देशबन्धु भक्त श्रीचित्तरञ्जन दासका जन्म कलकत्ते में सं0 1927 वि0 कार्तिक शुक्ला द्वादशीको हुआ था। इनके पिताका नाम भुवनमोहन दास और माताका नाम निस्तारिणी देवी था। श्रीभुवनमोहन दास ब्रा हो गये थे, इससे उनमें विदेशी आचार-विचार आ गये थे; परंतु वे थे बड़े ही सदाशय, उदार, कर्तव्यनिष्ठ, आडम्बरहीन तथा स्वजनवत्सल पुरुष। इसी प्रकार निस्तारिणी देवी भी अत्यन्त उदारहृदया थीं। वे पतिके ब्राह्मधर्मका अनुसरण नहीं करती थीं घरमें जो हिंदू आत्मीय स्वजनोंके लिये अलग रसोई बनती थी, उसीमें खाती थीं। खान-पान में तथा आचार-विचार में पतिसे मेल न खानेपर भी वे अत्यन्त पतिभक्ता थीं। उन्होंने मरते समय कहा-"जन्म-जन्ममें मुझे भगवान् यही पति और यही 'चित्त' पुत्र दें।"
चित्तरञ्जन बी0 ए0 परीक्षामें उत्तीर्ण होकर सिविल सर्विसकी परीक्षा देने विलायत गये। परंतु उसमें वे अनुत्तीर्ण हो गये। उन दिनों स्व0 दादाभाई नौरोजी विलायत पार्लियामेंटको सदस्यता के लिये खड़े हुए थे। उनके समर्थनमें श्रीचिरञ्जन कई स्थानोंपर बड़ी ओजस्विनी बताएँ दी थी इन जैसे प्रवासी भारतीय छात्रोंकी सहायतासे दादाभाई पार्लियामेंट के सदस्य चुनलिये गये; परंतु कहते हैं कि इसी कारण आई0 सी0 एस्0 की परीक्षामें चित्तरञ्जनको असफल होना पड़ा। चित्तरञ्जनकी इस असफलतासे उनके घरवालोंको-खास करके पिताको बड़ा दुःख हुआ; क्योंकि वे उस समय ऋणग्रस्त थे।
इसके बाद चित्तरञ्जनने बैरिस्टरी पढ़नेके लिये 'ग्रेस-इन्' में प्रवेश किया और उसमें उत्तीर्ण होकर वे भारत लौटे एवं उन्होंने 1893 ई0 में कलकत्ता हाईकोर्ट में प्रवेश किया। प्रसिद्ध अलीपुर बम-केसमें, जिसमें श्रीअरविन्द अभियुक्त थे, श्रीचित्तरञ्जनकी प्रतिभाका विशेष प्रकाश हुआ। श्रीअरविन्द उसमें बेदाग छूट गये। श्रीचित्तरञ्जनकी कीर्ति चारों ओर फैल गयी। प्रसिद्ध राष्ट्रिय नेता श्रीविपिनचन्द्र पाल तथा कलकत्तेकी प्रख्यात दैनिक पत्रिका 'सन्ध्या' के सम्पादक तेजस्वी वृद्ध श्रीब्रह्मबान्धव उपाध्याय आदिके मुकदमोंमें भी श्रीचित्तरञ्जनने बड़ी ख्याति प्राप्त की।
श्रीचित्तरञ्जनका साहित्यिक और राजनीतिक जीवन अत्यन्त गौरवपूर्ण था। उनकी प्रतिभा, तेजस्विता, मननशीलता, विचारशीलता, दृढता, वाग्मिता, त्यागप्रियता आदिका इन दोनों क्षेत्रोंमें बड़ा ही अद्भुत विकास हुआ था। लाखोंरुपयेकी आयपर लात मारकर इन्होंने असहयोग-यज्ञमें सहर्ष आत्माहुति दे दी थी, यह सभी जानते हैं। संसारके अनेकों ख्यातनामा पुरुष, जो अन्यान्य
क्षेत्रोंमें आदर्श माने गये हैं, आर्थिक क्षेत्रमें दुर्बलताके शिकार हो गये हैं। अर्थलोलुपताने बड़े-बड़े लोगोंको मार्गभ्रष्ट कर दिया। परंतु देशबन्धु चित्तरञ्जन इस क्षेत्रमें भी सर्वत्र विजयी रहे। इन्हें अर्थलोभ तो मानो था ही नहीं। इनकी ईमानदारी और उदारता सर्वथा आदर्श हैं। इनके पिता ऋणग्रस्त होकर दिवालिया (Insolvent) हो गये थे। कानूनके अनुसार इस ऋणका चित्तरञ्जनपर कोई दायित्व नहीं था। परंतु वृद्ध पिताके इस ऋणभारको इन्होंने अपने