास्त्रीय पद्धति से अनभिज्ञ उतावले पाठकों को यह कथन एक अनाकलनीय विरोधाभास प्रतीत होगा? जिसे अर्थशून्य शब्दों के जमघट के द्वारा व्यक्त किया गया है। परन्तु जिसने अध्यास के सिद्धांत को सम्यक् प्रकार से समझ लिया है? उसके लिए उक्त कथन का अर्थ अत्यन्त सरल है। किसी वस्तु के अज्ञान से उस पर किसी अन्य वस्तु की कल्पना करना अध्यास है जैसे एक स्तम्भ पर प्रेत की कल्पना। शास्त्रीय भाषा में स्तम्भ को अधिष्ठान और प्रेत को अध्यास कहेंगे। इस दृष्टान्त में स्तम्भ (अधिष्ठान) के बिना प्रेत का आभास नहीं हो सकता था। अब स्तम्भ की दृष्टि से उसमें और उस अध्यस्त प्रेत में निश्चित रूप से कौन सा संबंध है कल्पना करें कि स्तम्भ में प्रेत देखकर मोहित हुए व्यक्ति को वह स्तम्भ स्वयंका सम्यक् ज्ञान कराना चाहता है? तो वह किस प्रकार उपदेश देगा वह निर्दोष स्तम्भ उस मूढ़ पुरुष के प्रति असीम प्रेम के कारण भगवान् श्रीकृष्ण के समान ही उपदेश देगा। वह कहेगा निसन्देह ही वह प्रेत मुझमें स्थित है? परन्तु मैं उसमें नहीं हूँ और इसलिए? मैने कदापि किसी भी मूढ़ यात्री को भयभीत नहीं किया है। इसी प्रकार भगवान् यहाँ कहते हैं? मैं अपने अव्यक्त स्वरूप से इस सम्पूर्ण व्यक्त जगत् का अधिष्ठान हूँ। यद्यपि परमात्मा इस नानारूपमय सृष्टि का अधिष्ठान है? तथापि वह उनके गुण दोष? सुख दुख? जन्ममृत्यु आदि से लिप्त नहीं होता? क्योंकि मैं उनमें अवस्थित नहीं हूँ।इस पंक्ति में पूर्व1 कथित सिद्धांत ही प्रतिध्वनित होता है? जहाँ सम्भवत और अधिक लहरदार भाषा में इसे व्यक्त किया गया था कि? मैं उनमें नहीं हूँ? वे मुझमें है। संक्षेप में? यहाँ सूचित किया गया है कि जड़ उपाधियों से तादात्म्य के कारण आत्मा उनमें स्थित हुआ मानो दुखीसंसारी जीव बना है और इस मिथ्या तादात्म्य की निवृत्ति से उसे बोध होता है कि वास्तव में? मैं अविनाशी? अव्यक्तस्वरूप आत्मा उनमें स्थित नहीं हूँ।उपर्युक्त कथन से मन में यह विचार आ सकता है कि तब अनन्त तत्त्व में परिच्छिन्न का किसी अन्य प्रकार का अस्तित्व हो सकता है परन्तु भगवान् कहते हैं --
9.4 This whole world is prevaded by Me in My unmanifest form. All beings exist in Me, but I am not contained in them!
9.4 All this world is pervaded by Me in My unmanifest aspect; all beings exist in Me, but I do not dwell in them.
9.4. This entire universe is pervaded by Me, having the unmanifest form (aspect); all beings exist in Me and I do not exist in them.
