पुलस्त्यजी कहते हैं-राजन् ! मेरु-गिरिके शिखरपर श्रीनिधान नामक एक नगर है, जो नाना प्रकारके रत्नोंसे सुशोभित, अनेक आश्चर्योंका घर तथा बहुतेरे वृक्षोंसे हरा-भरा है। भाँति-भाँतिकी अद्भुत धातुओंसे उसकी बड़ी विचित्र शोभा होती है। वह स्वच्छ स्फटिक मणिके समान निर्मल दिखायी देता है। वहाँ ब्रह्माजीका वैराज नामक भवन है, जहाँ देवताओंको सुख देनेवाली कान्तिमती नामकी सभा है। वह मुदाय सेवित तथा ऋषि महर्षियोंसे भरी रहती है। एक दिन देवेश्वर ब्रह्माजी उसी सभामें बैठकरजगत्का निर्माण करनेवाले परमेश्वरका ध्यान कर रहे थे ध्यान करते-करते उनके मनमें यह विचार उठा कि 'मैं किस प्रकार यह करूँ? भूतलपर कहाँ और किस स्थानपर मुझे यज्ञ करना चाहिये? काशी, प्रयाग, तुंगा (तुंगभद्रा), नैमिषारण्य, पुष्कर, कांची भद्रा, देविका, कुरुक्षेत्र, सरस्वती और प्रभास आदि बहुत से तीर्थ हैं। भूमण्डलमें चारों ओर जितने पुण्य तीर्थ और क्षेत्र हैं, उन सबको मेरी आज्ञासे रुद्रने प्रकट किया है। जिससे मेरी उत्पत्ति हुई है, भगवान् श्रीविष्णुकी नाभिसे प्रकट हुए उस कमलको ही वेदपाठी ऋषि पुष्कर तीर्थ कहते हैं (पुष्कर तीर्थ उसीका व्यक्तरूप है)। इस प्रकार विचार करते-करते प्रजापति ब्रह्माके मनमें यह बात आयी कि अब मैं पृथ्वीपर चलूँ यह सोचकर वे अपनी उत्पत्तिके प्राचीन स्थानपर आये और वहाँके उत्तम वनमें प्रविष्ट हुए, जो नाना प्रकारके वृक्षों और लताओंसे व्याप्त एवं भाँति-भाँतिके फूलोंसे सुशोभित था वहाँ पहुँचकर उन्होंने क्षेत्रकी स्थापना की, जिसका यथार्थरूपसे वर्णन करता हूँ। चन्द्रनदीके उत्तर प्राची सरस्वतीतक और नन्दन नामक स्थानसे पूर्व क्रम्य या कल्प नामक स्थानतक जितनी भूमि है, वह सब पुष्कर तीर्थके नामसे प्रसिद्ध हैं। इसमें लोककर्ता ब्रह्माजीने यज्ञ करनेके निमित्त वेदी बनायी। ब्रह्माजीने वहाँ तीन पुष्करोंकी कल्पना की। प्रथम ज्येष्ठ पुष्कर तीर्थ समझना चाहिये, जो तीनों लोकोंको पवित्र करनेवाला और विख्यात है,उसके देवता साक्षात् ब्रह्माजी हैं। दूसरा मध्यम पुष्कर है, जिसके देवता विष्णु हैं तथा तीसरा कनिष्ठ पुष्कर है, जिसके देवता भगवान् रुद्र हैं। यह पुष्कर नामक वन आदि, प्रधान एवं गुह्य क्षेत्र है। वेदमें भी इसका वर्णन आता है। इस तीर्थमें भगवान् ब्रह्मा सदा निवास करते हैं। उन्होंने भूमण्डलके इस भागपर बड़ा अनुग्रह किया है। पृथ्वीपर विचरनेवाले सम्पूर्ण जीवोंपर कृपा करनेके लिये ही ब्रह्माजीने इस तीर्थको प्रकट किया है। यहाँकी यज्ञवेदीको उन्होंने सुवर्ण और हीरेसे मढ़ा दिया तथा नाना प्रकारके रत्नोंसे सुसज्जित करके उसके फर्शको सब प्रकारसे सुशोभित एवं विचित्र बना दिया। तत्पश्चात् लोकपितामह भगवान् ब्रह्माजी वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगे। साथ ही भगवान् श्रीविष्णु, रुद्र, आठों वसु, दोनों अश्विनीकुमार, मरुद्गण तथा स्वर्गवासी देवता भी देवराज इन्द्रके साथ वहाँ आकर विहार करने लगे। यह तीर्थ सम्पूर्ण लोकॉपर अनुग्रह करनेवाला है। मैंने इसकी यथार्थ महिमाका तुमसे वर्णन किया है। जो ब्राह्मण अग्निहोत्र-परायण होकर संहिताके क्रमसे विधिपूर्वक मन्त्रोंका उच्चारण करते हुए इस तीर्थमें वेदोंका पाठ करते हैं, वे सब लोग ब्रह्माजीके कृपापात्र होकर उन्हींके समीप निवास करते हैं।
भीष्मजीने पूछा- भगवन्! तीर्थनिवासी मनुष्योंको पुष्कर वनमें किस विधिसे रहना चाहिये ? क्या केवल पुरुषोंको ही वहाँ निवास करना चाहिये या स्त्रियोंको भी? अथवा सभी वर्णों एवं आश्रमोंके लोग वहाँ निवास कर सकते हैं?