ऊपर ले लिया और रुपये हाथमें आनेपर वर्षो बाद लगभग 68 हजार रुपये पितृ ऋणके इन्होंने चुकाये। इनकी इस क्रियाका जस्टिस फ्लेवर, उस समयके आफिशियल असाइनी मि0 ग्रे महोदय, समस्त कानूनजीवी समुदाय तथा समाजपर बड़ा ही प्रभाव पड़ा था। इसी प्रकार चित्तरञ्जन बड़े दानवीर थे। उनका विशाल हृदय श्रान्त क्लान्त पथिकोंको आश्रय देनेवाले परोपकारपरायण वृक्षकी भाँति दूसरोंके लिये सदा ही प्रस्तुत रहता था। जिस समय वे स्वयं अर्थकष्टमें थे, उस समय भी दोनों-दुखियों और अभावपीड़ितोंके आव थे। उनके पिताने अपने शेष जीवनमें पुरुलियामें जो मकान बनाया था, चित्तरञ्जनकी उदारतासे वह उनकी अविवाहिता बहिन अमला दासगुप्तके परिचालनमें 'अनाथाश्रम' में परिणत हो गया था। इसके लिये उनको मासिक दो हजार रुपये और व्यय करने पड़ते थे। नवद्वीपके नित्यानन्दधाम तथा मातृमन्दिरमें ये सदा सहायता करते रहते। पण्डित कुलदाप्रसन्न मल्लिक भागवतरलने बतलाया था कि 'नित्यानन्द आश्रमके लिये चित्तरञ्जनने दो लाख रुपये दिये थे। इस बातको उनके घरवाले भी नहीं जानते थे।' संस्थाओंमें इन्होंने कितना दान किया, इसका हिसाब बताना सम्भव नहीं है। श्रीचित्तरञ्जनमें एक विशेषता थी। संस्थाओंमें दान करनेवाले लोग आजकल बहुत मिलते हैं, परंतु गुप्त व्यक्तिगत सहायता लोग प्रायः नहीं करते। परंतु चित्तरञ्जनको ऐसी सहायतामें बड़ा रस आता और वे बड़ी उदारताके साथ इस रसकाआस्वादन किया करते थे। एक बहुत बड़ पुरुषने इनसे | एक बार कहा— 'दास बाबू! आप जो असंख्य लोगोंको इतना दान करते हैं, क्या वे सभी दानके पात्र है? आपकी उदारतासे लोग बहुत अनुचित लाभ उठाते हैं और आप उगे जाते हैं।' दास बाबूने हँसकर उत्तर दिया- 'ठीक है, कुछ लोग ऐसा लाभ उठाते होंगे; पर मैं कभी ठगा नहीं जाता। मेरी जगह आप होते तो आप अवश्य उगे जाते. क्योंकि आपकी ऐसी भावना है। मेरा तो एक-एक पैसा भगवानको सेवामें लगता है। फिर यदि मैं पात्रोंके चुनावमें लग जाऊँगा, तो उनके दोष-गुणोंमें ही मेरा मन रम जायगा दानका अवसर ही मुझको कैसे मिलेगा। इनकी उदारताकी कुछ ही बातें लोग जान पाते थे; क्योंकि इनके ऐसे दान प्रचुरमात्रामें होनेपर भी होते थे गुप्त ही। ऐसी सहस्रों घटनाओंमेंसे दो-एक यहाँ देखिये
एक विधवा गरीब स्त्री अपनी कन्याके विवाहमें सहायता प्राप्त करनेके लिये इनके पास आयी। इन्होंने पूछा- आपको कितने रुपये चाहिये?' विधवाने कहा-'कुल सात सौ रुपयेकी आवश्यकता है, उसमें तीन सौ तो मैंने घर घर घूमकर इकट्ठे किये हैं। चित्तरञ्जन बीचमें ही बोल उठे-'अच्छा, वे तीन सौ आप अपने पास रखिये, पीछे भी तो खर्च लगेगा, ये सात सौ रुपये ले जाइये।'
एक सज्जनको किसी कार्यके लिये दो सौ पचास रुपयेकी आवश्यकता थी, वे चित्तरञ्जनके पास आये। इन्होंने पूछा- 'कितने हो गये?' उन्होंने कहा-'अमुक प्रसिद्ध बैरिस्टर महोदयने पचास रुपये दिये हैं।' उसी क्षण ये बोल उठे—'बाकी दो सौ मैं दूंगा, आपको कहीं जाना नहीं पड़ेगा।' जब चेक दिया, तब दो सौ पचास रुपयेका था। उक्त सज्जनने कहा-'दो सौ पचास रुपये क्यों?' इन्होंने कहा- 'ये पचास रुपये जिन नौकर चाकरोंने काम किया है, उनके इनामके लिये हैं।'
