यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।
।।9.6।।जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है? ऐसे ही सम्पूर्ण प्राणी मुझमें ही स्थित रहते हैं -- ऐसा तुम मान लो।
।।9.6।। जैसे सर्वत्र विचरण करने वाली महान् वायु सदा आकाश में स्थित रहती हैं? वैसे ही सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं? ऐसा तुम जानो।।
।।9.6।। व्याख्या -- यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान् -- जैसे सब जगह विचरनेवाली महान् वायु नित्य ही आकाशमें स्थित रहती है अर्थात् वह कहीं निःस्पन्दरूपसे रहती है? कहीं सामान्यरूपसे क्रियाशील रहती है? कहीं बड़े वेगसे चलती है आदि? पर किसी भी रूपसे चलनेवाली वायु आकाशसे अलग नहीं हो सकती। वह वायु कहीं रुकी हुई मालूम देगी और कहीं चलती हुई मालूम देगी? तो भी वह आकाशमें ही रहेगी। आकाशको छोड़कर वह कहीं रह ही नहीं सकती। ऐसे ही तीनों लोकों और चौदह भुवनोंमें घूमनेवाले स्थावरजङ्गम सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें ही स्थित रहते हैं -- तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानि।भगवान्ने चौथे श्लोकसे छठे श्लोकतक तीन बार मत्स्थानि शब्दका प्रयोग किया है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ये सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें ही स्थित हैं। मेरेको छोड़कर ये कहीं जा सकते ही नहीं। ये प्राणी प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदिके साथ कितना ही घनिष्ठ सम्बन्ध मान लें? तो भी वे प्रकृति और उसके कार्यसे एक हो सकते ही नहीं और अपनेको मेरेसे कितना ही अलग मान लें? तो भी वे मेरेसे अलग हो सकते ही नहीं।वायुको आकाशमें नित्य स्थित बतानेका तात्पर्य यह है कि वायु आकाशसे कभी अलग हो ही नहीं सकती। वायुमें यह किञ्चिन्मात्र भी शक्ति नहीं है कि वह आकाशसे अलग हो जाय क्योंकि आकाशके साथ उसका नित्यनिरन्तर घनिष्ठ सम्बन्ध अर्थात् अभिन्नता है। वायु आकाशका कार्य है और कार्यकी कारणके साथ अभिन्नता होती है। कार्य केवल कार्यकी दृष्टिसे देखनेपर कारणसे भिन्न दीखता है परन्तु कारणसे कार्यकी अलग सत्ता नहीं होती। जिस समय कार्य कारणमें लीन रहता है? उस समय कार्य कारणमें प्रागभावरूपसे अर्थात् अप्रकटरूपसे रहता है? उत्पन्न होनेपर कार्य भावरूपसे अर्थात् प्रकटरूपसे रहता है और लीन होनेपर कार्य प्रध्वंसाभावरूपसे अर्थात् कारणरूपसे रहता है। कार्यका प्रध्वंसाभाव नित्य रहता है? उसका कभी अभाव नहीं होता क्योंकि वह कारणरूप ही हो जाता है। इस रीतिसे वायु आकाशसे ही उत्पन्न होती है? आकाशमें ही स्थित रहती है और आकाशमें ही लीन हो जाती है अर्थात् वायुकी स्वतन्त्र सत्ता न रहकर आकाश ही रह जाता है। ऐसे ही यह जीवात्मा परमात्मासे ही प्रकट होता है? परमात्मामें ही स्थित रहता है और परमात्मामें ही लीन हो जाता है अर्थात् जीवात्माकी स्वतन्त्र सत्ता न रहकर केवल परमात्मा ही रह जाते हैं।