श्रीगौराङ्गदेवके अनन्य भक्तोंमें श्रीनिवास आचार्य भी एक महाभक्त हो गये हैं। नवद्वीपसे सात-आठ मील दूर चाकन्दी (जिला बर्दवान) ग्राममें इनके पिता श्रीगङ्गाधर भट्टाचार्य साहित्य एवं व्याकरणके असाधारण पण्डित समझे जाते थे। ये बड़े उदार थे। श्रीचैतन्यदेवकी गुणगरिमा सुनकर इनकी प्रीति उनके चरणोंमें दिन-दिन बढ़ती ही जाती थी। एक दिन जब इन्हें यह संवाद मिला कि जबसे निमाई पण्डित गयासे लौटकर आये हैं, तबसे अपना सारा पाण्डित्य भुलाकर भगवत्प्रेममें मतवाले होगये हैं एवं अपने श्रीहरिकीर्तनके द्वारा नवद्वीपवासियोंको भी मतवाला बना रहे हैं, ये रुक न सके और गौरदर्शनके लिये चल पड़े। अपनी वृद्धा माता और नवयौवना पत्नीको न भगवान्के भरोसे छोड़ निमाई पण्डित श्रीकेशवभारतीसे संन्यास दीक्षा लेकर संसार त्यागी और भगवदनुरागी न बन रहे हैं - यह दृश्य देखकर गङ्गाधर पण्डित भी अपने आपको सँभाल न सके। वे फूट-फूटकर रोने लगे और रोते-रोते अचेत हो गये। तबसे गाँववाले इनकी चैतन्य भक्ति देख इन्हें चैतन्यदासके नामसे पुकारने लगे।चैतन्यदासका विवाह हो जानेके उपरान्त भी उन्हें बहुत दिनोंतक कोई सन्तान नहीं हुई। कहते हैं पश्चात् श्रीचैतन्यके आशीर्वादसे हो वैशाखी पूर्णिमाको शुभ मुहूर्तमें परमभागवत श्रीनिवासका जन्म हुआ। इनकी माता श्रीलक्ष्मीप्रिया अत्यन्त धर्मपरायणा थी। वे स्तन पानके समय इनके कानोंमें भगवान् एवं भक्तोंके गुण सुनाती जातीं। फलतः पहले-पहले इन्होंने अपनी तोतली बोलीसे भगवान् एवं भक्तोंका नामोच्चारण ही प्रारम्भ किया। इनकी बुद्धि अत्यन्त कुशाग्र थी। योग्य गुरुके सान्निध्य में अल्पकालमें हो ये साहित्य, व्याकरण, न्याय, काव्य आदिके अच्छे पण्डित हो गये।
ज्यों-ज्यों श्रीनिवास युवा होते गये, उनके हृदय में भगवदनुराग एवं विषय विराग दृढ़ होता गया। पिताकी मृत्युके पश्चात् ये अपने नानाको सम्पत्तिके उत्तराधिकारी बन जाजिग्राम रहने लगे। अब वे एक बार श्रीचैतन्यको पावन मूर्तिका दर्शन करनेके लिये तरस उठे। कठवा निवासी श्रीनरहरि सरकारसे सलाह करके इन्होंने पुरोके लिये प्रस्थान किया। किंतु मार्गमें हो इन्हें पता चला कि गौरचन्द्रने तो गोलोकके लिये प्रस्थान कर दिया। यह दुःसंवाद पाते ही वे पछाड़ खाकर जमीनपर गिर पड़े। अवतक चैतन्यके इन्होंने एक बार भी दर्शन नहीं किये थे; पर अब तो इन्हें ऐसा प्रतीत होने लगा कि चतन्य- चरणोंसे वंचित होकर जीवन धारण करना हो व्यर्थ है। कुछ देर पश्चात् इन्हें नींद आ गयी। इसी समय श्रीचैतन्यदेवने दर्शन देकर इन्हें पुरी जाकर श्रीगदाधरजीसे भागवत पढ़ने को कहा।
पुरी पहुँचकर ये श्रीगदाधर पण्डितके आश्रम में पहुँचे तो देखा वे भी श्रीगौरहरिके वियोग में अचेत पड़े हैं। ये उनके चरणोंमें लोट-लोटकर रोते-रोते श्रीचैतन्यका नाम सुनाने लगे तब कहीं उनकी मूर्च्छा टूटी। महाप्रभुने उनको भी वही आज्ञा दी थी, परंतु उनके पास जो भागवतकी पुस्तक थी, उसके तो आँसुओंसे भीगकर कुछ अक्षर मिट गये थे। अतः उन्होंने इन्हें गौड़ देश जाकर नयी पुस्तक लाने को कहा। किंतु इनके लौटने के पूर्व ही श्रीगदाधर पण्डित भी इस लोकमें नहीं रहे। थोड़े ही दिनोंके पश्चात् इन्हें समाचार मिला कि श्रीगौरके परम अन्तरङ्ग श्रीनित्यानन्द श्री अद्वैताचार्य भी नश्वर शरीरकोत्यागकर गोलोकमें जा विराजे। सचमुच महापुरुषोंका वियोग अत्यन्त दुःखदायी होता है। ये विक्षिप्त-से श्रीगौराङ्गकी जन्मभूमिका दर्शन करने निकले तथा वहाँ उनकी धर्मपत्नी श्रीविष्णुप्रियाजीसे मिले।