पुलस्त्यजी बोले - राजन्! सभी वर्णों एवं आश्रमोंके पुरुषों और स्त्रियोंको भी उस तीर्थमें निवास करना चाहिये। सबको अपने-अपने धर्म और आचारका पालन करते हुए दम्भ और मोहका परित्याग करके रहना उचित है। सभी मन, वाणी और कर्मसे ब्रह्माजीके भक्त एवं जितेन्द्रिय हों। कोई किसीके प्रति दोष-दृष्टि न करे। सब मनुष्य सम्पूर्ण प्राणियोंके हितैषी हों; किसीके भी हृदयमें खोटा भाव नहीं रहना चाहिये।
भीष्मजीने पूछा- ब्रह्मन् क्या करनेसे मनुष्यइस लोकमें ब्रह्माजीका भक्त कहलाता है? मनुष्योंमें कैसे लोग ब्रह्मभक्त माने गये हैं? यह मुझे बताइये।
पुलस्त्यजी बोले- राजन्। भक्ति तीन प्रकारकी कही गयी है—मानस, वाचिक और कायिक। इसके सिवा भक्तिके तीन भेद और है-लौकिक, वैदिक तथा आध्यात्मिक ध्यान-धारणापूर्वक बुद्धिके द्वारा वेदार्थका जो विचार किया जाता है, उसे मानस भक्ति कहते हैं। यह ब्रह्माजीकी प्रसन्नता बढानेवाली है। मन्त्र जप, वेदपाठ तथा आरण्यकोंके जपसे होनेवाली भक्ति वाचिक कहलाती है। मन और इन्द्रियाँको रोकनेवाले व्रत, उपवास, नियम, कृच्छ्र, सान्तपन तथा चान्द्रायण आदि भिन्न-भिन्न व्रतोंसे, ब्रह्मकृच्छ्र नामक उपवाससे एवं अन्यान्य शुभ नियमोंके अनुष्ठानसे जो भगवान्की आराधना की जाती है, उसको कायिक भक्ति कहते हैं। यह द्विजातियोंकी त्रिविध भक्ति बतायी गयी। गायके घी, दूध और दही, रत्न, दीप, कुरा जल, चन्दन, माला, विविध धातुओं तथा पदार्थ; काले अगरकी सुगन्धसे युक्त एवं घी और गूगुलसे बने हुए धूप, आभूषण, सुवर्ण और रत्न आदिसे निर्मित विचित्र-विचित्र हार, नृत्य, वाद्य, संगीत, सब प्रकारके जंगली फल-मूलोंके उपहार तथा भक्ष्यभोज्य आदि नैवेद्य अर्पण करके मनुष्य ब्रह्माजीके उद्देश्यसे जो पूजा करते हैं, वह लौकिक भक्ति मानी गयी है। ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदके मन्त्रोंका जप और संहिताओंका अध्यापन आदि कर्म यदि ब्रह्माजीके उद्देश्यसे किये जाते हैं, तो वह वैदिक भक्ति कहलाती है। वेद-मन्त्रोंके उच्चारणपूर्वक हविष्यकी आहुति देकर जो क्रिया सम्पन्न की जाती है वह भी वैदिक भक्ति मानी गयी है। अमावास्या अथवा पूर्णिमाको जो अग्निहोत्र किया जाता है, यज्ञोंमें जो उत्तम दक्षिणा दी जाती है तथा देवताओंको जो पुरोडाश और चरु अर्पण किये जाते हैं- ये सब वैदिक भक्तिके अन्तर्गत हैं। इष्टि, धृति, यज्ञ-सम्बन्धी सोमपान तथा अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश, चन्द्रमा, मेघ और सूर्यके उद्देश्यसे किये हुए जितने कर्म हैं, उन सबके देवता ब्रह्माजी ही हैं।राजन्! ब्रह्माजीकी आध्यात्मिक भक्ति दो प्रकारकी मानी गयी है-एक सांख्यज और दूसरी योगज। इन दोनोंका भेद सुनो। प्रधान (मूल प्रकृति) आदि प्राकृत तत्त्व संख्यामें चौबीस हैं। वे सब-के-सब जड एवं भोग्य हैं। उनका भोक्ता पुरुष पचीसवाँ तत्त्व है, वह चेतन है। इस प्रकार संख्यापूर्वक प्रकृति और पुरुषके तत्त्वको ठीक-ठीक जानना सांख्यज भक्ति है। इसे सत्पुरुषोंने सांख्य-शास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक भक्ति माना है। अब ब्रह्माजीकी योगज भक्तिका वर्णन