जैसे वायु गतिशील होती है अर्थात् सब जगह घूमती है? ऐसे यह जीवात्मा गतिशील नहीं होता। परन्तु जब यह गतिशील प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ अपनापन (मैंमेरापन) कर लेता है? तब शरीरकी गति इसको अपनी गति देखने लग जाती है। गतिशीलता दीखनेपर भी यह नित्यनिरन्तर परमात्मामें ही स्थित रहता है। इसलिये दूसरे अध्यायके चौबीसवें श्लोकमें भगवान्ने जीवात्माको नित्य? सर्वगत? अचल? स्थाणु और सनातन बताया है। यहाँ शरीरोंकी गतिशीलताके कारण इसको सर्वगत बताया है। अर्थात् यह सब जगह विचरनेवाला दीखता हुआ भी अचल और स्थाणु है। यह स्थिर स्वभाववाला है। इसमें हिलनेडुलनेकी क्रिया नहीं है। इसलिये भगवान् यहाँ कह रहे हैं कि सब प्राणी अटलरूपसे नित्यनिरन्तर मेरीमें ही स्थित हैं।तात्पर्य हुआ कि तीनों लोक और चौदह भुवनोंमें घूमनेवाले जीवोंकी परमात्मासे भिन्न किञ्चिन्मात्र भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं है और हो सकती भी नहीं अर्थात् सब योनियोंमें घूमते रहनेपर भी वे नित्यनिरन्तर परमात्माके सच्चिदानन्दघनस्वरूपमें ही स्थित रहते हैं। परन्तु प्रकृतिके कार्यके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे इसका अनुभव नहीं हो रहा है। अगर ये मनुष्यशरीरमें अपनापन न करें? मैंमेरापन न करें तो इनको असीम आनन्दका अनुभव हो जाय। इसलिये मनुष्यमात्रको चेतावनी देनेके लिये यहाँ भगवान् कहते हैं कि तुम मेरेमें नित्यनिरन्तर स्थित हो? फिर मेरी प्राप्तिमें परिश्रम और देरी किस बातकी मेरेमें अपनी स्थिति न माननेसे और न जाननेसे ही मेरेसे दूरी प्रतीत हो रही है।इति उपधारय -- यह बात तुम विशेषतासे धारण कर लो? मान लो कि चाहे सर्ग(सृष्टि) का समय हो? चाहे प्रलयका समय हो? अनन्त ब्रह्माण्डोंके सम्पूर्ण प्राणी सर्वथा मेरेमें ही रहते हैं मेरेसे अलग उनकी स्थिति कभी हो ही नहीं सकती। ऐसा दृढ़तासे मान लेनेपर प्रकृतिके कार्यसे विमुखता हो जायगी और वास्तविक तत्त्वका अनुभव हो जायगा।इस वास्तविक तत्त्वका अनुभव करनेके लिये साधक दृढ़तासे ऐसा मान ले कि जो सब देश? काल? वस्तु? व्यक्ति आदिमें सर्वथा परिपूर्ण हैं? वे परमात्मा ही मेरे हैं। देश? काल? वस्तु? व्यक्ति आदि कोई भी मेरा नहीं है और मैं उनका नहीं हूँ।विशेष बातसम्पूर्ण जीव भगवान्में ही स्थित रहते हैं। भगवान्में स्थित रहते हुए भी जीवोंके शरीरोंमें उत्पत्ति? स्थिति और प्रलयका क्रम चलता रहता है क्योंकि सभी शरीर परिवर्तनशील हैं और यह जीव स्वयं अपरिवर्तनशील है। इस जीवकी परमात्माके साथ तात्त्विक एकता है। परन्तु जब यह जीव परमात्मासे विमुख होकर शरीरके साथ,अपनी एकता मान लेता है? तब इसे मैंपनकी स्वतन्त्र सत्ताका भान होने लगता है कि मैं शरीर हूँ। इस मैंपनमें एक तो परमात्माका अंश है और एक प्रकृतिका अंश है -- यह जीवका स्वरूप हुआ। जीव अंश तो है परमात्माका? पर पकड़ लेता है प्रकृतिके अंशको।