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शरणागतवत्सल राजा शिबि की मार्मिक कथा
शरणागतवत्सल राजा शिबि की अधबुत कहानी - Full Story of शरणागतवत्सल राजा शिबि (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [शरणागतवत्सल राजा शिबि]- भक्तमाल


न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं नापुनर्भवम्।
कामये दुःखतप्तानां प्राणिनामार्तिनाशनम् ।।

"मुझे राज्य नहीं चाहिये, स्वर्ग नहीं चाहिये और मोक्ष भी मैं नहीं चाहता। मैं तो नाना प्रकारके दुःखोंसे पीड़ित प्राणियोंकी आतिं- पीड़ाका नाश चाहता हूँ।' उशीनरके पुत्र शरणागत वत्सल महाराज शिवि यज्ञ कर रहे थे। शिविको दयालुता तथा भगवद्भक्तिको ख्याति पृथ्वीसे स्वर्गतक फैली थी। देवराज इन्द्रने राजाकी परीक्षा करनेका निश्चय किया। इन्द्रने बाज पक्षीका रूप धारण किया और अग्निदेव कबूतर बने। बाजके भयसे डरता, काँपता, घबराया कबूतर उड़ता आया और राजा शिविकी गोद में बैठकर उनके वस्त्रोंमें छिप गया। उसी समय वहाँ एक बड़ा भारी बाज भी आया। वह मनुष्यकी भाषामें राजासे कहने लगा- 'राजन्! आप धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ हैं, परन्तु आज यह धर्मविरुद्ध आचरण क्यों कर रहे हैं? आपने कृतप्रको धनसे, झूठको सत्यसे, निर्दयको क्षमासे तथा दुर्जनको अपनी साधुतासे ही सदा जाता है। आप तो अपनी बुराई करनेवालेका भी उपकार ही करते हैं। जो आपका अहित सोचते हैं, उनका भी आप भला ही करना चाहते हैं; पापियोंपर भी आप दया करते हैं। जो आपमें दोष ढूँढ़ते रहते हैं, उनके भी आप गुण ही देखते हैं। मैं भूखसे व्याकुल हूँ और भाग्यसे मुझे यह कबूतर आहारके रूपमें मिला है। अब आप मुझसे मेरा आहार छीनकर अधर्म क्यों कर रहे हैं?"

कबूतरने राजासे बड़ी कातरतासे कहा-'महाराज !! मैं इस बाजके भयसे प्राणरक्षाके लिये आपकी शरण आया हूँ। आप मेरी रक्षा करें।

राजाने बाजसे कहा- 'पक्षी । जो मनुष्य समर्थ रहते भी शरणागतकी रक्षा नहीं करते या लोभ, द्वेष अथवा भयसे उसे त्याग देते हैं, उनको ब्रह्महत्याके समान पाप लगता है, सर्वत्र उनकी निन्दा होती है। मैं मरूंगा इस प्रकार सभीको मृत्युका भय तथा दुःख होता है। अपनेसे ही दूसरेके दुःखका अनुमान करके उसकी रक्षा करनीचाहिये। जैसे तुम्हें अपना जीवन प्यारा है, जैसे तुम भूख नहीं मरना चाहते, उसी प्रकार दूसरेको जीवनरक्षा भी तुम्हें करनी चाहिये। मैं शरण आये हुए भयभीत कबूतरको तुम्हें नहीं दे सकता। तुम्हारा काम और किसी प्रकार हो सके तो बतलाओ।'

बाजने कहा- 'वह धर्म धर्म नहीं है, जो दूसरेके धर्ममें बाधा दे। भोजनसे ही जीव उत्पन्न होते हैं, बढ़ते हैं तथा जीवित रहते हैं। बिना भोजन कोई जीवित नहीं रह सकता। मैं भूखसे मर जाऊँ तो मेरे बाल-बच्चे भी मर जायेंगे। एक कबूतरको बचानेमें अनेकों प्राण जायेंगे। आप परस्पर विरोधी इन धर्मो में सोच-समझकर निर्णय करें कि एककी प्राण-रक्षा ठीक है या कईकी।'