सुनो। प्रतिदिन प्राणायामपूर्वक ध्यान लगाये, इन्द्रियोंका संयम करे और समस्त इन्द्रियोंको विषयोंकी ओरसे खींचकर हृदयमें धारण करके प्रजानाथ ब्रह्माजीका इस प्रकार ध्यान करे। हृदयके भीतर कमल है, उसकी कर्णिकापर ब्रह्माजी विराजमान हैं। वे रक्त वस्त्र धारण किये हुए हैं, उनके नेत्र सुन्दर हैं। सब ओर उनके मुख प्रकाशित हो रहे हैं। ब्रह्मसूत्र (यज्ञोपवीत) कमरके ऊपरतक लटका हुआ है, उनके शरीरका वर्ण लाल है, चार भुजाएँ शोभा पा रही हैं तथा हाथोंमें वरद और अभयकी मुद्राएँ हैं। इस प्रकारके ध्यानकी स्थिरता योगजन्य मानस सिद्धि है; यही ब्रह्माजीके प्रति होनेवाली पराभक्ति मानी गयी है। जो भगवान् ब्रह्माजीमें ऐसी भक्ति रखता है, वह ब्रह्मभक्त कहलाता है।
राजन्! अब पुष्कर क्षेत्रमें निवास करनेवाले पुरुषोंके पालन करनेयोग्य आचारका वर्णन सुनो। पूर्वकालमें जब विष्णु आदि देवताओंका वहाँ समागम हुआ था, उस समय सबकी उपस्थितिमें ब्रह्माजीने स्वयं ही क्षेत्रनिवासियोंके कर्तव्यको विस्तारके साथ बतलाया था। पुष्कर क्षेत्रमें निवास करनेवालोंको उचित है कि वे ममता और अहंकारको पास न आने दें। आसक्ति और संग्रहकी वृत्तिका परित्याग करें। बन्धु बान्धवोंके प्रति भी उनके मनमें आसक्ति नहीं रहनी चाहिये। वे ढेले, पत्थर और सुवर्णको समान समझें प्रतिदिन नाना प्रकारकेशुभ कर्म करते हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अभय-दान दें। नित्य प्राणायाम और परमेश्वरका ध्यान करें। जपके द्वारा अपने अन्तःकरणको शुद्ध बनायें। यति-धर्मके कर्तव्योंका पालन करें। सांख्ययोगकी विधिको जानें तथा सम्पूर्ण संशयोंका उच्छेद करके ब्रह्मका बोध प्राप्त करें। क्षेत्रनिवासी ब्राह्मण इसी नियमसे रहकर वहाँ यज्ञ करते हैं।
अब पुष्कर वनमें मृत्युको प्राप्त होनेवाले लोगोंको जो फल मिलता है, उसे सुनो। वे लोग अक्षय ब्रह्म सायुज्यको प्राप्त होते हैं, जो दूसरोंके लिये सर्वथा दुर्लभ है। उन्हें उस पदकी प्राप्ति होती है, जहाँ जानेपर पुनः मृत्यु प्रदान करनेवाला जन्म नहीं ग्रहण करना पड़ता। वे पुनरावृत्तिके पथका परित्याग करके ब्रह्मसम्बन्धिनी परा विद्यामें स्थित हो जाते हैं।
भीष्मजीने कहा- ब्रह्मन् ! पुष्कर तीर्थमें निवास करनेवाली स्त्रियाँ, म्लेच्छ, शूद्र, पशु-पक्षी, मृग, गूँगे, जड, अंधे तथा बहरे प्राणी, जो तपस्या और नियमोंसे दूर हैं, किस गतिको प्राप्त होते हैं—यह बतानेकी कृपा करें।
पुलस्त्यजी बोले- भीष्म ! पुष्कर क्षेत्रमें मरनेवाले म्लेच्छ, शूद्र, स्त्री, पशु, पक्षी और मृग आदि सभी प्राणी ब्रह्मलोकको प्राप्त होते हैं। वे दिव्य शरीर धारण करके सूर्यके समान तेजस्वी विमानोंपर बैठकर ब्रह्मलोक की यात्रा करते हैं। तिर्यग्योनिमें पड़े हुए-पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, चींटियाँ, थलचर, जलचर, स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज और जरायुज आदि प्राणी यदि पुष्कर वनमें प्राण त्याग करते हैं तो सूर्यके समान कान्तिमान् विमानोंपर बैठकर ब्रह्मलोकमें जाते हैं! जैसे समुद्रके समान दूसरा कोई जलाशय नहीं है, वैसे ही पुष्करके समान दूसरा कोई तीर्थ नहीं है।