ते निरभय तिहुँ काल, घर में बन गिरि गहन में।
छाँड़ि कपट जंजाल, गही सरन जिन राम की।
बंगालके सुप्रसिद्ध राजा कीर्तिचन्द्रके राज्यमें गङ्गाजीके तटपर नारायणदासजीका घर था। वे बड़े ही शुद्धचित्त तथा सरल स्वभावके मनुष्य थे। वे धनवान् थे और विद्वान थे पर उनकी सादगी और सरलता ऐसी थी कि उन्हें कोई वैभवसम्पन्न समझ ही नहीं सकता था। धनमें उनकी आसक्ति थी भी नहीं। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराममें ही उनका चित्त सदा लगा रहता था।
नारायणदासजीकी पत्नी मालती भी भक्तिमती, सुशीला एवं पतिव्रता थीं। यद्यपि पत्नीके मनमें कोई सन्तान न होनेका दुःख था फिर भी नारायणदासजीको इस अभावकी तनिक भी परवा नहीं थी अवस्था ढल जानेपर संसार त्यागकर श्रीअयोध्याजीमें रहते हुए जीवनके शेष दिन भगवान्के भजनमें बिता देनेका उन्होंने निश्चय किया। पत्नीका साथ चलनेका दृढ़ आग्रह देखकर उसे भी उन्होंने साथ ले लिया। चार बैलोंपर आवश्यक सामान लादकर घरसे वे चल पड़े। साथमें कोई भी सेवक ले चलना उन्हें पसंद नहीं आया, यद्यपि कई नौकर साथ चलनेको उत्सुक थे।
पति पत्नी श्रीरामनामका कीर्तन करते चलते थे। मार्गमें धर्मशालाओंमें या किसी ग्राममें निवास करते थे। इस प्रकार वे चित्रकूट पहुँच गये। चित्रकूटकी उस पुण्य भूमिको देखकर नारायणदासका हृदय प्रेम-विह्वल हो गया। वे वहाँ कुछ दिनके लिये ठहर गये। सत्सङ्ग, साधु-सेवा, भजन-कीर्तन, दान-पुण्य करते हुए कुछ दिन चित्रकूट रहनेके पश्चात् वे अयोध्याकी और चले।
'श्रीराम श्रीमिथिलेशनन्दिनी तथा कुमार लक्ष्मणजीके साथ बनके बीहड़ मार्गसे ही अयोध्यासे चित्रकूट आये थे। हमें भी वनके कष्टोंका अनुभव करते हुए उसी मार्गसे अयोध्या जाना चाहिये।' यह सोचकर नारायणदासने सीधा मार्ग छोड़ दिया और वे वन-पर्वतोंके दुर्गम मार्गसेचलने लगे। कौन-सा मार्ग सीधा अयोध्या जाता है और कौन-सा नहीं, यह वे नहीं जानते थे। जाननेका साधन भी नहीं था भगवानका नाम-कीर्तन करते कंकड़-पत्थर और काँटोंसे भरी ऊबड़-खाबड़ पगडंडीसे भयङ्कर पशुओंसे पूर्ण जंगलके बीचसे वे चले जा रहे थे। वृक्षोंके नीचे किसी झरनेके किनारे विश्राम करते और बैल वहीं घास चर लेते, इस प्रकार यात्रा चल रही थी।
एक बार वे लुटेरे भीलोंके गाँवके पास जा पहुँचे। भीलोंने समझ लिया कि इनके पास धन है। उन्होंने इनके पास आकर पूछा- 'तुमलोग इस बीहड़ वनमें कैसे आ गये?' नारायणदासने सरलतापूर्वक बता दिया कि 'मैं अयोध्या जा रहा हूँ।' भीलोंने कहा-'तुमलोग तो मार्ग भूलकर इस वनमें आ गये। चलो, अच्छा हुआ कि हमलोगोंसे भेंट हो गयी। हमलोग भी अयोध्या ही जा रहे हैं।'
नारायणदासने समझा कि हमें ये मार्गदर्शक मिल गये। वे उन दुष्टोंपर विश्वास करके निश्चिन्त हो गये। वे लोग इनको बातों में भुलाकर दुर्गम वनमें ले गये। घोर बनमें पहुँचकर भीलोंने नारायणदासको पकड़ लिया और इतना पीटा कि वे मूर्छित हो गये। उनके हाथ-पैर बाँधकर एक खाईमें फेंक दिया और ऊपरसे पत्थर पटक दिये। उनको मरा समझकर वे दुष्ट उनकी स्त्रीके पास आये।