9.4 मया by Me? ततम् pervaded? इदम् this? सर्वम् all? जगत् world? अव्यक्तमूर्तिना by the unmanifested form? मत्स्थानि exist in Me? सर्वभूतानि all beings? न not? च and? अहम् I? तेषु in them? अवस्थितः placed.Commentary Avyaktamurti is Para Brahman or the Supreme Unmanifested Being invisible to the senses but cognisable through intuition. All beings from Brahma? the Creator? down to the blade of grass or an ant? dwell in the transcendental Para Brahman. They have no independent existence they exist through the Self which is the support for everythin? which underlies them all.Nothing here contains It. As Brahman is the Self of all beings? one may imagine that It dwells in them. But it is not so. How could it be How can the Infinite be contained in a finite object Brahman has no connection or contact with any material object? just as a chair or a table has contact with the ground or a man or a book. So It does not dwell in those beings. That which has no connection or contact with objects or beings cannot be contained anywhere as if in a vessel? trunk? room or receptacle. The Self is not rooted in all these forms. It is not contained by any of these forms just as the ether is not contained in any form though all forms are derived from the ether.All beings appear to be living in Brahman? but this is an illusion. If this illusion vanishes? nothing remains anywhere except Brahman. When ignorance? the cause of this illusion? disappears? the very idea of the existence of these beings also will vanish.In verses 4 and 5 the Lord uses a paradox or an apparent contradiction All beings dwell in Me and yet do not dwell in Me I do not dwell in them. For a thinker there is no real contradiction at all. Just as space contains all beings and yet is not touched by them? so also Para Brahman contains everything and yet is not touched by them. Even Mulaprakriti? the source or womb of this world? is supported by Brahman. Brahman has no support or root. It rests in Its own pristine glory. (Cf.VII.12?24VIII.22)
9.4 Idam, this; sarvam, whole; jagat, world; is tatam, pervaded; maya, by Me; through the supreme nature, that I have, avyakta-murtina, in My unmanifest form, in that form in which My nature is not manifest, i.e. in My form which is beyond the range of the organs. Sarva-bhutani, all beings, from Brahma to a clump of grass; matsthani, exist in Me, are established in Me in that unmanifest form. For, no created thing that is bereft of the Self (i.e. of Reality) can be conceived of as an object of practical use. Therefore, being possessed of their reality through Me who am their Self, they exist in Me. Hence they are said to be established in Me. I Myself am the Self of those created things. Conseently, it appears to people of little understanding that I dwell in them. Hence I say: Na ca aham, but I am not; avasthitah, contained; tesu, in them, in the created things. Since unlike gross objects I am not in contact with anything, therefore I am certainly the inmost core even of space. For, a thing that has no contact with anything cannot exist like something contained in a receptacle. For this very reason that I am not in contact with anyting-
9.4 Maya etc. All beings exist in Me : Because no other abode of rest is available, even if one wanders [in search of it] for long. The beings (or elements) that form the objects of knowledge possess their well-known nature of insentiency. When these beings manifest with this nature foremost, their other innate nature viz., sentiency, that is opposed to this [former nature], remain hidden. This is what He says by I do not exist in them.
9.4 This entire universe, composed to sentient and non-sentient beings, is pervaded by Me, the inner controller, whose form is not manifest, namely, whose essential nature is unmanifest. The meaning is that all this is pervaded by Me, the Principal (Sesi), so that I may sustain and rule this universe. This, the pervasion of all by the inner controller, who is invisible to the entire group of sentient and non-sentient beings, is taught in the following passage of the Antaryami-brahmana: He who dwells in the earth ৷৷. whom the earth does not know (Br. U., 3.7.3) and He who dwells in the self ৷৷. whom the self does not know etc., (Br. U. Madh., 3.7.22). Therefore all beings abide in Me; all beings rest in Me who am their inner controller. In the same Brahmana it is taught that their existence and control are dependent on Him, as they are subject to His control and as they constitute His body: He whose body is the earth ৷৷. who controls the earth from within (Br. U., 3.7.3) and He whose body is the self ৷৷. He who controls the self from within (Br. U. Madh., 3.7.22). So also His primacy over everything is taught. I am not in them, namely, I do not depend on them for My existence. There is no help derived from them for My existence.
In seven verses, the Lord speaks of whatever knowledge of the powers of God is required by devotees who are in dasya bhakti. I pervade this whole universe with my form, since I am its cause, but am invisible to the senses (avyakta). Thus all the living entities moving and non-moving are situated in me (mat sthani), a form of pure consciousness, as I am their cause. But I am not situated in all these entities, as clay is present in its product, such as pots, because I am completely disinterested.