* अब मैं तुम्हें अन्य देवताओंका परिचय देता हूँ, जो इस पुष्कर क्षेत्रमें सदा विद्यमान रहते हैं। भगवान् श्रीविष्णुके साथ इन्द्रादि सम्पूर्ण देवता, गणेश, कार्तिकेय, चन्द्रमा, सूर्य औरदेवो ये सब सम्पूर्ण जगत्का हित करनेके लिये ब्रह्माजीके निवास स्थान पुष्कर क्षेत्रमें सदा विद्यमान रहते हैं। इस तीर्थमें निवास करनेवाले लोग सत्ययुगमें बारह वर्षोंतक, त्रेतामें एक वर्षतक तथा द्वापरमें एक मासतक तीर्थ सेवन करनेसे जिस फलको पाते थे, उसे कलियुगमें एक दिन शतके तीर्थ सेवनसे ही प्राप्त कर लेते हैं।" यह बात देवाधिदेव ब्रह्माजीने पूर्वकालमें मुझसे (पुलस्त्यजीसे) स्वयं ही कही थी। पुष्करसे बढ़कर इस पृथ्वीपर दूसरा कोई क्षेत्र नहीं है; इसलिये पूरा प्रयत्न करके मनुष्यको इस पुष्कर वनका सेवन करना चाहिये। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी ये सब लोग अपने-अपने शास्त्रोक्त धर्मका पालन करते हुए इस क्षेत्रमें परम गतिको प्राप्त करते हैं।
धर्म और अर्थके तत्त्वको जाननेवाले पुरुषको चाहिये कि वह अपनी आयुके एक चौथाई भागतक दूसरेकी निन्दासे बचकर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए गुरु अथवा गुरुपुत्रके समीप निवास करे तथा गुरुकी सेवासे जो समय बचे, उसमें अध्ययन करे, श्रद्धा और आदरपूर्वक गुरुका आश्रय ले । गुरुके घरमें रहते समय गुरुके सोनेके पश्चात् शयन करे और उनके उठनेसे पहले उठ जाय। शिष्यके करनेयोग्य जो कुछ सेवा आदि कार्य हो, वह सब पूरा करके ही शिष्यको गुरुके पास खड़ा होना चाहिये यह सदा गुरुका किंकर होकर सब प्रकारकी सेवाएँ करे। सब कार्योंमें कुशल हो। पवित्र, कार्यदक्ष और गुणवान् बने गुरुको प्रिय लगनेवाला उत्तर दे। इन्द्रियोंको जीतकर शान्तभावसे गुरुकी ओर देखे गुरुके भोजन करनेसे पहले भोजन और जलपान करनेसे पहले जलपान न करे। गुरु खड़े हों तो स्वयं भी बैठे नहीं। उनके सोये बिना शयन भी न करे। उत्तान हाथोंके द्वारा गुरुके चरणोंका स्पर्श करे। गुरुके दाहिने पैर को अपने दाहिने हाथसे और बायें पैरको बायें हाथसे धीरे-धीरे दबाये और इस प्रकार प्रणाम करके गुरुसेकहे- 'भगवन्! मुझे पढ़ाइये। प्रभो! यह कार्य मैंने पूरा कर लिया है और इस कार्यको मैं अभी करूँगा।' इस प्रकार पहले कार्य करे और फिर किया हुआ सारा काम गुरुको बता दे। मैंने ब्रह्मचारीके नियमोंका यहाँ विस्तारके साथ वर्णन किया है; गुरुभक्त शिष्यको इन सभी नियमोंका पालन करना चाहिये। इस प्रकार अपनी शक्तिके अनुसार गुरुकी प्रसन्नताका सम्पादन करते हुए शिष्यको कर्तव्यकर्ममें लगे रहना उचित है। वह एक, दो, तीन या चारों वेदों को अर्थसहित गुरुमुखसे अध्ययन करे। भिक्षाके अन्नसे जीविका चलाये और धरतीपर शयन करे। वेदोक्त व्रतका पालन करता रहे और गुरु-दक्षिणा देकर विधिपूर्वक अपना समावर्तन संस्कार करे फिर धर्मपूर्वक प्राप्त हुई स्त्रीकेसाथ गार्हपत्यादि अग्नियोंकी स्थापना करके प्रतिदिन हवनादिके द्वारा उनका पूजन करे।