इस मैंपनमें जो प्रकृतिका अंश है? वह स्वतः ही प्रकृतिकी तरफ खिंचता है। परन्तु प्रकृतिके अंशके साथ तादात्म्य होनेसे परमात्माका अंश जीव उस खिंचावको अपना खिंचाव मान लेता है और मुझे सुख मिल जाय? धन मिल जाय? भोग मिल जाय -- ऐसा भाव कर लेता है। ऐसा भाव करनेसे वह परमात्मासे विशेष विमुख हो जाता है। उसमें संसारका सुख हरदम रहे पदार्थोंका संयोग हरदम रहे यह शरीर मेरे साथ और मैं शरीरके साथ सदा रहूँ -- ऐसी जो इच्छा रहती है? यह इच्छा वास्तवमें परमात्माके साथ रहनेकी है क्योंकि उसका नित्य सम्बन्ध तो परमात्माके साथ ही है।जीव शरीरोंके साथ कितना ही घुलमिल जाय? पर परमात्माकी तरफ उसका खिंचाव कभी मिटता नहीं? मिटनेकी सम्भावना ही नहीं। मैं नित्यनिरन्तर रहूँ? सदा रहूँ? सदा सुखी रहूँ तथा मुझे सर्वोपरि सुख मिले -- इस रूपमें परमात्माका खिंचाव रहता ही है। परन्तु उससे भूल यह होती है कि वह (जडअंशकी मुख्यतासे) इस सर्वोपरि सुखको जडके द्वारा ही प्राप्त करनेकी इच्छा करता है। वह भूलसे उस सुखको चाहने लगता है? जिस सुखपर उसका अधिकार नहीं है। अगर वह सजग? सावधान हो जाय और भोगोंमें कोई सुख नहीं है? आजतक कोईसा भी संयोग नहीं रहा? रहना सम्भव ही नहीं -- ऐसा समझ ले? तो सांसारिक संयोगजन्य सुखकी इच्छा मिट जायगी और वास्तविक? सर्वोपरि? नित्य रहनेवाले सुखकी इच्छा (जो कि आवश्यकता है) जाग्रत् हो जायगी। यह आवश्यकता ज्योंज्यों जाग्रत् होगी? त्योंहीत्यों नाशवान् पदार्थोंसे विमुखता होती चली जायगी। नाशवान् पदार्थोंसे सर्वथा विमुखता होनेपर मेरी स्थिति तो अनादिकालसे परमात्मामें ही है -- इसका अनुभव हो जायगा। सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंकी स्थिति अपनेमें बतायी? पर उनके महासर्ग और महाप्रलयका वर्णन करना बाकी रह गया। अतः उसका वर्णन आगेके दो श्लोकोंमें करते हैं।
।।9.6।। इस गुत्थी को सुलझाने का प्रयत्न कर रहे भ्रमित राजकुमार अर्जुन को भगवान् श्रीकृष्ण एक सुन्दर एवं स्पष्ट दृष्टान्त देकर उसकी सहायता करते हैं। किसी ऐसी वस्तु की कल्पना कर सकना अत्यन्त कठिन है जो सर्वत्र विद्यमान है? जिसमें सबकी स्थिति है और फिर भी? वह स्वयं उन सब वस्तुओं के दोषों से लिप्त या बद्ध नहीं होती। सामान्य मनुष्य की बुद्धि इस ज्ञान की ऊँचाई तक सरलता से उड़ान नहीं भर सकती। शिष्य की ऐसी बुद्धि के लिये एक टेक या आश्रय के रूप में यहाँ एक अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक उदाहरण प्रस्तुत किया गया है? जिसकी सहायता से स्वयं को ऊँचा उठाकर वह अपने ही परिच्छेदों के परे दृष्टिपात करके अनन्त तत्त्व के विस्तार का दर्शन कर सके।