सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकाम्।
कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम्।।9.7।।
।।9.7।।हे कुन्तीनन्दन कल्पोंका क्षय होनेपर सम्पूर्ण प्राणी मेरी प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और कल्पोंके आदिमें मैं फिर उनकी रचना करता हूँ।
।।9.7।। हे कौन्तेय (एक) कल्प के अन्त में समस्त भूत मेरी प्रकृति को प्राप्त होते हैं और (दूसरे) कल्प के प्रारम्भ में उनको मैं फिर रचता हूँ।।
।।9.7।। व्याख्या -- सर्वभूतानि कौन्तेय प्रकृतिं यान्ति मामिकां कल्पक्षये -- सम्पूर्ण प्राणी मेरे ही अंश हैं और सदा मेरेमें ही स्थित रहनेवाले हैं। परन्तु वे प्रकृति और प्रकृतिके कार्य शरीर आदिके साथ तादात्म्य,(मैंमेरेपनका सम्बन्ध) करके जो कुछ भी कर्म करते हैं? उन कर्मों तथा उनके फलोंके साथ उनका सम्बन्ध जुड़ता जाता है? जिससे वे बारबार जन्मतेमरते रहते हैं। जब महाप्रलयका समय आता है,(जिसमें ब्रह्माजी सौ वर्षकी आयु पूरी होनेपर लीन हो जाते हैं)? उस समय प्रकृतिके परवश हुए वे सम्पूर्ण प्राणी प्रकृतिजन्य सम्बन्धको लेकर अर्थात् अपनेअपने कर्मोंको लेकर मेरी प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं।महासर्गके समय प्राणियोंका जो स्वभाव होता है? उसी स्वभावको लेकर वे महाप्रलयमें लीन होते हैं।पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् -- महाप्रलयके समय अपनेअपने कर्मोंको लेकर प्रकृतिमें लीन हुए प्राणियोंके कर्म जब परिपक्व होकर फल देनेके लिये उन्मुख हो जाते हैं? तब प्रभुके मनमें बहु स्यां प्रजायेय ऐसा संकल्प हो जाता है। यही महासर्गका आरम्भ है। इसीको आठवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें कहा है -- भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः अर्थात् सम्पूर्ण प्राणियोंका जो होनापन है? उसको प्रकट करनेके लिये भगवान्का जो संकल्प है? यही विसर्ग (त्याग) है और यही आदिकर्म है। चौदहवें अध्यायमें इसीको गर्भं दधाम्यहम् (14। 3) और अहं बीजप्रदः पिता (14। 4) कहा है।तात्पर्य यह हुआ कि कल्पोंके आदिमें अर्थात् महासर्गके आदिमें ब्रह्माजीके प्रकट होनेपर मैं पुनः प्रकृतिमें लीन हुए? प्रकृतिके परवश हुए? उन जीवोंका उनके कर्मोंके अनुसार उनउन योनियों (शरीरों) के साथ विशेष,सम्बन्ध करा देता हूँ -- यह मेरा उनको रचना है। इसीको भगवान्ने चौथे अध्यायके तेरहवें श्लोकमें कहा है -- चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः अर्थात् मेरे द्वारा गुणों और कर्मोंके विभागपूर्वक चारों वर्णोंकी रचना की गयी है।ब्रह्माजीके एक दिनका नाम कल्प है? जो मानवीय एक हजार चतुर्युगीका होता है। इतने ही समयकी ब्रह्माजीकी एक रात होती है। इस हिसाबसे ब्रह्माजीकी आयु सौ वर्षोंकी होती है। ब्रह्माजीकी आयु समाप्त होनेपर जब ब्रह्माजी लीन हो जाते हैं? उस महाप्रलयको यहाँ कल्पक्षये पदसे कहा गया है। जब ब्रह्माजी पुनः प्रकट होते हैं? उस महासर्गको यहाँ कल्पादौ पदसे कहा गया है।यहाँ सर्वभूतानि प्रकृतिं यान्ति महाप्रलयमें तो जीव स्वयं प्रकृतिको प्राप्त होते हैं और तानि कल्पादौ विसृजामि महासर्गके आदिमें मैं उनकी रचना करता हूँ -- ये दो प्रकारकी क्रियाएँ देनेका तात्पर्य है कि क्रियाशील होनेसे प्रकृति स्वयं लयकी तरफ जाती है अर्थात् क्रिया करतेकरते थकावट होती है तो प्रकृतिका परमात्मामें लय होता है। ऐसी प्रकृतिके साथ सम्बन्ध रखनेसे महाप्रलयके समय प्राणी भी स्वयं प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं और प्रकृति परमात्मामें लीन हो जाती है। महासर्गके आदिमें उनके परिपक्व कर्मोंका फल देकर उनको शुद्ध करनेके लिये मैं उनके शरीरोंकी रचना करता हूँ। रचना उन्हीं प्राणियोंकी करता हूँ? जो कि प्रकृतिके परवश हुए हैं। जैसे मकानका निर्माण तो किया जाता है? पर वह धीरेधीरे स्वतः गिर जाता है? ऐसे ही सृष्टिकी रचना तो भगवान् करते हैं? पर प्रलय स्वतः होता है। इससे सिद्ध हुआ कि प्रकृतिके कार्य(संसारशरीर) की रचनामें तो भगवान्का हाथ होता है पर प्रकृतिका कार्य ह्रासकी तरफ स्वतः जाता है। ऐसे ही भगवान्का अंश होनेके कारण जीव स्वतः भगवान्की तरफ? उत्थानकी तरफ जाता है। परन्तु जब वह कामना? ममता? आसक्ति करके स्वतः पतन(ह्रास) की तरफ जानेवाले नाशवान् शरीरसंसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है? तब वह पतनकी तरफ चला जाता है। इसलिये मनुष्यको अपने विवेकको महत्त्व देकर तत्परतासे अपना उत्थान करना चाहिये अर्थात् कामना? ममता? आसक्तिका त्याग करके केवल भगवान्के ही सम्मुख हो जाना चाहिये।
।।9.7।। See commentary under 9.8.