न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु।।9.9।।
।।9.9।।हे धनञ्जय उन (सृष्टिरचना आदि) कर्मोंमें अनासक्त और उदासीनकी तरह रहते हुए मेरेको वे कर्म नहीं बाँधते।
।।9.9।। हे धनंजय उन कर्मों में आसक्ति रहित और उदासीन के समान स्थित मुझ (परमात्मा) को वे कर्म नहीं बांधते हैं।।
।।9.9।। व्याख्या -- उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु -- महासर्गके आदिमें प्रकृतिके परवश हुए प्राणियोंकी उनके कर्मोंके अनुसार विविध प्रकारसे रचनारूप जो कर्म है? उसमें मेरी आसक्ति नहीं है। कारण कि मैं उनमें उदासीनकी तरह रहता हूँ अर्थात् प्राणियोंके उत्पन्न होनेपर मैं हर्षित नहीं होता और उनके प्रकृतिमें लीन होनेपर मैं खिन्न नहीं होता।यहाँ उदासीनवत् पदमें जो वत् (वति) प्रत्यय है? उसका अर्थ तरह होता है अतः इस पदका अर्थ हुआ -- उदासीनकी तरह। भगवान्ने अपनेको उदासीनकी तरह क्यों कहा कारण कि मनुष्य उसी वस्तुसे उदासीन होता है? जिस वस्तुकी वह सत्ता मानता है। परन्तु जिस संसारकी उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय होता है? उसकी भगवान्के सिवाय कोई स्वतन्त्र सत्ता ही नहीं है। इसलिये भगवान् उस संसारकी रचनारूप कर्मसे उदासीन क्या रहें वे तो उदासीनकी तरह रहते हैं क्योंकि भगवान्की दृष्टिमें संसारकी कोई सत्ता ही नहीं है। तात्पर्य है कि वास्तवमें यह सब भगवान्का ही स्वरूप है? इनकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं? तो अपने स्वरूपसे भगवान् क्या उदासीन रहें इसलिये भगवान् उदासीनकी तरह हैं।न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति -- पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा है कि मैं प्राणियोंको बारबार रचता हूँ? उन रचनारूप कर्मोंको ही यहाँ तानि कहा गया है। वे कर्म मेरेको नहीं बाँधते क्योंकि उन कर्मों और उनके फलोंके साथ मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। ऐसा कहकर भगवान् मनुष्यमात्रको यह शिक्षा देते हैं? कर्मबन्धनसे छूटनेकी युक्ति बताते हैं कि जैसे मैं कर्मोंमें आसक्त न होनेसे बँधता नहीं हूँ? ऐसे ही तुमलोग भी कर्मोंमें और उनके फलोंमें आसक्ति न रखो? तो सब कर्म करते हुए भी उनसे बँधोगे नहीं। अगर तुमलोग कर्मोंमें और उनके फलोंमें आसक्ति रखोगे? तो तुमको दुःख पाना ही पड़ेगा? बारबार जन्मनामरना ही पड़ेगा। कारण कि कर्मोंका आरम्भ और अन्त होता है तथा फल भी उत्पन्न होकर नष्ट हो जाते हैं? पर कमर्फलकी इच्छाके कारण मनुष्य बँध जाता है। यह कितने आश्चर्यकी बात है कि कर्म और उसका फल तो नहीं रहता? पर (फलेच्छाके कारण) बन्धन रह जाता है ऐसे ही वस्तु नहीं रहती? पर वस्तुका सम्बन्ध,(बन्धन) रह जाता है सम्बन्धी नहीं रहता? पर उसका सम्बन्ध रह जाता है मूर्खताकी बलिहारी है, सम्बन्ध -- पूर्वश्लोकमें आसक्तिका निषेध करके अब भगवान् कर्तृत्वाभिमानका निषेध करते हैं।
।।9.9।। एक परिच्छिन्न जीव को उसके अहंकारमूलक कर्म अपने संस्कार उसके अन्तकरण में अंकित करके कालान्तर में फलोन्मुख होकर उसे उत्पीड़ित करते हैं। सभी अहंकार केन्द्रित कर्म? जो कि सदा स्वार्थ से ही प्रेरित होते हैं? अपने कुरूप पदचिन्हों को मनरूपी समुद्र तट पर अंकित करते हैं? निरहंकार और निस्वार्थ भाव से किये गये कर्म नहीं जैसे? आकाश में विचरण करते हुए पक्षी अपने पदचिन्हों को पीछे नहीं छोड़ते। एक कृतघ्न पुत्र अपने पिता पर ही पदाघात करता है इसकी तुलना कीजिये? खेल में मग्न उस निष्पाप शिशु से जो अपने छोटेछोटे पैरों से अपने पिता को मार रहा हो यद्यपि पदाघात की क्रिया में समानता होने पर भी दोनों के अन्तर को समझने के लिए हमें किसी दार्शनिक की सूक्ष्म दृष्टि की आवश्यकता नहीं होती। जहाँ कहीं और जब कभी अहंकार और स्वार्थ से प्रेरित होकर कर्म किये जाते हैं? वे निश्चय ही दुखदायक वासनाओं को जन्म देते हैं।