जिसका मन परमात्मामें रहता है, परमात्मा उसकी सँभाल रखते हैं।
मनुष्य जितनी ही संकीर्णतासे अपने सम्बन्धमें सोचता है उतना ही अधिक वह उदास होता है।
भक्तिका भेद जो जानता है, उसके द्वारपर अष्ट महासिद्धियाँ लोटा करती हैं, 'जाओ' कहनेसे भी नहीं जातीं।
कीर्तनसे स्वधर्मकी वृद्धि होती है, कीर्तनसे स्वधर्मकी प्राप्ति होती है, कीर्तनके सामने मुक्ति भी लज्जित होकर भाग जाती है।
दो ही अक्षरका काम । उचारो श्रीराम-नाम।
इन तीन मनुष्योंको बुद्धिमान् जानना - जिसने संसारका त्याग कर दिया है, जो मौतसे पहले ही सब तैयारियाँ किये बैठा है और जिसने पहलेहीसे ईश्वरकी प्रसन्नता प्राप्त कर ली है।
गृहस्थाश्रममें रहकर भी जिसका चित्त प्रभुके रंगमें रँगा गया और इस कारण जिसकी गृहासक्ति छूट गयी, उसे गृहस्थाश्रममें भी भगवत्प्राप्ति होती है और निजबोधमें ही सारी सुखसम्पत्ति मिल जाती है।
केवल भागनेसे ही हमारी विजय नहीं हो सकती, परंतु सच्ची नम्रता और धैर्यसे हमलोग अपने शत्रुको परास्त कर सकते हैं।
जो मनुष्य भोगोंके सहवासमें रहना चाहता है, वह भगवान् के सहवासके लिये नालायक है।
जबतक हमलोग इस संसारमें हैं हम कष्टों और प्रलोभनोंसे बच नहीं सकते। मनुष्यका यहाँका जीवन प्रलोभनका जीवन है। अतएव सभीको अपनी प्रलोभनोंके सम्बन्धमें सतर्क होना चाहिये और प्रार्थनामें आत्मनिरीक्षण करना चाहिये अन्यथा आसुरी वृत्तिको उन्हें विचलित करनेका मौका मिल जायगा।
मन सफेद कपड़ा है, इसे जिस रंगमें डुबोओगे वही रंग चढ़ जायगा।
इस समय तुम्हें जो क्षण प्राप्त है, वही तुम्हारा सबसे बढ़कर कीमती धन है। आध्यात्मिक जगत्में काल नामकी वस्तु ही नहीं है, इसीलिये भूत और भविष्य भी नहीं हैं।
आत्मदमनके समान संसारमें कौन-सा कठोर कार्य है? इससे बढ़कर युद्ध है ही कौन! और इसमें विजय पा लेनेपर फिर पाना ही क्या रह गया।
काश ! मनुष्य जितना समय वाद-विवादमें लगाता हैं उतना ही परिश्रम अपने दुर्गुणोंके मूलोच्छेद करनेमें और सद्गुणोंको धारण करनेमें लगाता तो न उतनी हानि ही होती, न विश्वमें इतना अपवाद ही फैलता और न धर्मस्थानोंमें इतना असंयम और व्यभिचार ही घुसता।
महात्मा लोग सभी सम्पदा, पद, सम्मान, मित्र और अपने समीपी व्यक्तियोंको त्यागकर संसारकी किसी भी वस्तुको नहीं रखते। वे कठिनाईसे जीवन-धारणमात्रके लिये आवश्यक पदार्थोंको अंगीकार करते हैं और आवश्यकताके समय भी शरीरकी सेवा करनेमें दुःखी होते हैं।
सभी हालतोंमें प्रभु और प्रभुभक्तोंका दास होकर रहना ही अनन्य और एकनिष्ठ भक्ति करना है।
अरे ! अदनेसे राजाके साथ सोनेवाली दासी भी राजाकी बराबरी करती है। फिर मैं तो साक्षात् विश्वेश्वर हूँ। मेरे मिलनेपर भी जीव-ग्रन्थि न छूटे ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा निपट झूठ कानमें भी न पड़ने दो।
जिज्ञासु पुरुषको चाहिये कि वह समस्त इन्द्रियोंको मनमें लय करे, मनको व्यष्टि-बुद्धिमें लय करे, व्यष्टि- बुद्धिको महत् यानी समष्टि- बुद्धिमें लय करे और समष्टि- बुद्धिको शान्त आत्मामें लय करे।
नाम-चिन्तनसे जन्म-जरा-भय-व्याधि छूट जाते हैं, भवरोग सदाके लिये नष्ट हो जाता है, संसारपाश छिन्न-भिन्न हो जाता है।
साधकके भीतर यदि कुछ भी आसक्ति है तो समस्त साधना व्यर्थ चली जायगी।