आयुका [ प्रथम भाग ब्रह्मचर्याश्रममें बितानेके पश्चात् ] दूसरा भाग गृहस्थ आश्रममें रहकर व्यतीत करे। गृहस्थ ब्राह्मण यज्ञ करना, यज्ञ कराना, वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना तथा दान देना और दान लेना- इन छ कर्मोका अनुष्ठान करे। उससे भिन्न वानप्रस्थी विप्र केवल यजन, अध्ययन और दान- इन तीन कर्मोंका ही अनुष्ठान करे तथा चतुर्थ आश्रममें रहनेवाला ब्रह्मनिष्ठ संन्यासी जपयज्ञ और अध्ययन- इन दो ही कर्मोंसे सम्बन्ध रखे। गृहस्थके व्रतसे बढ़कर दूसरा तू कोई महान् तीर्थ नहीं बताया गया है। गृहस्थ पुरुष कभी केवल अपने खानेके लिये भोजन न बनाये [देवता और अतिथियोंके उद्देश्यसे ही रसोई करे]। पशुओंकी हिंसा न करे। दिनमें कभी नींद न 1 से रातके पहले और पिछले भागमें भी न सोये। दिन और रात्रिकी सन्धिमें (सूर्योदय एवं सूर्यास्त के समय) भोजन न करे। झूठ न बोले गृहस्थके रे घरमें कभी ऐसा नहीं होना चाहिये कि कोई ब्राह्मण अतिथि आकर भूखा रह जाय और उसकायथावत् सत्कार न हो। अतिथिको भोजन करानेसे देवता और पितर संतुष्ट होते हैं अतः गृहस्थ पुरुष सदा ही अतिथियोंका सत्कार करे। जो वेद-विद्या और हमें निष्णात श्रोत्रिय, वेदोंके पारगामी, अपने कर्मसे जीविका चलानेवाले, जितेन्द्रिय, क्रियावान् और तपस्वी है. उन्हीं श्रेष्ठ पुरुषोंके सत्कारके लिये हत्य और कव्यका विधान किया गया है। जो नश्वर पदार्थोंके प्रति आसक्त है, अपने कर्मसे भ्रष्ट हो गया है, अग्निहोत्र छोड़ चुका है, गुरुकी झूठी निन्दा करता है और असत्यभाषणमें आग्रह रखता है, वह देवताओं और पितरौको अर्पण करनेयोग्य अन्नके पानेका अधिकारी नहीं है। गृहस्थकी सम्पत्तिमें सभी प्राणियोंका भाग होता है जो भोजन नहीं बनाते, उन्हें भी गृहस्थ पुरुष अन्न दे। वह प्रतिदिन 'विघस' और 'अमृत' भोजन करे यज्ञसे (देवताओं और पितर आदिको अर्पण करनेसे) बचा हुआ अन्न हविष्यके समान एवं अमृत माना गया है तथा जो कुटुम्बके सभी मनुष्योंके भोजन कर लेनेके पश्चात् उनसे बचा हुआ अन्न ग्रहण करता है; उसे 'विघसाशी' ('विघस' अन्न भोजन करनेवाला) कहा गया है।
गृहस्थ पुरुषको केवल अपनी ही स्त्रीसे अनुराग रखना चाहिये। वह मनको अपने वशमें रखे, किसीके गुणोंमें दोष न देखे और अपनी सम्पूर्ण इन्द्रियोंको काबू रखे ऋत्विक, पुरोहित, आचार्य, मामा, अतिथि, शरणागत, वृद्ध, बालक, रोगी, वैद्य, कुटुम्बी, सम्बन्धी, बान्धव, माता, पिता, दामाद, भाई, पुत्र, स्त्री, बेटी तथा दास-दासियोंके साथ विवाद नहीं करना चाहिये। जो इनसे विवाद नहीं करता, वह सब प्रकारके पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो अनुकूल बर्तावके द्वारा इन्हें अपने वश कर लेता है, वह सम्पूर्ण लोकॉपर विजय पा जाता है-इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। आचार्य हालोकका स्वामी है, पिता प्रजापति-लोकका प्रभु है, अतिथि सम्पूर्ण लोकोंका ईश्वर है, ऋल्पिक वेदोंका अधिन और प्रभु होता है। दामाद अप्सराओके लोकका अधिपति है। कुटुम्बी विश्वेदेवसम्बन्धी लोकोंके - अधिष्ठाता हैं। सम्बन्धी और बान्धव दिशाओंके तथामाता और मामा भूलोकके स्वामी हैं। वृद्ध, बालक और रोगी मनुष्य आकाशके प्रभु हैं। पुरोहित ऋषिलोकके और शरणागत साध्यलोकोंके अधिपति हैं। वैद्य अश्विनीकुमारीके