प्रकृति को चेतनता प्रदान करने और भूत समुदाय की पुनपुन रचना करने में परम पुरुष को न कोई राग है और न कोई द्वेष। इस सृष्टि चक्र के चलते रहने मात्र से वह सनातन परम पुरुष कभी प्रभावित नहीं होता। वे कर्म मुझे बांधते नहीं। कारण यह है कि वे कर्म न अहंकार मूलक हैं और न स्वार्थ से प्रेरित।चलचित्रगृह के श्वेत परदे पर दिखाया जाने वाला चलचित्र (सिनेमा) कितना ही दुखान्त और हत्यापूर्ण क्यों न हो? उसकी कथा कितनी ही अश्रुपूर्ण और उदासी भरी क्यों न हो? कितने ही आंधी और वर्षा के दृश्य उसमें क्यों न दिखाये गये हों सिनेमा की समाप्ति पर वह श्वेतपट न रक्तरंजित होता है और न अश्रुओं से भीगा ही होता है? और न तूफानों से वह क्षतिग्रस्त ही होता है। तथापि हम जानते हैं कि उस स्थिर अपरिवर्तित पट के बिना? छाया और प्रकाश के माध्यम से चित्रपट की कथा प्रदर्शित नहीं की जा सकती थी। उसी प्रकार? नित्य शुद्ध अनन्त आत्मा वह चिरस्थायी रंगमंच हैं? जिस पर दुखपूर्ण जीवन का नाटक अनेकत्व की भाषा में असंख्य जीवों के द्वारा निरन्तर अभिनीत होता रहता है? जो अपनी पूर्वाजित वासनाओं से विवश हुए निर्धारित भूमिकाओं को करते रहते हैं।रेल के पटरी से उतरने के कारण होने वाली भयंकर दुर्घटना के लिए इंजिन की वाष्प को दंडित नहीं किया जाता? और न ही गन्तव्य तक अपने समय पर सुरक्षित पहुँचने पर उसका अभिनन्दन ही किया जाता है। यह सत्य है कि उस वाष्प के बिना दुर्घटना नहीं हो सकती थी और न ही गन्तव्य की प्राप्ति क्योंकि उसके बिना इंजिन केवल निष्क्रिय? भारी लोहा ही होता है। रचनात्मक या विध्वंसात्मक कार्य करने की शक्ति इंजिन को वाष्प से ही प्राप्त होती है। इन सब घटनाओं में? उस वाष्प को इंजिन चलाने के प्रति न राग है और न द्वेष? इसलिए इन घटनाओं का उत्तरदायित्व उस पर थोप कर उसे बन्धन में नहीं डाला जाता। कर्म का प्रेरक उद्देश्य ही कर्म के फल्ा को निश्चित करता है।सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत आत्मा है। वह मन को शक्ति प्रदान करता है। प्रत्येक मन वासनाओं का संचय मात्र है। शुभ वासनाओं से संस्कारित मन आनन्द और सामञ्जस्य का गीत गाता है? जबकि अशुभ वासनाएं मन को दुख से कराहने को बाध्य करती हैं। ग्रामोफोन की सुई रिकार्ड से बज रहे संगीत के लिए उत्तरदायी नहीं होती। जैसा रिकार्ड? वैसा संगीत। इसी प्रकार? आत्मा सनातन है? जिसे इसकी चिन्ता नहीं होती है कि किस प्रकार का जगत् उत्पन्न हुआ है। जगत् परिवर्तन के प्रति उसे किसी प्रकार की व्याकुलता नहीं होती। जगत् में जो कुछ हो रहा हो चाहे हत्या हो या प्राणोत्सर्ग सूर्यप्रकाश उसे प्रकाशित करता है। सूर्य का सम्बन्ध न हत्यारे के अप्ाराध से है और न बलिदानी पुरुष के गौरव से ही है। शुद्धचैतन्यस्वरूप आत्मा वासनारूपी प्रकृति को व्यक्त करने की क्षमता प्रदान करता है? फिर वे वासनाएं नरकयातना के लिए हों या गौरव ख्याति के लिए। उन कर्मों में असक्त और उदासीन के समान स्थित आत्मा को वे कर्म नहीं बांधते हैं।अनन्त और सान्त में निश्चित रूप से वह अद्भुत सम्बन्ध कौनसा है ऐसा कहा गया है कि सान्त प्रकृति अनन्त आत्मा के कारण कार्य करती है और फिर भी आत्मा उदासीन रहता है? वह कैसे
9.9 O Dhananjaya (Arjuna), nor do those actions bind Me, remaining (as I do) like one unconcerned with, and unattached to, those actions.