राम, कृष्ण, हरिका कीर्तन करो, सुजान हो, अजान हो, जो हो हरि-कथा कहो। मैं शपथ करके कहता हूँ कि इससे तर जाओगे।
कर्म-पथमें प्रभुपर विश्वास कर बढ़ते जाओ। सर्वदा अपनी दृष्टिको उसके शब्दोंपर बद्ध रखो तब तुम्हें आशातीत सफलता प्राप्त होगी।
स्वाँगसे हृदयस्थ नारायण नहीं ठगे जाते। निर्मल भाव ही साधन-वनका बसन्त है।
श्रीरामका मुझे सहारा हो; रामका बल हो, राम-नाममें विश्वास हो और आनन्द-मंगलके साथ मैं श्रीराम-नामका स्मरण करूँ। लोक और परलोकका बनानेवाला श्रीराम-: -नाम ही है।
जो मनुष्य अभिमानी होता है, वह प्रभु-भक्त नहीं हो सकता। जो ईश्वरसे डरकर नहीं चलता, वह विश्वासपात्र नहीं बन सकता और जो विश्वासपात्र नहीं बनता, वह प्रभुक अटूट भण्डारकी चाबियोंको नहीं पा सकता।
मनुष्यने प्रभुको देखा नहीं है, इसलिये वह विषयभोगोंके पीछे दौड़ता फिरता है। उसने उसे देख लिया होता तो वह दूसरी चीजोंके पीछे क्यों दौड़ता फिरता।
स्वाँग बनानेसे भगवान् नहीं मिलते। निर्मल चित्तकी प्रेमभरी चाह नहीं तो जो कुछ भी करो, अन्त केवल 'आह' है।
जिस मनुष्यका मन प्रभुचिन्तनकी ज्योतिसे प्रकाशित है और जिसमें सदा प्रभुका ही विश्वास भरा है वही सच्चा ज्ञानी है।
भगवद्भक्तिके बिना जो जीना है, उसमें आग लगे। अन्तःकरणमें यदि हरि-प्रेम नहीं समाया तो कुल, जाति, वर्ण, रूप, विद्या इनका होना किस कामका ? इनसे उलटे दम्भ ही बढ़ता है।
जिसने प्रेमका नियम नहीं लिया, जिसने कामको नहीं जीता और जिसने नेत्रोंसे अलखपुरुष भगवान्के दर्शन नहीं किये, उसका जीवन व्यर्थ है।
ईश्वरको पानेके लिये जिसका हृदय तरस रहा है, उसीका जन्म धन्य है, उसीकी माता धन्य है। कारण, उसका सर्वस्व तो उस ईश्वरमें समाया हुआ है।
निराश मत हो, यह मत कहो कि हम पतित हैं, हमारा उद्धार क्या होगा। और कहीं मत देखो, श्रीहरिका गीत गाओ। प्रभुके चरण पकड़ लो, उनके नामका आश्रय न छोड़ो।
किसी भी दुखियाका दिल मत दुखाओ, दुखाओगे तो उसे बड़ा दुःख होगा, वह यदि दुःखमें रोकर पुकार उठेगा तो तुम्हारा सारा गुड़ मिट्टी हो जायगा।
जो मनकी मलिनतासे रहित, दुनियाके जंजालसे मुक्त और लौकिक तृष्णासे विमुख है, वही सच्चा संत है।
इन्द्रियोंको रोकने, राग-द्वेषका नाश करने और अहिंसा व्रतके पालन करनेसे मनुष्य मोक्ष-पदकी प्राप्तिके योग्य होता है।
जिसे सूर्य कहते हैं वह भी एक ऐसा चिराग दीपक है जो हवाके सामने रखा हुआ है और अब बुझा, अब बुझा हो रहा है, तब औरोंकी तो बात ही क्या ? संसारकी यही दशा है।
मैं परमेश्वरसे आठ सिद्धियोंवाली उत्तम गति या भक्ति नहीं चाहता, मैं केवल यही चाहता हूँ कि समस्त देहधारियोंके अन्तःकरणमें स्थित होकर उनके कष्टोंको भोगूँ, जिससे उन्हें कष्ट न हो।
सुस्वादिष्ट अन्न और चमकीले वस्त्रसे बचना चाहिये।
वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही कर्मकी जड़ काट दी है जो अपने हाथोंके सिवा और किसी वासनकी जरूरत नहीं समझते, जो घूम-घूमकर भिक्षाका अन्न खाते हैं, जो दसों दिशाओंको ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो सारी पृथ्वीको ही अपनी शय्या समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनतासे घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मामें ही संतोष कर लिया है।
