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देवी भागवत महापुराण ( देवी भागवत)

Devi Bhagwat Purana (Devi Bhagwat Katha)

स्कन्ध 8, अध्याय 19 - Skand 8, Adhyay 19

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अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन

श्रीनारायण बोले- हे विप्र! अतल नामसे विख्यात पहले परम सुन्दर विवरमें मय दानवका पुत्र 'बल' नामक अति अभिमानी दैत्य रहता है ॥ 1 ॥ जिसने सभी प्रकारकी कामनाओंकी सिद्धि करानेवाली छियानबे प्रकारकी मायाएँ रची हैं, जिनमेंसे | कुछ मायाओंको मायावी लोग शीघ्र ही धारण कर लेतेहैं तथा जिस बलवान् दैत्य बलके जम्हाई लेते हो दोनों लोककि लोगोंको मोहित कर देनेवाली बहुत-सी स्त्रिय उत्पन्न हो जाती हैं। वे पुंश्चली, स्वैरिणी और कामिनी इन नामोंसे प्रसिद्ध हैं, जो अपने प्रिय पुरुषको क्लिरूप भवनमें एकान्तमें ले जाकर उन्हें प्रयत्नपूर्वक हाटक नामक रस पिलाकर शक्तिसम्पन्न बना देती हैं। तत्पश्चात् वे स्त्रियाँ अपने हाव-भाव, कटाक्ष, प्रेमपूर्ण व्यवहार, मुसकान आलिंगन, मधुर वार्तालाप, प्रणयभाव आदिसे उन्हें आकर्षित करके उनके साथ रमण करती हैं ॥ 2 ll

उस हाटक-रसका पान कर लेनेपर मनुष्य स्वयंको बहुत बड़ा मानने लगता है और अपनेको दस हजार हाथियोंके समान महान् बलवान् मानता हुआ मैं ईश्वर हूँ, मैं सिद्ध हूँ-मदान्धकी भाँति ऐसा बढ़ चढ़कर बोलने लगता है ॥ 6-7 ॥

हे नारद! इस प्रकार मैंने अतललोककी स्थितिका वर्णन कर दिया। अब आप वितल नामक द्वितीय विवरके विषयमें सुनिये ॥ 8 ॥

भूतलके नीचे वितल नामक विवरमें हाटकेश्वर नामसे प्रसिद्ध ये भगवान् शिव अपने पार्षदगणोंसे निरन्तर घिरे रहते हैं। देवताओंसे सुपूजित ये भगवान् शिव ब्रह्माकी रची गयी सृष्टिके विस्तारके लिये भवानीके साथ रमण करते हुए यहाँ विराजमान रहते हैं ॥ 9-10 ॥

वहाँ भगवान् शंकर और पार्वतीके तेजसे हाटकी नामक श्रेष्ठ नदी प्रादुर्भूत है। वायुसे प्रज्वलित अग्निदेव महान् ओजपूर्वक उसका जल पीते रहते हैं। उस समय उनके द्वारा निष्ठ्यूत (त्यक्त थूक) दैत्योंके लिये अत्यन्त प्रिय हाटक नामक सुवर्ण बन जाता है। दैत्योंकी स्त्रियाँ आभूषण योग्य उस सुवर्णको सदा धारण किये रहती हैं ॥ 11-12 ॥

हे मुने! उस वितलके नीचे सुतल नामक विवर कहा गया है, जो सभी बिलोंमें श्रेष्ठ है। यहाँ विरोचनके पवित्र कीर्तिवाले बलि नामक पुत्र रहते हैं। | देवराज इन्द्रका परम प्रिय कार्य करनेकी इच्छासे वामनरूप त्रिविक्रम भगवान् विष्णु बलिको इस सुतलमें लाये और उन्होंने तीनों लोकोंकी लक्ष्मी सन्निविष्ट करके दानवराज बलिको यहाँ स्थापित किया । इन्द्र आदि देवताओंके पास भी जो लक्ष्मी नहीं है, वह उस बलिके पीछे-पीछे चलती है ॥ 13-15 ॥बलि उन्हीं देवदेवेश्वर श्रीहरिकी भक्तिपूर्वक
आराधना करते हैं। वे सुतलके अधिपतिके रूपमें
आज भी वहाँ निर्भय होकर रहते हैं ॥ 16 ॥