डुमराँव-केसमें बहुत बड़ी रकम इन्हें मिली थी, पर सब की सब दानमें दे दी गयी। किसीको रेल-भाड़के लिये, किसीको कर्ज चुकानेके लिये, किसीको कन्याके विवाह के लिये, किसीको पढ़ाई या परीक्षाके लिये, | किसीको बूढ़े माता-पिताके लिये, किसीको रोगीको दवा और सेवा-शुश्रूषाके लिये आवश्यकता होती और सभीकीआवश्यकता चित्तरञ्जनको पूर्ण करनी चाहिये
इनकी सहायताका एक तरीका यह था कि जब ये देखते कि अमुक व्यक्ति अभावमें है पर वह लेगा नहीं, तब उसे किसी कामसे बाहर भेज देते और खर्चके लिये सौ-दो सौ रुपये दे देते; काम होता पंद्रह-बीस रुपयेके खर्चका । वह जब हिसाब देकर रुपये लौटाने आता, तब आप सुनी-अनसुनी करके या कामका बहाना बनाकर और कहीं-कहीं तो गुस्सा दिखाकर उसे लौटा देते।
असहयोग आन्दोलनमें पड़ जानेके बाद इन्हें अर्थकी सुविधा नहीं रही थी वरं आगे चलकर इन्हें अर्थकष्ट हो गया था। परंतु उस समय भी ये जैसे-तैसे सेवा करने से नहीं चूकते थे। मृत्युके कुछ ही दिनों पूर्व इन्होंने अपनी अंगूठी बेचकर एक कन्याकी विधवा माताको उसके विवाहके लिये छः सौ रुपये दिये थे। यहाँतक कि मरनेसे पहले अपने रहनेका घर भी एक वसीयतनामा बनाकर दान कर दिया था। शर्त थी कि मकान जमीन बेचकर पहले ऋण चुकाया जाय और बची हुई रकमसे
1. मन्दिर निर्माण- (मूर्तिकी स्थापना और उसकी दैनिक और सामयिक सेवाकी व्यवस्था), 2. भारत-नारीकी शिक्षा, 3. हिंदू-बालकोंको धार्मिक शिक्षा, 4. मातृमन्दिरकी स्थापना और 5. दरिद्र तथा दुःखी भारतवासियोंकी सहायता अथवा अन्य कोई ऐसा ही कार्य-ये काम किये जायें। श्रीविधानचन्द्र राय, श्रीनिर्मलचन्द्र चन्द्र, श्रीतुलसीचन्द्रगोस्वामी, श्रीसत्यमोहन घोषाल और श्रीनलिनीरञ्जन
सरकार इस वसीयतके ट्रस्टी बनाये गये थे । इस प्रकार ये तन, मन, धन, परिजन, प्रतिष्ठा, घरद्वार - सभी कुछ भगवान्के अर्पण करके सच्चे फकीर बन गये थे।
देशबन्धु चित्तरञ्जनको पितासे ब्राह्मधर्मकी शिक्षा मिली थी। यौवनकालमें ये ईश्वरमें अविश्वास करने लगे थे। इनके 'मालञ्च' और 'माला' नामक काव्यसे इसका स्पष्ट पता लगता है। परंतु धीरे-धीरे इनकी चित्तधाराका प्रवाह बदलता गया। इनके 'अन्तर्यामी' और 'किशोर किशोरी' में शुद्ध भक्तिभावकी परिणति और परिपुष्टि हो गयी। अन्तिम जीवनमें तो ये परम वैष्णव हो गये थे। भगवान् के स्वरूपदर्शनके लिये इनका चित्त कितना तरस रहा था, इसका पता इनके निम्नलिखित पदके अनुवादसे मिलता है। यह देशबन्धुका अन्तिम पद है-
लो उतार अब ज्ञान-गठरिया, सहन नहीं होता यह भार।
सारा ही तन काँप उठा है, छाया चारों दिशि अँधियार ॥
वही सीसपर मोर मुकुट हो, करमें हो मोहन बाँसी l
ऐसी मूरतिके दर्शनको प्राण बड़े हैं अभिलाषी ।।
ललित त्रिभङ्ग खड़े होकर हरि! करो प्रकाश कुंजका द्वार।
आओ, आओ, पारस-मणि! मम वृथा वेद-वेदान्त-विचार ।।
