एकादशीके जया आदि भेद, नक्तव्रतका स्वरूप, उत्पन्ना एकादशीके प्रसंगमें
एकादशीकी विधि, उत्पत्ति-कथा और महिमाका वर्णन
नारदजीने पूछा- महादेव! महाद्वादशी (एकादशी ) - का उत्तम व्रत कैसा होता है। सर्वेश्वर प्रभो! उसके व्रतसे जो कुछ भी फल प्राप्त होता है, उसे बतानेकी कृपा कीजिये ।
महादेवजीने कहा- ब्रह्मन्! यह एकादशी महान् पुण्यफलको देनेवाली है। श्रेष्ठ मुनियोंको भी इसका अनुष्ठान करना चाहिये । विशेष- विशेष नक्षत्रोंका योग होनेपर यह तिथि जया, विजया, जयन्ती तथा पापनाशिनी -इन चार नामोंसे विख्यात होती है। ये सभी पापोंका नाश करनेवाली हैं। इनका व्रत अवश्य करना चाहिये। जब शुक्लपक्षकी एकादशीको 'पुनर्वसु' नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि 'जया' कहलाती है। उसका व्रत करके मनुष्य निश्चय ही पापसे मुक्त हो जाता है। जब शुक्लपक्षकी द्वादशीको 4 श्रवण' नक्षत्र हो तो वह उत्तम तिथि 'विजया' के नामसे विख्यात होती है; इसमें किया हुआ दान और ब्राह्मण-भोजन सहस्र गुना फल देनेवाला है तथा होम और उपवास तो सहस्त्र गुनेसे भी अधिक फल देता है। जब शुक्लपक्षकी द्वादशीको 'रोहिणी' नक्षत्र हो तो वह तिथि 'जयन्ती' कहलाती है: वह सब पापोंको हरनेवाली है। उस तिथिको पूजित होनेपर भगवान् गोविन्द निश्चय ही मनुष्यके सब पापोंको धो डालते हैं। जब कभी शुक्लपक्षकी द्वादशीको 'पुष्य' नक्षत्र हो तो वह महापुण्यमयी 'पापनाशिनी' तिथि कहलाती है। जो एक वर्षतक प्रतिदिन एक प्रस्थ तिल दान करता है तथा जो केवल 'पापनाशिनी' एकादशीको उपवास करता है, उन दोनोंका पुण्य समान होता है। उस तिथिको पूजित होनेपर संसारके स्वामी सर्वेश्वर श्रीहरि सन्तुष्ट होते हैं तथा प्रत्यक्ष दर्शन भी देते हैं। उस दिन प्रत्येक पुण्यकर्मका अनन्त फल माना गया है। सगरनन्दन ककुत्स्थ, नहुष तथा राजा गाधिने उस तिथिको भगवान्की आराधना की थी, जिससे भगवान्ने इस पृथ्वीपर उन्हें सब कुछ दिया था। इस तिथिके सेवनसे मनुष्य सात जन्मोंके कायिक, वाचिक और मानसिक पापसे मुक्त हो जाता है। इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। पुष्य नक्षत्रसे युक्त एकमात्र पापनाशिनी एकादशीका व्रत करके मनुष्य एक हजार एकादशियोंके व्रतका फल प्राप्त कर लेता है। उस दिन स्नान, दान, जप, होम, स्वाध्याय और देवपूजा आदि जो कुछ भी किया जाता है, उसका अक्षय फल माना गया है। इसलिये प्रयत्नपूर्वक इसका व्रत करना चाहिये। जिस समय धर्मात्मा राजा युधिष्ठिर पंचम अश्वमेध यज्ञका स्नान कर चुके, उस समय उन्होंने यदुवंशावतंस भगवान् श्रीकृष्णसे इस प्रकार प्रश्न किया।
युधिष्ठिर बोले- प्रभो ! नक्तव्रत तथा एकभुक्त व्रतका पुण्य एवं फल क्या है ? जनार्दन ! यह सब मुझे बताइये । 11