लोकका तथा भाई वलोकका स्वामी है। पत्नी वायुलोककी ईश्वरी तथा कन्या अप्सराओंके घरकी स्वामिनी है। बड़ा भाई पिताके समान होता है पत्नी और पुत्र अपने ही शरीर हैं। दासवर्ग परछाईके समान हैं तथा कन्या अत्यन्त दीन दयाके योग्य मानी गयी है। इसलिये उपर्युक्त व्यक्ति कोई अपमानजनक बात भी कह दें तो उसे चुपचाप सह लेना चाहिये। कभी क्रोध या दुःख नहीं करना चाहिये। गृहस्थ धर्मपरायण विद्वान् पुरुषको एक ही साथ बहुत से काम नहीं आरम्भ करने चाहिये। धर्मज्ञको उचित है कि वह किसी एक ही काममें लगकर उसे पूरा करे।
गृहस्थ ब्राह्मणकी तीन जीविकाएँ हैं, उनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ एवं कल्याणकारक हैं। पहली है- कुम्भधान्य वृत्ति, जिसमें एक घड़ेसे अधिक धान्यका संग्रह न करके जीवन निर्वाह किया जाता है। दूसरी उच्छशिल वृत्ति है, जिसमें खेती कट जानेपर खेतोंमें गिरी हुई अनाजकी बालें चुनकर लायी जाती हैं और उन्हींसे जीवन निर्वाह किया जाता है। तीसरी कापोती वृत्ति है, जिसमें खलिहान और बाजारसे अन्नके बिखरे हुए दाने चुनकर लाये जाते हैं तथा उन्हींसे जीविका चलायी जाती है जहाँ इन तीन वृत्तियोंसे जीविका चलानेवाले पूजनीय ब्राह्मण निवास करते हैं, उस राष्ट्रकी वृद्धि होती है। जो ब्राह्मण गृहस्थकी इन तीन वृत्तियोंसे जीवन निर्वाह करता है और मनमें कष्टका अनुभव नहीं करता, वह दस पीढ़ीतकके पूर्वजोंको तथा आगे होनेवाली सन्तानोंकी भी दस पीढ़ियोंको पवित्र कर देता है।
अब तीसरे आश्रम - वानप्रस्थका वर्णन करता हूँ, सुनो गृहस्थ पुरुष जब यह देख ले कि मेरे शरीरमें झुर्रियाँ पड़ गयी हैं, सिरके बाल सफेद हो गये हैं और पुत्रके भी पुत्र हो गया है, तब वह वनमें चला जाय। जिन्हें गृहस्थ आश्रमके नियमोंसे निर्वेद हो गया है, अतएव जो वानप्रस्थकी दीक्षा लेकर गृहस्थ आश्रमकात्याग कर चुकते हैं, पवित्र स्थानमें निवास करते हैं, जो बुद्धि-बलसे सम्पन्न तथा सत्य, शौच और क्षमा आदि सद्गुणोंसे युक्त हैं, उन पुरुषोंके कल्याणमय नियमोंका वर्णन सुनो। प्रत्येक द्विजको अपनी आयुका तीसरा भाग वानप्रस्थ आश्रममें रहकर व्यतीत करना चाहिये। वानप्रस्थ आश्रममें भी वह उन्हीं अग्नियोंका सेवन करे, जिनका गृहस्थ आश्रममें सेवन करता था। देवताओंका पूजन करे, नियमपूर्वक रहे, नियमित भोजन करे, भगवान् श्रीविष्णुमें भक्ति रखे तथा यज्ञके सम्पूर्ण अंगोंका पालन करते हुए प्रतिदिन अग्निहोत्रका अनुष्ठान करे। धान और जौ वही ग्रहण करे, जो बिना जोती हुई जमीनमें अपने आप पैदा हुआ हो। इसके सिवा नीवार (तीना) और विघस अन्नको भी वह पा सकता है। उसे अग्निमें देवताओंके निमित्त हविष्य भी अर्पण करना चाहिये। वानप्रस्थी लोग वर्षांके समय खुले मैदानमें आकाशके नीचे बैठते हैं. हेमन्त ऋतु जलका आश्रय लेते हैं और ग्रीष्ममें पंचाग्नि सेवनरूप तपस्या करते हैं। उनमेंसे कोई तो धरतीपर लोटते हैं, कोई पंजोंके बल खड़े रहते हैं और कोई-कोई एक स्थानपर एक आसनसे बैठे रह जाते हैं। कोई दाँतों से ही ऊखलका काम लेते हैं-दूसरे किसी साधनद्वारा फोड़ी हुई वस्तु नहीं ग्रहण करते। कोई पत्थर से कूटकर खाते हैं, कोई