राजाने कहा-'बाज! भयभीत जोवोंकी रक्षा ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। दयासे द्रवित होकर जो दूसरोंको अभयदान देता है, वह मरनेपर संसारके महान् भयसे छूट जाता है। यश और स्वर्गके लिये तो बहुत लोग दान-पुण्य करते हैं; किन्तु सब जीवोंकी निःस्वार्थ भलाई करनेवाले पुरुष थोड़े ही हैं। यज्ञोंका फल चाहे जितना बड़ा हो, अन्तमें क्षय हो। जाता है, पर प्राणीको अभयदान देनेका फल कभी क्षय नहीं होता। मैं सारा राज्य तथा अपना शरीर भी तुम्हें दे सकता हूँ, पर इस भयभीत दीन कबूतरको नहीं दे सकता। तुम तो केवल आहारके लिये ही उद्योग कर रहे हो, अतः कोई भी दूसरा आहार माँग लो, मैं तुम्हें दूंगा।'

बाजने कहा- 'राजन् ! मैं मांसभक्षी प्राणी हूँ। मांस ही मेरा आहार है। कबूतरके बदले आप और किसी प्राणीको मारें या मरने दें, इससे कबूतरको मरने देनेमें मुझे तो कोई अन्तर नहीं जान पड़ता। हाँ, आप चाहें तो अपने शरीरसे इस कबूतरके बराबर मांस तौलकर मुझे दे सकते हैं मुझे अधिक नहीं चाहिये।'

राजाको बड़ा हर्ष हुआ। उन्होंने कहा-'बाज! तुमने मुझपर बड़ी कृपा की। यदि यह शरीर प्राणियोंके उपकार में न आये तो प्रतिदिनका इसका पालन-पोषण व्यर्थ ही है। इस नाशवान् अनित्य शरीरसे नित्य, अविनाशी धर्म किया जाय, यही तो शरीरकी सफलता है।'एक तराजू मँगाया गया। एक पलड़े में कबूतरको रखकर दूसरेमें राजा शिवि अपने हाथों अपने शरीरका मांस काट-काटकर रखने लगे। कबूतरके प्राण बचे और बाजको भी भूखका कष्ट न हो, इसलिये वे राजा बिना पीड़ा या खेद प्रकट किये अपना मांस काटकर पलड़ेपर रखते जाते थे; किंतु कबूतरका वजन बढ़ता ही जाता था। अन्तमें राजा स्वयं तराजूपर चढ़ गये। उनके ऐसा करते ही आकाशमें बाजे बजने लगे। ऊपरसे फूलोंकी वर्षा होने लगी।

'ये मनुष्यभाषा बोलनेवाले बाज और कबूतर कौन हैं? ये बाजे क्यों बजते हैं? राजा शिबि यह सोच ही रहे थे कि उनके सामने अग्निदेव और इन्द्र अपने वास्तविक रूपमें प्रकट हो गये। देवराज इन्द्रने कहा- 'राजन्!| तुमने बड़ोंसे कभी ईर्ष्या नहीं की, छोटोंका कभी अपमान नहीं किया और बराबरवालोंसे कभी स्पर्धा नहीं की; अत: तुम संसारमें सर्वश्रेष्ठ हो। जो मनुष्य अपने प्राणोंको त्यागकर भी दूसरोंकी प्राण-रक्षा करता है, वह परमधामको जाता है। पशु भी अपना पेट तो भर ही लेते हैं; पर प्रशंसनीय वे पुरुष हैं, जो परोपकारके लिये जीते हैं। संसारमें तुम्हारे समान अपने सुखकी इच्छासे रहित केवल परोपकार-परायण साधु जगत्की रक्षाके लिये ही जन्म लेते हैं। तुम दिव्यरूप प्राप्त करो और चिरकालतक पृथ्वीका सुख भोगो। अन्तमें तुम्हें परमपद प्राप्त होगा।' यों कहकर इन्द्र और अग्नि स्वर्ग चले गये।

राजा शिबि भगवान्‌में मन लगाकर चिरकालतक | पृथ्वीका शासन करते रहे और अन्तमें भगवद्धाम पधारे।



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