स्थूल कभी सूक्ष्म को सीमित नहीं कर सकता। जैसे किसी कवि ने गाया है? पाषाण की दीवारें कारागृह नहीं बनातीं? क्योंकि एक बन्दी के शरीर को वहाँ बन्दी बना लेने पर भी उसके विचार अपने मित्र और बन्धुओं के पास पहुँचने में नित्य मुक्त हैं? स्वतन्त्र हैं। स्थूल पाषाण की दीवारें उसके सूक्ष्म विचारों की उड़ान पर प्रतिबन्ध नहीं लगा सकतीं। यदि एक बार इस सिद्धांत को भली भांति समझ लें? तो यह दृष्टान्त अत्यन्त भाव व्यंजक बनकर अपने गूढ़ अभिप्रायों को प्रदर्शित कर देता है।वायु का बहना? घूर्णन करना और भंवर के रूप में वेग से घूमना यह सब कुछ एक आकाश में होता है। आकाश उन सबको आश्रय देकर उन्हें सर्वत्र व्याप्त किये रहता है? किन्तु वे किसी भी प्रकार से आकाश को सीमित नहीं करते। सामान्य बौद्धिक क्षमता का साधक भी यदि इस दृष्टान्त का मनन करे? तो वह आत्मा और अनात्मा के बीच के वास्तविक संबंध को समझ सकता है? उसे परिभाषित कर सकता है। सत्य वस्तु मिथ्या का आधार है मिथ्या तादात्म्य से उत्पन्न असंख्य जीव नित्य और सत्य वस्तु में ही रहते हुए सुखदुख? कष्ट और पीड़ा का जीवन जीते हुए दिखाई देते हैं। परन्तु मिथ्या वस्तु कभी सत्य को सीमित या दोषलिप्त नहीं कर सकती। वायु के विचरण से आकाश में कोई गति नहीं आती आकाश वायु के सब गुण धर्मों से मुक्त रहता है। सर्वव्यापक आकाश की तुलना में? जिसमें कि असंख्य ग्रह नक्षत्र? तारामण्डल अमाप गति से घूम रहे हैं? यह वायुमण्डल और उसके विकार तो पृथ्वी की सतह से कुछ मील की ऊँचाई तक ही होते हैं। अनन्त सत्य की व्यापक विशालता में? अविद्याजनित मिथ्या जगत् के परिवर्तन की रंगभूमि मात्र एक नगण्य क्षेत्र है৷৷. और वहाँ भी सत्य और मिथ्या के बीच संबंध वही है? जो चंचल वायु और अनन्त आकाश में है।यह श्लोक केवल शब्दों के द्वारा सत्य का वर्णन करने के लिए नहीं है। व्याख्याकारों का वर्णन कितना ही सत्य क्यों न हो प्रत्येक जिज्ञासु साधक को इनके अर्थ पर स्वयं चिन्तनमनन करना होगा।तब पूर्वाध्याय में आपके बताये हुए पुनर्जन्म के सिद्धांत और ब्रह्माजी के दिन और रात में होने वाली सृष्टि और प्रलय की कथा की स्थिति क्या होगी इस पर कहते हैं --
9.6 Understand thus that just as the voluminous wind moving everywhere is ever present in space, similarly all beings abide in Me.
9.6 As the mighty wind, moving everywhere, rests always in the ether, even so, know thou that all beings rest in Me.
9.6. Just as the mighty wind exists in the ether, always moving [in it] everywhere, in the same manner all beings exist in Me. Be sure of it.