जौके आटेको पानीमें उबालकर उसीको शुक्लपक्ष या कृष्णपक्षमें एक बार पी लेते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो समयपर अपने-आप प्राप्त हुई वस्तुको ही भक्षण करते हैं। कोई मूल, कोई फल और कोई फूल खाकर ही नियमित जीवन व्यतीत करते हैं। इस प्रकार वे न्यायपूर्वक वैखानस (वानप्रस्थियों) के नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करते हैं। वे मनीषी पुरुष ऊपर बताये हुए तथा अन्यान्य नाना प्रकारके नियमोंकी दीक्षा लेते हैं।
चौथा आश्रम संन्यास है। यह उपनिषदोंद्वारा प्रतिपादित धर्म है। गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम प्रायः साधारण- मिलते-जुलते माने गये हैं; किन्तु संन्यास इनसे भिन्न- विलक्षण होता है। तात! प्राचीन युगमें सर्वार्थदर्शी ब्राह्मणोंने संन्यास धर्मका आश्रय लिया था।अगस्त्य, सप्तर्षि, मधुच्छन्दा, गवेषण, सांकृति, सुदिव भाण्डि, यवप्रोथ, कृतश्रम, अहोवीर्य, काम्य, स्थाणु, मेधातिथि, बुध, मनोवक, शिनीवाक, शून्यपाल और अकृतश्रम-ये धर्म-तत्वके यथार्थ ज्ञाता थे। इन्हें धर्मके स्वरूपका साक्षात्कार हो गया था। इनके सिवा, धर्मकी निपुणताका ज्ञान रखनेवाले, उग्रतपस्वी ऋषियोंके जो यायावर नामसे प्रसिद्ध गण हैं, वे सभी विषयोंसे उपर हो मायाके बन्धनको तोड़कर वनमें चले गये थे। मुमुक्षुको उचित है कि वह सर्वस्व दक्षिणा देकर सबका त्याग करके सद्यस्करी (तत्काल आत्मकल्याण करनेवाला) बने। आत्माका ही यजन करे विषयोंसे उपरत हो आत्मामें ही रमण करे तथा आत्मापर ही निर्भर करे। सब प्रकारके संग्रहका परित्याग करके 'भावनाके द्वारा गार्हपत्यादि अग्नियोंकी आत्मामें स्थापना करे और उसमें तदनुरूप यज्ञोंका सर्वदा अनुष्ठान करता रहे।
चतुर्थ आश्रम सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। वह तीनों आश्रमोंके ऊपर है। उसमें अनेक प्रकारके उत्तम गुणोंका निवास है। वही सबकी चरम सीमा-परम आधार है। ब्रह्मचर्य आदि तीन आश्रमों में क्रमशः रहनेके पश्चात् काषाय वस्त्र धारण करके संन्यास ले ले। सर्वस्व त्यागरूप संन्यास सबसे उत्तम आश्रम है। संन्यासीको चाहिये कि वह मोक्षकी सिद्धिके लिये अकेले ही धर्मका अनुष्ठान करे, किसीको साथ न रखे। जो ज्ञानवान् पुरुष अकेला विचरता है, वह सबका त्याग कर देता है; उसे स्वयं कोई हानि नहीं उठानी पड़ती। संन्यासी अग्निहोत्रके लिये अग्निका चयन न करे, अपने रहनेके लिये कोई घर न बनाये, केवल भिक्षा लेनेके लिये ही गाँवमें प्रवेश करे, कलके लिये किसी वस्तुका संग्रह न करे, मौन होकर शुद्धभावसे रहे तथा थोड़ा और नियमित भोजन करे। प्रतिदिन एक ही बार भोजन करे। भोजन करने और पानी पीनेके लिये कपाल (काठ या नारियल आदिका पात्रविशेष) रखना, वृक्षकी जड़में निवास करना, मलिन वस्त्र धारण करना, अकेले रहना तथा सब प्राणियोंकी ओरसे उदासीनता रखना ये भिक्षु (संन्यासी) के लक्षण है। जिस पुरुषके भीतरसबकी बातें समा जाती है-जो सबकी सह लेता है जिसके पाससे कोई बात लौटकर पुनः वक्ताके पास नहीं जाती- जो कटु वचन कहनेवालेको भी कटु उत्तर नहीं देता, वही संन्यासाश्रममें रहनेका अधिकारी है। कभी किसीको भी निन्दाको न तो करे और न सुने ही विशेषतः ब्राह्मणोंकी निन्दा तो किसी तरह न करे। ब्राह्मणका जो शुभकर्म हो, उसीकी सदा चर्चा करनी चाहिये जो उसके लिये निन्दाकी बात हो, उसके विषयमें मौन रहना चाहिये यही आत्मशुद्धिकी दवा है।