बलिके लिये यह सुतललोककी प्राप्ति अखिल जगत्के स्वामी तथा दानपात्रभूत भगवान् विष्णुको दिये गये भूमिदानका ही फल है - ऐसा महात्मालोग कहते हैं, किंतु हे नारद यह समीचीन नहीं है। हे विप्र चारों पुरुषार्थों को देनेवाले वासुदेव भगवान् श्रीहरिको दिये गये दानका इसे फल समझना किसी भी तरहसे उचित नहीं है; क्योंकि कोई विवश होकर भी उन देवाधिदेवके नामका उच्चारण करके अपने कर्मबन्धनरूपी पाशको शीघ्र ही काट देता है। योगीलोग उस क्लेशरूपी बन्धनको काटनेके लिये अखिल जगत्के स्वामीमें भक्ति रखते हुए सांख्ययोग आदिका साधन करते हैं। हे नारद! इन भगवान्ने हम देवताओंपर कोई अनुग्रह नहीं किया है, जो कि उन्होंने भोगोंका परम मायामय ऐश्वर्य इन्द्रको देनेके लिये यह प्रयत्न किया था; क्योंकि यह ऐश्वर्य तो सभी कष्टोंका मूल कारण है और परमात्माकी स्मृतिको मिटानेवाला है । ll17 - 213 ॥

जिस समय समस्त उपायोंका सहज ज्ञान रखनेवाले साक्षात् विष्णुने कोई अन्य उपाय न देखकर याचनाके छलसे उस बलिका सर्वस्व छीन लिया और उसके पास केवल शरीरमात्र ही शेष रहने दिया, तब वरुणके पाशोंमें बाँधकर पर्वतकी गुफामें छोड़ दिये जानेपर उसने कहा था - जिसके मन्त्री बृहस्पति हों, वे इन्द्र इतने महान् मूर्ख हैं! जो कि उन्होंने परम प्रसन्न श्रीहरिसे सांसारिक सम्पत्तिकी याचना की। त्रिलोकीका यह ऐश्वर्य भला कितना नगण्य है। जो भगवान्‌के आशीर्वादोंका वैभव छोड़कर लोकसम्पत्तिकी कामना करता है, वह मूर्ख है । ll 22 - 253 ॥

सम्पूर्ण लोकका उपकार करनेवाले तथा भगवत्प्रिय मेरे पितामह श्रीमान् प्रह्लादने उन प्रभुसे दास्यभावकी याचना की थी। उनके पराक्रमी पिता हिरण्यकशिपुकी मृत्युके पश्चात् भगवान् विष्णुके द्वारा दी जानेवाली अतुलनीय पितृसम्पदाको ग्रहण करनेकी थोड़ी भी इच्छा उन भगवत्प्रिय प्रह्लादने नहीं की थी ॥ 26-283 ॥ अतुलनीय अनुभाववाले तथा सम्पूर्ण लोकोंके उपकारकी बुद्धिवाले उन प्रह्लादका प्रभाव मुझ जैसादोषोंका आगार पुरुष भला कैसे जान सकता है। इस प्रकारके विचारोंवाले परमपूज्य दानवराज बलि थे, जिनके द्वारपालके रूपमें स्वयं श्रीहरि सुतलमें विराजमान रहते हैं। एक समयकी बात है, जगत्को रुलानेवाला | रावण दिग्विजयके उद्देश्यसे सुतललोकमें प्रवेश कर रहा था, इतनेमें भक्तोंपर कृपा करनेवाले उन श्रीहरिके पैरके अँगूठेकी ठोकरसे वह दस हजार योजन दूर जा गिरा था ॥ 29 - 31॥

