सूतजी बोले - [हे मुनियो!] देवताओंका यह वचन सुनकर द्विजश्रेष्ठ अगस्त्यमुनिने उनसे कहा मैं आपलोगोंका यह कार्य करूँगा ॥ 1 ॥
हे द्विजवरो! कुम्भसे आविर्भूत अगस्त्यमुनिके द्वारा देवकार्य करना स्वीकार कर लिये जानेपर समस्त देवता अत्यन्त हर्षित हो उठे ॥ 2 ॥
मुनिके वचनसे आश्वस्त होकर जब वे देवता अपने-अपने स्थानोंको चले गये तब श्रीमान् मुनिवर अगस्त्यने अपनी पत्नी राजकन्या लोपामुद्रासे कहा- ॥ 3 ॥
हे राजपुत्रि विन्ध्यगिरिने सूर्यके मार्गका अवरोध करके महान् अनर्थकारी विघ्न उपस्थित कर दिया है ॥ 4 ll
मुझे इसका कारण ज्ञात हो गया। काशीको उद्देश्य करके तत्त्वदर्शी मुनियोंने जो कहा है, वह पुरातन वाक्य मुझे स्मरण हो आया कि मोक्षकी अभिलाषा रखनेवाले प्राणियोंको अविमुक्त काशीक्षेत्रका त्याग कभी नहीं करना चाहिये, किंतु काशीवास करनेवाले सत्पुरुषोंके समक्ष भी विघ्न आते हैं। हे प्रिये काशीमें निवास कर रहे मेरे समक्ष भी वही बाधा उपस्थित हुई ।। 5-66 ।।
अपनी उन भार्यासे ऐसा कहकर परम तपस्वी मुनि अगस्त्य मणिकर्णिकाकुण्डमें स्नान करके तथा भगवान् विश्वनाथ और दण्डपाणिका सम्यक् पूजन करके कालभैरवका दर्शन करने वहाँ आये ।। 7-8 ॥[ वहाँ पहुँचकर वे कहने लगे-] हे भक्तोंका भय दूर करनेवाले महाबाहो कालराज! आप काशीपुरीके अधिपति हैं, मुझे इस पुरीसे दूर क्यों कर रहे हैं ? ।। 9 ।। आप तो काशीमें निवास करनेवाले प्राणियोंकी बाधाओंका नाश करनेवाले तथा भक्तजनोंके रक्षक हैं, तो फिर हे भक्तोंका दुःख दूर करनेवाले स्वामिन्! मुझे क्यों दूर कर रहे हैं ? ॥ 10 ॥ मैंने दूसरोंके लिये कभी निन्दित वचन नहीं कहा, चुगली नहीं की तथा मिथ्या भाषण नहीं किया, तो मेरे किस कर्मके परिणामस्वरूप आप मुझे काशीसे दूर कर रहे हैं ? ॥। 11 ॥
उन कालभैरवसे ऐसी प्रार्थना करके कुम्भयोनि अगस्त्यमुनि समस्त विघ्नोंका नाश करनेवाले साक्षीविनायकके पास गये ॥ 12 ॥
उन साक्षीविनायकका दर्शन, पूजन तथा स्तवन करके लोपामुद्रापति श्रीमान् अगस्त्य उस पुरीसे दक्षिण दिशाकी ओर निकल पड़े ॥ 13 ॥
काशीत्यागसे सन्तप्त महान् भाग्यशाली अगस्त्यमुनि प्रतिक्षण काशीका स्मरण करते हुए अपने तपोबलरूपी विमानपर चढ़कर अपनी भार्याके साथ आधे निमेषमें ही वहाँ पहुँच गये और मुनिने देखा कि सामने विन्ध्यगिरिने अत्यन्त ऊँचे उठकर आकाशको आच्छादित कर रखा है ।। 14-15 ॥
मुनिको समक्ष उपस्थित देखकर विन्ध्यपर्वत तेजीसे काँपने लगा। वह पर्वत पूर्णरूपसे अभिमानरहित होकर कुछ कहनेके विचारसे उनके सम्मुख पृथ्वीकी भाँति विनयावनत हो भक्ति-भावनासे युक्त होकर दण्डकी भाँति भूमिपर गिरकर साष्टांग प्रणाम करने लगा ॥ 163 ॥
तब उस विन्ध्य नामक महागिरिको उस समय नम्र शिखरवाला देखकर प्रसन्न मुखवाले अगस्त्यमुनिने विन्ध्याचलसे कहा- हे वत्स! जबतक मैं लौटकर आता हूँ तबतक तुम इसी प्रकार स्थित रहो; क्योंकि हे पुत्र मैं तुम्हारे उच्च शिखरपर चढ़नेमें असमर्थ हूँ ।। 17-183 ॥
इस प्रकार कहकर दक्षिण दिशाकी ओर प्रस्थान करनेकी इच्छावाले अगस्त्यमुनि उस विन्ध्यके शिखरोंपर चढ़कर क्रमशः नीचे पृथ्वीपर उतर आये और वहाँसे दक्षिण दिशाकी ओर चल पड़े। मार्गमें श्रीशैलका अवलोकन करते हुए मलयाचलपर आकर आश्रम में निवास करने लगे ।॥ 19-20 3 ॥मनुके द्वारा पूजित वे भगवती भी वहीं विन्ध्यगिरिपर आ गयीं। हे शौनक ! वे ही देवी समस्त लोकोंमें विन्ध्यवासिनी नामसे विख्यात हो गयीं ॥ 21 ॥
सूतजी बोले- हे मुनियो ! इन देवीका चरित्र परम पावन तथा शत्रुओंका नाश करनेवाला है। अगस्त्य तथा विन्ध्यगिरिका यह उपाख्यान समस्त पापोंको नष्ट कर देनेवाला है। यह आख्यान राजाओंको विजय दिलाता है तथा द्विजोंके ज्ञानकी वृद्धि करता है। यह वैश्योंके लिये धन-धान्यदायक तथा शूद्रोंके लिये सुखप्रद है। इस आख्यानके भक्तिपूर्वक एक बार श्रवण करनेसे धर्म चाहनेवाला धर्म प्राप्त करता है, धनकी अभिलाषा रखनेवाला धन प्राप्त कर लेता है और सकाम पुरुष अपने सभी मनोरथोंको प्राप्त कर लेता है ॥ 22 - 243 ॥
इस प्रकार स्वायम्भुव मनुने भक्तिपूर्वक देवीकी आराधना करके अपने मन्वन्तरपर्यन्त पृथ्वीका राज्य प्राप्त किया हे सौम्य ! मन्वन्तरसे सम्बन्ध रखनेवाले भगवती श्रीदेवीके इस आद्य चरित्रका वर्णन मैंने कर दिया; अब आगे किस प्रसंगका वर्णन आपसे करूँ? ॥ 25-26 ॥