श्रीभगवान्ने कहा – कुन्तीनन्दन! हेमन्त ऋतुमें जब परम कल्याणमय मार्गशीर्षमास आये, तब उसके कृष्णपक्षकी द्वादशी तिथिको उपवास (व्रत) करना चाहिये। उसकी विधि इस प्रकार है - दृढ़तापूर्वक उत्तम व्रतका पालन करनेवाला शुद्धचित्त पुरुष दशमीको सदा एकभुक्त रहे अथवा शौच-सन्तोषादि नियमोंके पालनपूर्वक नक्तव्रतके स्वरूपको जानकर उसके अनुसार एक बार भोजन करे। दिनके आठवें भागमें जब सूर्यका तेज मन्द पड़ जाता है, उसे 'नक्त' जानना चाहिये । रातको भोजन करना 'नक्त' नहीं है। गृहस्थके लिये तारोंके दिखायी देनेपर नक्तभोजनका विधान है और संन्यासीके लिये दिनके आठवें भागमें; क्योंकि उसके लिये रातमें भोजनका निषेध है। कुन्तीनन्दन! दशमीकी रात व्यतीत होनेपर एकादशीको प्रातः काल व्रत करनेवाला पुरुष व्रतका नियम ग्रहण करे और सबेरे तथा मध्याह्नको पवित्रताके लिये स्नान करे। कुएँका स्नान निम्न श्रेणीका है। बावलीमें स्नान करना मध्यम, पोखरेमें उत्तम तथा नदीमें उससे भी उत्तम माना गया है। जहाँ जलमें खड़ा होनेपर जल न-जन्तुओंको पीड़ा होती हो, वहाँ स्नान करनेपर पाप और पुण्य बराबर होता है। यदि जलको छानकर शुद्ध कर ले तो घरपर भी स्नान करना उत्तम माना गया है। इसलिये पाण्डवश्रेष्ठ ! घरपर उक्त विधिसे स्नान करे। स्नानके पहले निम्नांकित मन्त्र पढ़कर शरीरमें मृत्तिका लगा ले
अश्वक्रान्ते रथक्रान्ते विष्णुक्रान्ते वसुन्धरे । मृत्तिके हर मे पापं यन्मया पूर्वसञ्चितम् ॥ (40 । 28)
'वसुन्धरे! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते हैं। भगवान् विष्णुने भी वामन अवतार धारण कर तुम्हें अपने पैरोंसे नापा था । मृत्तिके! मैंने पूर्वकालमें जो पाप संचित किया है, उस मेरे पापको हर लो। '
व्रती पुरुषको चाहिये कि वह एकचित्त और दृढ़संकल्प होकर क्रोध तथा लोभका परित्याग करे। अन्त्यज, पाखण्डी, मिथ्यावादी, ब्राह्मणनिन्दक, अगम्या स्त्रीके साथ गमन करनेवाले अन्यान्य दुराचारी, परधनहारी तथा परस्त्रीगामी मनुष्योंसे वार्तालाप न करे। भगवान् केशवकी पूजा करके उन्हें नैवेद्य भोग लगाये। घरमें भक्तियुक्त मनसे दीपक जलाकर रखे। पार्थ! उस दिन निद्रा और मैथुनका परित्याग करे। धर्मशास्त्रसे मनोरंजन करते हुए सम्पूर्ण दिन व्यतीत करे। नृपश्रेष्ठ! भक्तियुक्त होकर रात्रिमें जागरण करे, ब्राह्मणोंको दक्षिणा दे और प्रणाम करके उनसे त्रुटियोंके लिये क्षमा माँगे। जैसी कृष्णपक्षकी एकादशी है, वैसी ही शुक्लपक्षकी भी है। इसी विधिसे उसका भी व्रत करना चाहिये ।
पार्थ! द्विजको उचित है कि वह शुक्ल और कृष्णपक्षकी एकादशीके व्रती लोगों में भेदबुद्धि न उत्पन्न करे। शंखोद्धारतीर्थ में स्नान करके भगवान् गदाधरका दर्शन करनेसे जो पुण्य होता है। तथा संक्रान्तिके अवसरपर चार लाखका दान देकर जो पुण्य प्राप्त किया जाता है, वह सब एकादशीव्रतकी सोलहवीं कलाके बराबर भी नहीं है। प्रभासक्षेत्रमें चन्द्रमा और सूर्यके ग्रहणके अवसरपर स्नान-दानसे जो पुण्य होता है, वह निश्चय ही एकादशीको उपवास करनेवाले मनुष्यको मिल जाता है। केदारक्षेत्रमें जल पीनेसे पुनर्जन्म नहीं होता। एकादशीका भी ऐसा ही माहात्म्य है। यह भी गर्भवासका निवारण करनेवाली है। पृथ्वीपर अश्वमेध यज्ञका जो फल होता है, उससे सौ गुना अधिक फल एकादशी व्रत करनेवालेको मिलता है। जिसके घरमें तपस्वी एवं श्रेष्ठ ब्राह्मण भोजन करते हैं उसको जिस फलकी प्राप्ति होती है, वह एकादशी व्रत करनेवालेको भी अवश्य मिलता है। वेदांगोंके पारगामी विद्वान् ब्राह्मणको सहस्र गोदान करनेसे जो पुण्य होता है, उससे सौ गुना