मालती अपने पूज्य पतिकी दुर्दशा देखकर मूर्छित हो गयी थी। वह पृथ्वीपर पड़ी थी। वे नरराक्षस उसे घसीटने लगे और गालियाँ देने लगे। थोड़ी देर में मालतीको होश आया। उसने देखा कि इन दुष्टोंकी नीयत बहुत बुरी है भय और क्रोधसे यह काँपने लगी। कोई और उपाय न देखकर उस पतिव्रताने नेत्र बंद करके अशरणशरण प्रभुको पुकारना प्रारम्भ किया-'प्रभो! आप शरणागत-रक्षक नहीं हैं क्या? मैंने तो सुना है कि सेवकोंको रक्षाके लिये ही आप धनुष-बाण धारण करते हैं। क्या सचमुच आप शरणमें आये अनाथको शरण देतेहैं? हमारे तो आप ही स्वामी हैं, आप ही रक्षक हैं।
हमारी रक्षा क्यों नहीं करते, दयामय?"
मालती नेत्र बंद किये कातर कण्ठसे प्रार्थना कर रही थी। भीलोंको लगा कि कहींसे घोड़ेकी टापोंका शब्द आ रहा है। वे कुछ सोच सकें, इससे पहले ही सफेद घोड़ेपर सवार एक नौजावन आता दिखायी पड़ा। मस्तकपर सोनेका मुकुट, कानोंमें रत्नकुण्डल, सर्वाङ्ग आभरणभूषित, कमरमें तलवार, हाथमें विशाल धनुष, पीठपर तरकस कसा हुआ। उस श्यामवर्ण कमललोचन युवकको देखकर डाकू डर गये। उन्हें वह यमराजसे भी भयङ्कर दीख पड़ा। प्राण लेकर वे चारों ओर भागे। किसीका भागते समय गिरकर सिर फूटा, किसीका पैर टूटा किसीके दाँत टूटे। सबको चोट लगी। सब भाग गये वहाँसे उस युवकने पास आकर घोड़ेसे उतरकर कहा "माता! तुम कौन हो? इस वनमें अकेली कैसे आर्यों? तुम्हारे साथ क्या कोई पुरुष नहीं है? ये कौन तुम्हें घेरे हुए थे?'
प्राणोंमें अमृत घोलते हुए ये शब्द कानमें पड़े। मालतीने नेत्र खोलकर देखा और एकटक उस रूपराशिको देखती रह गयी। युवकके फिर पूछनेपर उसने किसी प्रकार बड़े कष्टसे अपनी कहानी सुनाकर प्रार्थना करते हुए कहा- 'मैं नहीं जानती कि तुम कौन हो। कोई भी हो, मेरी दुर्दशा देखकर ही दगामय रघुवीरने तुम्हें भेजा है। मैं नहीं जानती कि मेरे पतिदेवको ये दुष्ट कहाँ फेंक आये। वे जीवित नहीं होंगे। तुम मुझ दीना अबलापर दया करो। मेरे धर्मके भाई बनो। एक चिता बना दो। मैं उसमें जलकर अपने अन्तरको ज्वालाको शान्त करूंगी।'
युवकने कहा-'देवि! आप चिन्ता न करें। आपके पति जीवित हैं। मैंने आते समय यह शब्द सुना है-'हाय मालती! हमलोग अयोध्या जाकर श्रीरामके दर्शन न कर सके।' अवश्य ये शब्द तुम्हारे पतिके हो होंगे। तुम मेरे साथ चलो वह स्थान यहाँसे दूर नहीं है।'मालतीमें अब एक पद चलनेकी भी शक्ति नहीं थी। भवभयहारी भगवान्ने अपना अभय हस्त बढ़ाया और 'माता' कहकर मालतीको आश्वासन दिया। वह उन सर्वेश्वरका हाथ पकड़कर चलने लगी।