इस प्रकारके प्रभाववाले तथा सभी सुखोंका भोग करनेवाले बलि देवाधिदेव श्रीहरिकी कृपासे सुतललोकमें राजाके रूपमें प्रतिष्ठित होकर विराजमान हैं ॥ 32 ॥

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देवी भागवत महापुराण
Index


  1. [अध्याय 1] प्रजाकी सृष्टिके लिये ब्रह्माजीकी प्रेरणासे मनुका देवीकी आराधना करना तथा देवीका उन्हें वरदान देना
  2. [अध्याय 2] ब्रह्माजीकी नासिकासे वराहके रूपमें भगवान् श्रीहरिका प्रकट होना और पृथ्वीका उद्धार करना, ब्रह्माजीका उनकी स्तुति करना
  3. [अध्याय 3] महाराज मनुकी वंश-परम्पराका वर्णन
  4. [अध्याय 4] महाराज प्रियव्रतका आख्यान तथा समुद्र और द्वीपोंकी उत्पत्तिका प्रसंग
  5. [अध्याय 5] भूमण्डलपर स्थित विभिन्न द्वीपों और वर्षोंका संक्षिप्त परिचय
  6. [अध्याय 6] भूमण्डलके विभिन्न पर्वतोंसे निकलनेवाली विभिन्न नदियोंका वर्णन
  7. [अध्याय 7] सुमेरुपर्वतका वर्णन तथा गंगावतरणका आख्यान
  8. [अध्याय 8] इलावृतवर्षमें भगवान् शंकरद्वारा भगवान् श्रीहरिके संकर्षणरूपकी आराधना तथा भद्राश्ववर्षमें भद्रश्रवाद्वारा हयग्रीवरूपकी उपासना
  9. [अध्याय 9] हरिवर्षमें प्रह्लादके द्वारा नृसिंहरूपकी आराधना, केतुमालवर्षमें श्रीलक्ष्मीजीके द्वारा कामदेवरूपकी तथा रम्यकवर्षमें मनुजीके द्वारा मत्स्यरूपकी स्तुति-उपासना
  10. [अध्याय 10] हिरण्मयवर्षमें अर्यमाके द्वारा कच्छपरूपकी आराधना, उत्तरकुरुवर्षमें पृथ्वीद्वारा वाराहरूपकी एवं किम्पुरुषवर्षमें श्रीहनुमान्जीके द्वारा श्रीरामचन्द्ररूपकी स्तुति-उपासना
  11. [अध्याय 11] जम्बूद्वीपस्थित भारतवर्षमें श्रीनारदजीके द्वारा नारायणरूपकी स्तुति उपासना तथा भारतवर्षकी महिमाका कथन
  12. [अध्याय 12] प्लक्ष, शाल्मलि और कुशद्वीपका वर्णन
  13. [अध्याय 13] क्रौंच, शाक और पुष्करद्वीपका वर्णन
  14. [अध्याय 14] लोकालोकपर्वतका वर्णन
  15. [अध्याय 15] सूर्यकी गतिका वर्णन
  16. [अध्याय 16] चन्द्रमा तथा ग्रहों की गतिका वर्णन
  17. [अध्याय 17] श्रीनारायण बोले- इस सप्तर्षिमण्डलसे
  18. [अध्याय 18] राहुमण्डलका वर्णन
  19. [अध्याय 19] अतल, वितल तथा सुतललोकका वर्णन
  20. [अध्याय 20] तलातल, महातल, रसातल और पाताल तथा भगवान् अनन्तका वर्णन
  21. [अध्याय 21] देवर्षि नारदद्वारा भगवान् अनन्तकी महिमाका गान तथा नरकोंकी नामावली
  22. [अध्याय 22] विभिन्न नरकोंका वर्णन
  23. [अध्याय 23] नरक प्रदान करनेवाले विभिन्न पापोंका वर्णन
  24. [अध्याय 24] देवीकी उपासनाके विविध प्रसंगोंका वर्णन