पुण्य एकादशी व्रत करनेवालेको प्राप्त होता है। इस प्रकार व्रतीको वह पुण्य प्राप्त होता है, जो देवताओंके लिये भी दुर्लभ है । रातको भोजन कर लेनेपर उससे आधा पुण्य प्राप्त होता है तथा दिनमें एक बार भोजन करनेसे देहधारियोंको नक्त-भोजनका आधा फल मिलता है। जीव जबतक भगवान् विष्णुके प्रिय दिवस एकादशीको उपवास नहीं करता, तभीतक तीर्थ, दान और नियम अपने महत्त्वकी गर्जना करते हैं। इसलिये पाण्डवश्रेष्ठ ! तुम इस व्रतका अनुष्ठान करो। कुन्तीनन्दन ! यह गोपनीय एवं उत्तम व्रत है, जिसका मैंने तुमसे वर्णन किया है। हजारों यज्ञोंका अनुष्ठान भी एकादशी - व्रतकी तुलना नहीं कर सकता।
युधिष्ठिरने पूछा- भगवन्! पुण्यमयी एकादशी तिथि कैसे उत्पन्न हुई ? इस संसारमें क्यों पवित्र मानी गयी ? तथा देवताओंको कैसे प्रिय हुई ?
श्रीभगवान् बोले – कुन्तीनन्दन! प्राचीन समयकी बात है, सत्ययुगमें मुर नामक दानव रहता था। वह बड़ा ही अद्भुत, अत्यन्त रौद्र तथा सम्पूर्ण देवताओंके लिये भयंकर था। उस कालरूपधारी दुरात्मा महासुरने इन्द्रको भी जीत लिया था । सम्पूर्ण देवता उससे परास्त होकर स्वर्गसे निकाले जा चुके थे और शंकित तथा भयभीत होकर पृथ्वीपर विचरा करते थे। एक दिन सब देवता महादेवजीके पास
गये। वहाँ इन्द्रने भगवान् शिवके आगे सारा हाल कह सुनाया । इन्द्र बोले- महेश्वर! ये देवता स्वर्गलोकसे भ्रष्ट होकर पृथ्वीपर विचर रहे हैं। मनुष्योंमें रहकर इनकी शोभा नहीं होती। देव! कोई उपाय बतलाइये। देवता किसका सहारा लें ? महादेवजीने कहा- देवराज! जहाँ सबको शरण देनेवाले, सबकी रक्षामें तत्पर रहनेवाले जगत्के स्वामी भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, वहाँ जाओ। वे तुमलोगोंकी रक्षा करेंगे।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर! महादेवजीकी बात सुनकर परम बुद्धिमान् देवराज इन्द्र सम्पूर्ण देवताओंके साथ वहाँ गये। भगवान् गदाधर क्षीरसागरके जलमें सो रहे थे। उनका दर्शन करके इन्द्रने हाथ जोड़कर स्तुति आरम्भ की।
इन्द्र बोले- देवदेवेश्वर ! आपको नमस्कार है। देवता और दानव दोनों ही आपकी वन्दना करते हैं। पुण्डरीकाक्ष ! आप दैत्योंके शत्रु हैं। मधुसूदन! हमलोगोंकी रक्षा कीजिये जगन्नाथ ! सम्पूर्ण देवता मुर नामक दानवसे भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं। भक्तवत्सल! हमें बचाइये। देवदेवेश्वर ! हमें बचाइये। जनार्दन! हमारी रक्षा कीजिये, रक्षा कीजिये । दानवोंका विनाश करनेवाले कमलनयन ! हमारी रक्षा कीजिये। प्रभो ! हम सब लोग आपके समीप आये हैं। आपकी ही शरणमें आ पड़े हैं। भगवन्! शरणमें आये हुए देवताओंकी सहायता कीजिये । देव! आप ही पति, आप ही मति, आप ही कर्ता और आप ही कारण हैं। आप ही सब लोगोंकी माता और आप ही इस जगत्के पिता हैं। भगवन्! देवदेवेश्वर ! शरणागतवत्सल! देवता भयभीत होकर आपकी शरणमें आये हैं। प्रभो! अत्यन्त उग्र स्वभाववाले महाबली मुर नामक दैत्यने सम्पूर्ण देवताओंको जीतकर इन्हें स्वर्गसे निकाल दिया है। इन्द्रकी बात सुनकर भगवान् विष्णु बोले- 'देवराज! वह दानव कैसा है ? उसका रूप और बल कैसा है तथा उस दुष्टके रहनेका स्थान कहाँ है ?'