डाकुओंने नारायणदासको खाईमें पटक दिया था उनके हाथ-पैर-लताओंसे बँधे थे। उनका अङ्ग अङ्ग मार पड़नेसे कुचल गया था। बड़े-बड़े कई पत्थर उनकी छातीपर ऊपरसे गिरे थे। उन्होंने मन-ही-मन कहा- 'मेरे प्रभु! तुम्हारे प्रत्येक विधानमें ही जीवका मङ्गल है। मुझे तुम्हारी प्रत्येक व्यवस्थामें आनन्द है। मैं तो एकमात्र तुम्हारी शरण हूँ।' इतना सोचते-सोचते वे मूर्छित हो गये थे मालतीने वहाँ आकर पतिकी यह दशा देखी तो धड़ामसे भूमिपर गिर पड़ी। भगवान्ने उसे आश्वासन दिया। प्रभुने खाईमें उतरकर नारायणदासको छातीपरसे शिलाएं हटा दो, उनके सारे बन्धन काट डाले और उन्हें ऊपर उठा लाये। श्रीराधवेन्द्रके हाथोंका अमृतखावी स्पर्श पाकर नारायणदासके शरीरमें चेतना लौट आयी। उनके शरीर, मन, प्राण-सबकी व्यथा तत्काल दूर हो गयी।
नारायणदासने नेत्र खोलनेपर अपने सामने उन धनुषधारीको देखा। कई क्षण वे अपलक देखते रहे। हृदयने कहा- 'इस भीषण विपत्तिसे परित्राण भला, श्रीजानकीनाथको छोड़कर और कौन दे सकता है। ये पीताम्बरधारी, कौस्तुभमणि गलेमें पहननेवाले मेरे श्रीरघुनाथ हो तो हैं।' बस, वे प्रभुके चरणोंमें लोट गये। उनके नेत्रोंकी धाराने प्रभुके पादपद्म धो दिये।
भगवान् अपने ऐसे भक्तोंसे क्या छिपे रह सकते हैं?
प्रभुने अपने ज्योतिर्मय चिन्मय स्वरूपका दर्शन देकर
दम्पतिको कृतार्थ किया, उन्हें भक्तिका वरदान दिया। भगवान्को आज्ञामे नारायणदास पत्नी के साथ वहाँसे चलकर कुछ दिनोंमें अयोध्या पहुँच गये। श्रीसरयूजीके तटपर उन्होंने अपनी पर्णकुटी बना ली। वहीं साधु-सेवा और भगवान्का भजन करते हुए उन्होंने शेष जीवन व्यतीत किया।
te nirabhay tihun kaal, ghar men ban giri gahan men.
chhaanda़i kapat janjaal, gahee saran jin raam kee.
bangaalake suprasiddh raaja keertichandrake raajyamen gangaajeeke tatapar naaraayanadaasajeeka ghar thaa. ve bada़e hee shuddhachitt tatha saral svabhaavake manushy the. ve dhanavaan the aur vidvaan the par unakee saadagee aur saralata aisee thee ki unhen koee vaibhavasampann samajh hee naheen sakata thaa. dhanamen unakee aasakti thee bhee naheen. maryaadaapurushottam shreeraamamen hee unaka chitt sada laga rahata thaa.
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hamaaree raksha kyon naheen karate, dayaamaya?"
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bhagavaan apane aise bhaktonse kya chhipe rah sakate hain?
prabhune apane jyotirmay chinmay svaroopaka darshan dekara
dampatiko kritaarth kiya, unhen bhaktika varadaan diyaa. bhagavaanko aajnaame naaraayanadaas patnee ke saath vahaanse chalakar kuchh dinonmen ayodhya pahunch gaye. shreesarayoojeeke tatapar unhonne apanee parnakutee bana lee. vaheen saadhu-seva aur bhagavaanka bhajan karate hue unhonne shesh jeevan vyateet kiyaa.