यद्यपि विष्णुप्रियाजी उस समय कठोर तपमें रत थीं एवं किसीसे भी नहीं मिलती थीं, फिर भी इनसे वे अत्यन्त प्रेमसे मिलीं एवं इन्हें आशीर्वाद दिया। श्री अभिराम गोस्वामीने इन्हें वृन्दावन पहुँच श्रीरूप, सनातन एवं रघुनाथदासके दर्शन करने तथा गोपाल भट्ट दीक्षा लेनेको कहा। किंतु वृन्दावन पहुँचते-पहुँचते इन्हें खबर मिली कि श्रीसनातन श्ररूप एवं श्रीरघुनाथ तीनों ही परलोक सिधार गये। इसी प्रकार लगातार एकके बाद एक चोट खाते खाते इनका हृदय बिलकुल जर्जर हो गया। इनकी बुद्धि काम नहीं देती थी जैसे-तैसे वृन्दावन पहुँचे। वहाँ जीव गोस्वामी इन्हें अपने आश्रममें ले गये एवं इन्हें श्रीचैतन्यके हाथका लिखा एक पत्र थमाया। श्रीचैतन्यके कर कमलाङ्कित अक्षर देख ये भावमग्र हो जमीनपर गिर पड़े।
शुभ मुहूर्तमें गोपाल भट्टके द्वारा इनका दीक्षा-संस्कार हुआ। अनन्तर जीव गोस्वामीसे इन्होंने वैष्णव ग्रन्थोंका अध्ययन किया। पश्चात् सबने यह तय किया कि श्रीरूप सनातनविरचित तथा अन्यान्य समस्त भक्ति ग्रन्थोंसे सम्पन्न करके इन्हें श्रीनरोत्तम एवं श्यामानन्दके साथ गौड़ भेजा जाय। सभीने नेत्रोंमें आँसू भरकर, एक में एक मजबूत से संदूक में इन सभी प्रत्योंके साथ इन्हें विदा किया। किंतु रास्तेमें विष्णुपुर (बाँकुड़ा) - के पास डाकुओंने इसे धनकी गाड़ी समझकर लूट लिया। पुस्तकोंके छिन जानेसे ये अत्यन्त विक्षिप्त हो गये। इन्होंने सभी को तो वापस विदा कर दिया एवं स्वयं यह निश्चय कर लिया कि जबतक पुस्तकें नहीं मिलेंगी, घर नहीं जाऊँगा। ये विष्णुपुरको गलियोंमें ही घूम-घूमकर दिन बिताते। जब अत्यन्त भूख लगती, तब किसी प्रकार रूखे-सूखे अन्नसे अपना पेट भर लेते। ये कभी कहीं किसी वृक्षके नीचे पड़े रहते एवं कभी किसी किंतु भगवान्को लीलासे ही एक दिन कृष्ण नामक ब्राह्मण, जो इन्हें कुछ पहचान गये थे, राजा हम्मीरको भागवतको कथामें ले गये। यह राजा हम्मीरही उन डाकुओंका सरदार था एवं इसीने इनकी पुस्तकें चुरायी थीं। भागवतवक्ता कोई बड़े विद्वान् नहीं थे-वे तो मनमाना अर्थ किया करते थे। इन्हें यह अच्छा प्रतीत नहीं हुआ एवं उसे शास्त्रार्थमें परास्तकर ये स्वयं भागवत-कथा कहने लगे। राजा हम्मीरको इनकी वाणीने खींच लिया। वह अपने कियेपर अत्यन्त पश्चात्ताप करने लगा एवं उसने अपना दोष इनके सम्मुख स्वीकारकर इन्हें वे शास्त्र-ग्रन्थ लौटा दिये। वह पश्चात् राजपाट छोड़ इनका शिष्य हो गया।
वहाँसे ये जाजिग्राम पहुँचे एवं वहीं रहकर अध्ययन तथा हरिनाम सङ्कीर्तनमें समय व्यतीत करनेलगे। दीर्घकालके बाद अपने पुत्रको आया जान इनकी माता एवं सभी ग्रामवासी अत्यन्त आह्लादित हुए। इनके कारण गौड़के गाँव-गाँव एवं घर-घरमें भगवन्नामका घोष सुनायी देने लगा । अन्तमें ये दूसरी बार वृन्दावन गये एवं वहीं श्रीधाममें ही रम गये। श्रीवृन्दावनविहारीकी अनुकम्पासे उस पवित्र क्षेत्रमें ही हरिनाम लेते-लेते इनकी अन्तिम घड़ी व्यतीत हुई। इनके पिता चैतन्यदासको श्रीचैतन्यने यह आशीर्वाद दिया था कि 'तुम्हारे जो पुत्र होगा, उसके अंदर मेरा प्रकाश रहेगा।' चैतन्यका वह चैतन्यमय प्रकाश असंख्य अन्धकारपूर्ण हृदयोंको प्रकाशित करता हुआ अन्तमें महाप्रकाशमें जा मिला।
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