इन्द्र बोले—देवेश्वर! पूर्वकालमें ब्रह्माजीके वंशमें तालजंघ नामक एक महान् असुर उत्पन्न हुआ था, जो अत्यन्त भयंकर था। उसका पुत्र मुर दानवके नामसे विख्यात हुआ। वह भी अत्यन्त उत्कट, महापराक्रमी और देवताओंके लिये भयंकर है। चन्द्रावती नामसे प्रसिद्ध एक नगरी है, उसीमें स्थान बनाकर वह निवास करता है । उस दैत्यने समस्त देवताओंको परास्त करके स्वर्गलोकसे बाहर कर दिया है। उसने एक दूसरे ही इन्द्रको स्वर्गके सिंहासनपर बैठाया है। अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, वायु तथा वरुण भी उसने दूसरे ही बनाये हैं। जनार्दन ! मैं सच्ची बात बता रहा हूँ। उसने सब कोई दूसरे ही कर लिये हैं। देवताओंको तो उसने प्रत्येक स्थानसे वंचित कर दिया है।
इन्द्रका कथन सुनकर भगवान् जनार्दनको बड़ा क्रोध हुआ । वे देवताओंको साथ लेकर चन्द्रावतीपुरीमें गये। देवताओंने देखा, दैत्यराज बारम्बार गर्जना कर रहा है; उससे परास्त होकर सम्पूर्ण देवता दसों दिशाओं में भाग गये। अब वह दानव भगवान् विष्णुको देखकर बोला, 'खड़ा रह, खड़ा रह ।' उसकी ललकार सुनकर भगवान् के नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। वे बोले-'अरे दुराचारी दानव! मेरी इन भुजाओंको देख।' यह कहकर श्रीविष्णुने अपने दिव्य बाणोंसे सामने आये हुए दुष्ट दानवोंको मारना आरम्भ किया। दानव भयसे विह्वल हो उठे। पाण्डुनन्दन ! तत्पश्चात् श्रीविष्णुने दैत्य-सेनापर चक्रका प्रहार किया। उससे छिन्न-भिन्न होकर सैकड़ों योद्धा मौतके मुखमें चले गये। इसके बाद भगवान् मधुसूदन बदरिकाश्रमको चले गये। वहाँ सिंहावती नामकी गुफा थी, जो बारह योजन लम्बी थी। पाण्डुनन्दन ! उस गुफामें एक ही दरवाजा था। भगवान् विष्णु उसीमें सो रहे। दानव मुर भगवान्को मार डालनेके उद्योगमें लगा था। वह उनके पीछे लगा रहा। वहाँ पहुँचकर उसने भी उसी गुहामें प्रवेश किया। वहाँ भगवान्को सोते देख उसे बड़ा हर्ष हुआ। उसने सोचा, 'यह दानवोंको भय देनेवाला देवता है। अतः निस्सन्देह इसे मार डालूँगा ।' युधिष्ठिर! दानवके इस प्रकार विचार करते ही भगवान् विष्णुके शरीरसे एक कन्या प्रकट हुई, जो बड़ी ही रूपवती, सौभाग्यशालिनी तथा दिव्य अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त थी। वह भगवान्के तेजके अंशसे उत्पन्न हुई थी। उसका बल और पराक्रम महान् था। युधिष्ठिर! दानवराज मुरने उस कन्याको देखा। कन्याने युद्धका विचार करके दानवके साथ युद्धके लिये याचना की। युद्ध छिड़ गया। कन्या सब प्रकारकी युद्धकलामें निपुण थी! वह मुर नामक महान् असुर उसके हुंकारमात्रसे राखका ढेर हो गया । दानवके मारे जानेपर भगवान् जाग उठे। उन्होंने दानवको धरतीपर पड़ा देख, पूछा- 'मेरा यह शत्रु अत्यन्त उग्र और भयंकर था, किसने इसका वध किया है ?' कन्या बोली - स्वामिन्! आपके ही प्रसादसे मैंने इस महादैत्यका वध किया है।