9.9 These acts do not bind Me, O Arjuna, sitting like one indifferent, unattached to those acts.
9.9. O Dhananjaya ! These acts do not bind Me, remaining as if unconcerned and unattached in these actions.
9.9 न not? च and? माम् Me? तानि these? कर्माणि acts? निबध्नन्ति bind? धनञ्जय O Dhananjaya? उदासीनवत् like one indifferent? आसीनम् sitting? असक्तम् unattached? तेषु in those? कर्मसु acts.Commentary These acts Creation and dissolution of the universe. I am the only cause of dissolution of the universe. I am the only cause of Nature and its activities and yet? being indifferent to everythin? I do nothing. Nor do I cause anything to be done.I remain as one neutral or indifferent or unconcerned. I have no attachment for the fruits of those actions. Further I have not go the egoistic feeling of agency I do this. I know that the Self is actionless. Therefore the actions involved in creation and dissolution do not bind Me.As in the case of Isvara so in the case of others also the absence of the egoistic feeling of agency and the absense of attachment to the fruits of action is the cause of freedom (from Dharma and Adharma? virtue and evil) The ignorant man who works with egoism and who expects rewards for his action is bound by his own actions like the silkworm in the cocoon.Just as the neutral referee or umpire in a cricket or football match is not affected by the victory or defeat of the parties? so also the Lord is not affected by the creation and destruction of this world as He remains unconcerned or indifferent and as He is a silent and changeless witness. (Cf.IV.14)
9.9 O Dhananjaya, na ca, nor do; tani, those; karmani, actions-which are the sources of the creation of the multitude of beings uneally; nibadhnanti, bind; mam, Me, who am God. As to that, the Lord states the reason for His not becoming associated with the actions: Asinam, remaining (as I do); udasinavat, like one unconcerned, like some indifferent spectator- for the Self is not subject to any change; and asaktam, unattached; tesu karmasu, to those actions-free from attachment to results, free from the egoism that I do. Hence, even int he case of any other person also, the absence of the idea of agentship and the absence of attachment to results are the causes of not getting bound. Otherwise, like the silkworm, a foolish man becomes bound by acitons. This is the idea. There (in th previous two verses) it involves a contradiction to say, Remaining like one unconcerned, I project forth this multitude of beings. In order to dispel this doubt the Lord says:
9.9 See Comment under 9.10
9.9 But actions like uneal creation do not bind Me. There can be no imputation of cruelty etc., to Me, because the previous actions (Karmas) of individual selves are the causes for the ineality of conditions like that of gods etc. I am untouched by the ineality. I sit, as it were, apart from it as one unconcerned. Accordingly, the author of the Vedanta-sutras says: Not ineality and cruelty, on account of (creation) being dependent, for so scripture declares (Br. Su., 2.1.34), and If it be said that there is no Karma on account of non-distinction, it is replied that it is not proper to say so, because it is beginningless ৷৷. (Ibid., 2.1.35). [The idea is this: Creation has no first beginning. It is an eternal cyclic process of creation and dissolution of the universe. So the differentiation of Karma, Jiva and Isvara even before creation has to be accepted. Only in the creative cycle the differentiation becomes patent, and in the dissolved condition it remains latent.]