राम-नाम स्मरण करनेसे सब सिद्धियां हाथ आ जाती हैं और प्रत्येक पगपर परम आनन्द प्राप्त होता है।
मूलका सिंचन करनेसे उसकी तरी समस्त वृक्षमें पहुँचती है। पृथक्के फेरमें मत पड़ो। जो सार वस्तु है उसे पकड़े रहो।
दुनियामें घूमना बहुत आसान है, पर उनमेंसे निकलना उतना ही मुश्किल है।
निन्द्य जीवनसे वैर बाँधकर ईश्वरके मित्र बनो। ईश्वरसे वैर बाँधकर निन्द्य जीवनसे प्रीति न करना।
जिसने भगवान्के साक्षात् दर्शन नहीं किये, संतोंमें उसकी मान्यता नहीं। संत और भक्त वही है जिसे भगवान्का सगुण-साक्षात्कार हुआ हो। भोजनके बिना तृप्ति कहाँ।
अपने सत्कार्योंपर अभिमान न करो; क्योंकि मनुष्यका न्याय परमात्माके न्यायसे सर्वथा भिन्न है, और प्रायः जो उसे (मनुष्यका) सुखद प्रतीत होता है, वही परमात्माको अरुचिकर हो जाता है।
परमात्मा एक है, उसको अनेक लोग अनेक भावोंसे भजते हैं।
हे दास ! राम-जैसा मालिक तेरे सिरपर खड़ा है, फिर तुझे क्या अभाव है? उसकी कृपासे ऋद्धि-सिद्धि तेरी सेवा करेंगी और मुक्ति तेरे पीछे फिरेगी।
जहाँ खुद प्रभुकी प्रसन्नता खोजनी और पानी चाहिये, वहाँ आज लोग दुनियाकी प्रसन्नता प्राप्त करनेके लिये दौड़-धूप कर रहे हैं और चिन्तामणि जैसी प्रभु कृपाको भूल रहे हैं।
भगवान्की भक्ति, भगवान्के नामका जप और अपने घरमें भगवान्की पूजा करनेका सभीको अधिकार है। स्त्री हो या पुरुष—यह सभीके लिये मंगलकारी कार्य है। किसीको भगवान् की भक्ति-पूजा करनेसे रोकना पाप है और इससे परिणाममें दुःखकी प्राप्ति होती है।
ईश्वरपर सतत दृष्टि रखना ही ईश्वरीय ज्ञानका फल है।
संसार, सच कहिये तो दुःखोंका घर है। जन्म मरणके महादुःखोंके बीचमें घूमनेवाले इस संसारमें जो भी आया वह दुःखोंका मेहमान हुआ।
रक्त, मांस और हड्डियोंसे बने हुए यन्त्ररूप बहुतेरे मनुष्य केवल खा-पीकर जगत्के पदार्थोंको बिगाड़ रहे हैं, उनमें बुद्धिमान् मनुष्य बहुत ही दुर्लभ है। जो मोहके वश हुए बार बार जन्म-मृत्यु और जरारूप दुःखोंवाले संसारमें ही पड़ा करते हैं, कुछ भी विचार नहीं करते, उन्हें पशु ही समझना चाहिये।
सबसे बड़ी बुद्धिमानी इसीमें है कि दुनियाकी ओरसे आँख फेरकर परमात्माके चरणोंमें ध्यान लगाया जाय।
जो प्रभुको पाता है, वह अपने रूपमें न रहकर प्रभुके रूपमें समा जाता है।
जो प्रत्येक काममें मालिककी प्रेरणा समझता है - वह निष्कामी और सच्चा भक्त है।
बाहरी मददपर कभी भरोसा मत करो। केवल अपनेपर अपने अन्तरात्मापर, प्रभुपर भरोसा करो, इसीकी आवश्यकता है।
अच्छी स्थिति हो जायगी, दुनियाका कोई दुःख नहीं रहेगा, भगवान् हमारी हर एक इच्छाको पूर्ण करते रहेंगे, तब हम भजन करेंगे, ऐसा मानना तो मनका धोखा है। तुम भगवान्का भजन तो चाहते नहीं, चाहते हो संसारी आराम।
जो सब भूतप्राणियोंमें परमात्माको और परमात्मामें सब प्राणियोंको देखता है, वह समदर्शी और आत्मयज्ञ करनेवाला पुरुष स्वराज्य (मोक्ष) को प्राप्त होता है।
विपत्तिमें धैर्य, वैभवमें दया और संकटमें सहनशीलता—ये महात्माओंके लक्षण हैं।
जो प्रभुके प्रेममें बावला हो गया है, जिसने अपना सब कुछ उनके चरणोंमें अर्पण कर दिया है, उसका सारा भार प्रभु अपने ऊपर ले लेते हैं।