श्रीभगवान्ने कहा- कल्याणी! तुम्हारे इस कर्मसे तीनों लोकोंके मुनि और देवता आनन्दित हुए हैं! अतः तुम्हारे मनमें जैसी रुचि हो, उसके अनुसार मुझसे कोई वर माँगो; देवदुर्लभ होनेपर भी वह वर मैं तुम्हें दूँगा, इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
वह कन्या साक्षात् एकादशी ही थी। उसने कहा, 'प्रभो! यदि आप प्रसन्न हैं तो मैं आपकी कृपासे सब तीर्थोंमें प्रधान, समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाली तथा सब प्रकारकी सिद्धि देनेवाली देवी होऊँ । जनार्दन! जो लोग आपमें भक्ति रखते हुए मेरे दिनको उपवास करेंगे, उन्हें सब प्रकारकी सिद्धि प्राप्त हो । माधव! जो लोग उपवास, नक्त अथवा एकभुक्त करके मेरे व्रतका पालन करें, उन्हें आप धन, धर्म और मोक्ष प्रदान कीजिये।' श्रीविष्णु बोले- कल्याणी! तुम जो कुछ कहती हो, वह सब पूर्ण होगा।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं- युधिष्ठिर! ऐसा वर पाकर महाव्रता एकादशी बहुत प्रसन्न हुई। दोनों पक्षोंकी एकादशी समान रूपसे कल्याण करनेवाली है। इसमें शुक्ल और कृष्णका भेद नहीं करना चाहिये। यदि उदयकालमें थोड़ी-सी एकादशी, मध्यमें पूरी द्वादशी और अन्तमें किंचित् त्रयोदशी हो तो वह 'त्रिस्पृशा' एकादशी कहलाती है। वह भगवान्को बहुत ही प्रिय है । यदि एक त्रिस्पृशा एकादशीको उपवास कर लिया जाय तो एक सहस्त्र एकादशीव्रतोंका फल प्राप्त होता है तथा इसी प्रकार द्वादशीमें पारण करनेपर सहस्त्र गुना फल माना गया है। अष्टमी, एकादशी, षष्ठी, तृतीया और चतुर्दशी – ये यदि पूर्व तिथिसे विद्ध हों तो उनमें व्रत नहीं करना चाहिये । परवर्तिनी तिथिसे युक्त होनेपर ही इनमें उपवासका विधान है। पहले दिन दिनमें और रात में भी एकादशी हो तथा दूसरे दिन केवल प्रातः काल एक दण्ड एकादशी रहे तो पहली तिथिका परित्याग करके दूसरे दिनकी द्वादशीयुक्त एकादशीको ही उपवास करना चाहिये। यह विधि मैंने दोनों पक्षोंकी एकादशीके लिये बतायी है। जो मनुष्य एकादशीको उपवास करता है, वह वैकुण्ठधाममें, जहाँ साक्षात् भगवान् गरुडध्वज विराजमान हैं, जाता है। जो मानव हर समय एकादशीके माहात्म्यका पाठ करता है, उसे सहस्र गोदानोंके पुण्यका फल प्राप्त होता है। जो दिन या रातमें भक्तिपूर्वक इस माहात्म्यका श्रवण करते हैं, वे निस्सन्देह ब्रह्महत्या आदि पापोंसे मुक्त हो जाते हैं। एकादशीके समान पापनाशक व्रत दूसरा कोई नहीं है।