9.6 यथा as? आकाशस्थितः rests in the Akasa? नित्यम् always? वायुः the air? सर्वत्रगः moving everywhere? महान् great? तथा so? सर्वाणि all? भूतानि beings? मत्स्थानि rest in Me? इति thus? उपधारय know.Commentary The Lord gives a beautiful illustration or simile in this verse to explain what He has said in the previous two verses. Just as the wind ever rests in the ether (space) without any contact or attachment? so also all beings and objects rest in Brahman without any attachment or contact at all. These objects cannot produce any effect on It.What sort of relationship is there between Brahman and the objects of this universe Is it Samyoga? Samavaya or Tadatmya Sambandha The relationship of the stick with the drum is Samyaoga Sambandha. Let us assume that there is such a Sambandha (relationship or connection). There cannot be connection between all the parts because Brahman is infinite and the elements are finite. You may say that there is connection of the Ekadesa type. This is also not possible? because there can be such relationship only between objects which possess members or parts like the tree and monkey. (Ekadesa is partial). Brahman has no parts.If you say that there is Samavaya Sambandha between Brahman and the objects or the elements? this is also not possible. The relationship between the attribute and the possessors of that attribute is called Samavaya Sambandha. The relationship between an individual Brahmin and the whole Brahmin caste is also Samavaya Sambandha. The relationship between hand and man? between the leg and the man is also Samavaya Sambandha. Such relationship does not exist between Brahman and the objects or the elements.The third kind of relationship? viz.? Tadatmya Sambandha is seen to exist between milk and water? fire and the iron ball. Milk shares its alities of sweetness and whiteness with water. Fire shares its alities of brilliance? heat and redness with the hot iron ball. This too is not possible between Brahman and the objects or the elements? because Brahman is ExistenceKnowledgeBliss Absolute and allfull and perfect whereas the elements are insentient? finite and painful. How can they with ite contrary alities have Tadatmya Sambandha with BrahmanTherefore it can be admitted that the elemtns have only got Kalpita Sambandha (superimposition) with Brahman. That object which is superimposed on the substratum or support exists in name only. It does not exist in reality. Brahman is the support or the substratum for this world of names and forms. World here includes all beings and their three kinds of bodies (physical? mental and causal). Therefore? the elements or the beings in this world are not really rooted in Brahman. They do not really dwell in Brahman. It is all in name only.Vayu also means Sutratman or Hiranyagarbha. Bhuta also means the individual consciousness. Just as the ether in the pot is not distinct from the universal ether before the origin and after the destruction of the pot and even when the pot exists? and it is of the nature of the universal soul is of the nature of Brahman during the three periods of time? past? present and future.Just as all efects exist in a state of nondifference in their material cause before they appear? during their period of existence and after their destruction? so also the individual souls are not different from Brahman before the origin of the various limiting adjuncts like mind? intellect? etc.?,during the period of their existence and after their destruction.
9.6 Upadharaya, understand; iti, thus; that yatha, just as; in the world, the mahan, voluminous-in dimension; vayuh, wind; sarvatragah, moving everywhere; is nityam, ever; [During creation, continuance and dissolution] akasa-sthitah, present in space; tatha, similarly; (sarvani, all; bhutani, beings; matsthani,) abide in Me who am omnipresent like space-abide certainly without any contact.
9.6 Yatha etc. Evam etc. In spite of the concomitant connection between the ether and the wind, the touchability of the ether is never heard of. In the same manner the Absolute pervades the entire universe and yet remains not comprehended by all men.
9.6 The powerful air remains and moves everywhere in the ether (Akasa) without any perceivable support. So it has necessarily got to be admitted that the powerful air is dependent on Me for its existence and is being upheld by Me alone. Even so know that all entities abide in Me, who am invisible to them, and that they are upheld by Me alone. The knowers of the Veda declare thus: The origin of clouds, the waters of the ocean remaining within bounds, the phases of the moon, the strong movements of the gale, the flash of lightning and the movements of the sun - all these are marvellous manifestations of the power of Visnu. The meaning is that they are all the marvellous miracles which are unie to Visnu. The Srutis and other texts also declare likewise: Verily, O Gargi, at the ?nd of that Imperishable One, the sun and the moon stand apart (Br. U., 3.8.9, and Through the fear of Him the wind blows, through the fear of Him the sun rises, through the fear of Him Agni and Indra perform their duties (Tai. U., 2.8.1). It has been declared that the existence and acts of all beings originate by the will of the Lord, who is independent of all others. Now Sri Krsna declares that the origin and dissolution of all entities also are due to His will only:
Though the living beings are in me, who remain detached, they art not in me; and though 1 am in them, I am not in them. An example is given in this verse to illustrate. The wind remains always situated in the ether, which has a nature of being detached. The wind has a nature of being restless, going everywhere (sarvatra gah) and is great in size (mahan). Because of the detachment of the ether, the wind is situated in it, but not situated in it; the ether, though in the wind, is not in the wind, because of detachment. Similarly all things such as ether, which are great in dimension and are moving everywhere, are situated in me, but 1 also have the nature of detachment. Please consider and accept this fact. But the Lord has said that his powers are inconceivable: pasya me yogam aisvaram. How then can those powers remain inconceivable if they are just like common ether and wind? It is explained as follows. Ether has detachment because it is unconsciouscious by its very nature. Among conscious beings however, detachment does not exist anywhere, except in the Lord, even though he is at once the abode of everything and its controller. This establishes the inconceivability of the Lord. This example, comparing ether to the Lord, is given for the understanding of the common man.