सन् 1924 की ता0 16 जून मङ्गलवारको दार्जिलिङ्गमें इस महान् भक्तने परमधामकी यात्रा की।
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chittaranjan bee0 e0 pareekshaamen utteern hokar sivil sarvisakee pareeksha dene vilaayat gaye. parantu usamen ve anutteern ho gaye. un dinon sva0 daadaabhaaee naurojee vilaayat paarliyaamentako sadasyata ke liye khaड़e hue the. unake samarthanamen shreechiranjan kaee sthaanonpar bada़ee ojasvinee bataaen dee thee in jaise pravaasee bhaarateey chhaatronkee sahaayataase daadaabhaaee paarliyaament ke sadasy chunaliye gaye; parantu kahate hain ki isee kaaran aaee0 see0 es0 kee pareekshaamen chittaranjanako asaphal hona pada़aa. chittaranjanakee is asaphalataase unake gharavaalonko-khaas karake pitaako baड़a duhkh huaa; kyonki ve us samay rinagrast the.
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1. mandir nirmaana- (moortikee sthaapana aur usakee dainik aur saamayik sevaakee vyavasthaa), 2. bhaarata-naareekee shiksha, 3. hindoo-baalakonko dhaarmik shiksha, 4. maatrimandirakee sthaapana aur 5. daridr tatha duhkhee bhaaratavaasiyonkee sahaayata athava any koee aisa hee kaarya-ye kaam kiye jaayen. shreevidhaanachandr raay, shreenirmalachandr chandr, shreetulaseechandragosvaamee, shreesatyamohan ghoshaal aur shreenalineeranjana
sarakaar is vaseeyatake trastee banaaye gaye the . is prakaar ye tan, man, dhan, parijan, pratishtha, gharadvaar - sabhee kuchh bhagavaanke arpan karake sachche phakeer ban gaye the.
deshabandhu chittaranjanako pitaase braahmadharmakee shiksha milee thee. yauvanakaalamen ye eeshvaramen avishvaas karane lage the. inake 'maalancha' aur 'maalaa' naamak kaavyase isaka spasht pata lagata hai. parantu dheere-dheere inakee chittadhaaraaka pravaah badalata gayaa. inake 'antaryaamee' aur 'kishor kishoree' men shuddh bhaktibhaavakee parinati aur paripushti ho gayee. antim jeevanamen to ye param vaishnav ho gaye the. bhagavaan ke svaroopadarshanake liye inaka chitt kitana taras raha tha, isaka pata inake nimnalikhit padake anuvaadase milata hai. yah deshabandhuka antim pad hai-
lo utaar ab jnaana-gathariya, sahan naheen hota yah bhaara.
saara hee tan kaanp utha hai, chhaaya chaaron dishi andhiyaar ..
vahee seesapar mor mukut ho, karamen ho mohan baansee l
aisee mooratike darshanako praan bada़e hain abhilaashee ..
lalit tribhang khada़e hokar hari! karo prakaash kunjaka dvaara.
aao, aao, paarasa-mani! mam vritha veda-vedaanta-vichaar ..
san 1924 kee taa0 16 joon mangalavaarako daarjilingamen is mahaan bhaktane paramadhaamakee yaatra kee.