Thus after causing one to become inquisitive by so praising this supreme and confidential wisdom, Lord Krishna expounds upon it in this verse and the next. The words sarvam jagat mean the whole cosmic material manifestation. This He has revealed is permeated by Him in the unmanifest form of the brahman or spiritual substratum pervading all existence which is beyond the ability of the senses to perceive. The Taittriya Upanisad II.VI states: That the Supreme Lord as the substratum of everything projects it into everything created. Therefore all beings moving or stationary abide within the Supreme Lord who embodies the cause of all beings. Although this is a reality still He is not part of any their effects unlike clay which effects can be seen as an ingredient in plates and pots. The Supreme Lord is unattached and unaffected like space containing unlimited variegated forms but is not affected by or attached to any of them.
Again in this verse Lord Krishna discourses on the unmanifest state of the brahman or spiritual substratum pervading all existence.
The complete cosmic creation constituted of variegated myriad of sentient and insentient beings is permeated by the Supreme Lord Krishna. The words avyakta-murttina mean His subtle form manifested as the brahman or spiritual substratum pervading all existence. It is indiscernible by the material senses and is unable to be perceived by the mind. Although secretly hidden, He is manifested internally in the unrivalled presence of paramatma the purely spiritual supreme soul in everything sentient and insentient. So in spirit He pervades everywhere. Lord Krishna does this in relation to universal creation as the Supreme Sovereign Lord manifesting it and also by maintaining and sustaining it. As stated in the Brihadaranyaka Upanisad V.VII.III beginning ya prithivyam tishtham or He who abides in earth but whom earth knows not and He to whom in the interior of earth is sovereign ruler and in verse V.VII.XXII beginning ya atmani tishtham meaning He who resides in the soul but the soul knows not and He to whom the soul is the body who from the interior of the soul is sovereign ruler. Both verses confirm His supreme presence and pervasive nature in everything which is sentient as well as insentient; but totally unperceived. By reference to earth, body, soul establishes complete compliance to His sovereign rulership and establishes the dependence of all things upon Him as they derive their very existence from Him. Hence all existences and everything existing in all existences have their abode within the Supreme Lord.
The complete cosmic creation constituted of variegated myriad of sentient and insentient beings is permeated by the Supreme Lord Krishna. The words avyakta-murttina mean His subtle form manifested as the brahman or spiritual substratum pervading all existence. It is indiscernible by the material senses and is unable to be perceived by the mind. Although secretly hidden, He is manifested internally in the unrivalled presence of paramatma the purely spiritual supreme soul in everything sentient and insentient. So in spirit He pervades everywhere. Lord Krishna does this in relation to universal creation as the Supreme Sovereign Lord manifesting it and also by maintaining and sustaining it. As stated in the Brihadaranyaka Upanisad V.VII.III beginning ya prithivyam tishtham or He who abides in earth but whom earth knows not and He to whom in the interior of earth is sovereign ruler and in verse V.VII.XXII beginning ya atmani tishtham meaning He who resides in the soul but the soul knows not and He to whom the soul is the body who from the interior of the soul is sovereign ruler. Both verses confirm His supreme presence and pervasive nature in everything which is sentient as well as insentient; but totally unperceived. By reference to earth, body, soul establishes complete compliance to His sovereign rulership and establishes the dependence of all things upon Him as they derive their very existence from Him. Hence all existences and everything existing in all existences have their abode within the Supreme Lord.
Mayaa tatamidam sarvam jagadavyaktamoortinaa; Matsthaani sarvabhootaani na chaaham teshvavasthitah.
mayā—by Me; tatam—pervaded; idam—this; sarvam—entire; jagat—cosmic manifestation; avyakta-mūrtinā—the unmanifested form; mat-sthāni—in Me; sarva-bhūtāni—all living beings; na—not; cha—and; aham—I; teṣhu—in them; avasthitaḥ—dwell