The relationship between supporter and the supported even if they are not in contact with each other is being illustrated with an example by Lord Krishna. As the wind ever present blowing everywhere is situated in space but distinctly separate from it as space has no possibility of union with it. In the same manner all beings are contained within Lord Krishna and abide within Him.
It has been stated that one thing may abide in another thing; but the attributes of one need not be possessed by the other. This is what Lord Krishna explains with the word vayuh or wind which abides in space as an example of how both the wind and the space are separate andor the source unaffected by each other, in order to show His relationship with the all things in material existence.
As all over infinite space which appears without support the mighty wind is able to blow and move everywhere. How is this possible? The wind blowing and infinite space itself is only possible due to the power of the Supreme Lord Krishna and yet His power cannot be perceived. Thus all creation abides within Him without knowing it. Those knowledgeable of the Vedic scriptures declare megodayas sagara sanni-vritti-rindor vibhagas sphurati va yo etc. meaning:The genesis of the clouds, the massing of the seas, the phases of the moon, the wafting of the wind, the flashing of lightning and the processions of the sun are all the marvellous miracles of the Supreme Lord. This is also confirmed in the Brihadaranya Upanisad V.VIII.IX beginning etasya va aksarasya meaning: By the sole command of the imperishable Supreme Lord the sun and moon are supported in their assigned spheres. The Taittriya Upanisad II.VIII.I beginning bhisha smad vatah pavate states: Out of fear of the Supreme Lord the wind blows, out of fear of the Supreme Lord the sun rises. It is by a mere fiat of the Supreme Lord Krishnas will alone that the complete cosmic manifestaion and total material creation full of unlimited moving and non-moving beings are in existence and this is what has been revealed as absolute. In the next verse will be revealed that the origin, creation and dissolution of all beings is likewise produced by a fiat of His will as well.
As all over infinite space which appears without support the mighty wind is able to blow and move everywhere. How is this possible? The wind blowing and infinite space itself is only possible due to the power of the Supreme Lord Krishna and yet His power cannot be perceived. Thus all creation abides within Him without knowing it. Those knowledgeable of the Vedic scriptures declare megodayas sagara sanni-vritti-rindor vibhagas sphurati va yo etc. meaning:The genesis of the clouds, the massing of the seas, the phases of the moon, the wafting of the wind, the flashing of lightning and the processions of the sun are all the marvellous miracles of the Supreme Lord. This is also confirmed in the Brihadaranya Upanisad V.VIII.IX beginning etasya va aksarasya meaning: By the sole command of the imperishable Supreme Lord the sun and moon are supported in their assigned spheres. The Taittriya Upanisad II.VIII.I beginning bhisha smad vatah pavate states: Out of fear of the Supreme Lord the wind blows, out of fear of the Supreme Lord the sun rises. It is by a mere fiat of the Supreme Lord Krishnas will alone that the complete cosmic manifestaion and total material creation full of unlimited moving and non-moving beings are in existence and this is what has been revealed as absolute. In the next verse will be revealed that the origin, creation and dissolution of all beings is likewise produced by a fiat of His will as well.
Yathaakaashasthito nityam vaayuh sarvatrago mahaan; Tathaa sarvaani bhootaani matsthaaneetyupadhaaraya.
yathā—as; ākāśha-sthitaḥ—rests in the sky; nityam—always; vāyuḥ—the wind; sarvatra-gaḥ—blowing everywhere; mahān—mighty; tathā—likewise; sarvāṇi bhūtāni—all living beings; mat-sthāni—rest in Me; iti—thus; upadhāraya—know