जो जिस किसी भी वस्तुसे अपना शरीर ढक लेता है, जो कुछ मिल जाय उसीको खाकर भूख मिटा लेता है तथा जहाँ कहीं भी सो रहता है, उसे देवता ब्राह्मण (ब्रह्मवेत्ता) समझते हैं जो जन समुदायको साँप समझकर, स्नेह सम्बन्धको नरक जानकर तथा स्त्रियोंको मुर्दा समझकर उन सबसे डरता रहता है; उसे देवतालोग ब्राह्मण कहते हैं। जो मान या अपमान होनेपर स्वयं हर्ष अथवा क्रोधके वशीभूत नहीं होता, उसे देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। जो जीवन और मरणका अभिनन्दन न करके सदा कालकी ही प्रतीक्षा करता रहता है, उसे देवता ब्राह्मण मानते हैं। जिसका चित्त राग-द्वेषादिके वशीभूत नहीं होता, जो इन्द्रियोंको वशमें रखता है तथा जिसकी बुद्धि भी दूषित नहीं होती, वह मनुष्य सब पापोंसे मुक्त हो जाता है। जो सम्पूर्ण प्राणियोंसे निर्भय है तथा समस्त प्राणी जिससे भय नहीं मानते, उस देहाभिमानसे मुक्त पुरुषको कहीं भी भय नहीं होता। जैसे हाथीके पदचिह्नमें अन्य समस्त पादचारी जीवोंके पदचिन समा जाते हैं, तथा जिस प्रकार सम्पूर्ण ज्ञान चित्तमें लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सारे धर्म और अर्थअहिंसामें लीन रहते हैं। राजन्! जो हिंसाका आश्रय लेता है वह सदा ही मृतकके समान है।
इस प्रकार जो सबके प्रति समान भाव रखता है, भलीभाँति धैर्य धारण किये रहता है, इन्द्रियाँको अपने वशमें रखता है तथा सम्पूर्ण भूतोंको त्राण देता है, वह ज्ञानी पुरुष उत्तम गतिको प्राप्त होता है। जिसका अन्तःकरण उत्तम ज्ञानसे परितृप्त है तथा जिसमें ममताका सर्वथा अभाव है, उस मनीषी पुरुषकी मृत्यु नहीं होती; वह अमृतत्वको प्राप्त हो जाता है। ज्ञानी मुनि सब प्रकारकी आसक्तियोंसे मुक्त होकर आकाशकी भाँति स्थित होता है। जो सबमें विष्णुकी भावना करनेवाला और शान्त होता है, उसे ही देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं जिसका जीवन धर्मके लिये, धर्म आत्मसन्तोषके लिये तथा दिन-रात पुण्यके लिये हैं, उसे देवतालोग ब्राह्मण समझते हैं। जिसके मनमें कोई कामना नहीं होती, जो कर्मोंके आरम्भका कोई संकल्प नहीं करता तथा नमस्कार और स्तुतिसे दूर रहता है, जिसने योगके द्वारा कमको क्षीण कर दिया है उसे देवतालोग ब्राह्मण मानते हैं। सम्पूर्ण प्राणियोंको अभयकी दक्षिणा देना संसारमें समस्त दानोंसे बढ़कर है जो किसीकी निन्दाका पात्र नहीं है तथा जो स्वयं भी दूसरोंकी निन्दा नहीं करता, वहीं ब्राह्मण परमात्माका साक्षात्कार कर पाता है। जिसके समस्त पाप नष्ट हो गये हैं, जो इहलोक और परलोकमें भी किसी वस्तुको पानेकी इच्छा नहीं करता, जिसका मोह दूर हो गया है, जो मिट्टीके ढेले और सुवर्णको समान दृष्टिसे देखता है, जिसने रोषको त्याग दिया है, जो निन्दा-स्तुति और प्रिय अप्रियसे रहित होकर सदा उदासीनकी भाँति विचरता रहता है, वही वास्तवमें संन्यासी है।