“But then, since you do so much activity, how is it that you do not get bound like the jivas?” This verse answers. Activities like creation do not bind me. Bondage arises from attachment to action. Because all my desires are fulfilled spontaneously without having to act, I don’t have attachment to action, nor bondage. I am like an indifferent person who is not affected by the mixture of happiness and distress of quarreling parties (udasinavad).
But then it could be wondered how is it that the Supreme Lord being responsible for so many diverse activities in creation is still not bound by them like the embodied souls. Anticipating such a question Lord Krishna states that He is udasinavad asinam or situated in neutrality, so no actions can bind Him. Attachment to the result of actions is what causes bondage. The Supreme Lord has no such attachments being that He is complete possessing everything with nothing to desire. Therefore the state of neutrality precludes indifference and does not lead to bondage. Desire is incompatible with indifference and vice versa thus by neutrality one is not attached.
Indifferent and neutral is what Lord Krishna is indicating by the word asaktam meaning unattached. The Vedic scriptures declare the Supreme Lord is neither known by speech nor engaged in actions. The Bhagavat Purana states: The elements, the performance of actions, time as well as the variegated attributes of all beings are due to His grace for without His grace nothing would exist. The Supreme Lord causes the creation and dissolution of unlimited universes again and again continuously in regulated cyclic succession without any effort. Understanding this how can He ever be attached to His actions. This is the purport. He never increases by creation or diminishes by dissolution while enacting His pastimes of performing any action. Naturally the Supreme Lord who controls all actions can never be bound any action.
The seemingly complex diversities of creation never implicate the Supreme Lord Krishna nor do they indicate a charge of mercilessness against Him due to His being asaktam or unattached. This is because the differences and all inequalities that exist in the demigods, humans, animals and plants lies in the fact that all jivas or embodied beings which are of a conscious and sentient nature have to account to the reactions of their past good deeds and misdeeds and hence their own actions determine such differences and inequalities. Hence difference in dispensation and inequality in allocation is not to be prescribed from the Supreme Lord due to the fact that he understands such designations as the merits and demerits of a living entities own karma or reactions to previous actions. So He is completely indifferent and totally neutral in all respects. If one were still to object that this conduct is not exemplary due to the lack of distinction between all atmas or souls at time of dissolution, it still is not a legitimate objection because all atmas are immortal and exist eternally and each and every one is accounted for. Also non-distinction at the tim of dissolution is valid because names and forms were absent at the time and all atmas existed before creation and creation is without beginning as confirmed in Brahma Sutras II.I.XXXV beginning na karmavibhagad-iti-chet which clarifies this objection as not being valid because creation is without beginning.
The seemingly complex diversities of creation never implicate the Supreme Lord Krishna nor do they indicate a charge of mercilessness against Him due to His being asaktam or unattached. This is because the differences and all inequalities that exist in the demigods, humans, animals and plants lies in the fact that all jivas or embodied beings which are of a conscious and sentient nature have to account to the reactions of their past good deeds and misdeeds and hence their own actions determine such differences and inequalities. Hence difference in dispensation and inequality in allocation is not to be prescribed from the Supreme Lord due to the fact that he understands such designations as the merits and demerits of a living entities own karma or reactions to previous actions. So He is completely indifferent and totally neutral in all respects. If one were still to object that this conduct is not exemplary due to the lack of distinction between all atmas or souls at time of dissolution, it still is not a legitimate objection because all atmas are immortal and exist eternally and each and every one is accounted for. Also non-distinction at the tim of dissolution is valid because names and forms were absent at the time and all atmas existed before creation and creation is without beginning as confirmed in Brahma Sutras II.I.XXXV beginning na karmavibhagad-iti-chet which clarifies this objection as not being valid because creation is without beginning.
Na cha maam taani karmaani nibadhnanti dhananjaya; Udaaseenavadaaseenam asaktam teshu karmasu.
na—none; cha—as; mām—Me; tāni—those; karmāṇi—actions; nibadhnanti—bind; dhanañjaya—Arjun, conqueror of wealth; udāsīna-vat—as neutral; āsīnam—situated; asaktam—detached; teṣhu—those; karmasu—actions